एक ऐसा अनोखा विश्वविद्यालय, जिसने देश को सबसे ज्यादा नोबेल विजेता दिए
आज विश्व भारती की स्थापना के 101 वर्ष पूरे हुए हैं. वह यूनिवर्सिटी, जहां आज भी छात्र पेड़ों के नीचे बैठकर पढ़ते हैं.
पूरे देश में वह इकलौता ऐसा शिक्षण संस्थान है, जिसने देश को सबसे ज्यादा नोबेल पुरस्कार पाने वाले लोग दिए. महान फिल्मकार सत्यजीत राय उस संस्थान से पढ़े थे. अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाले प्रतिष्ठित इकोनॉमिस्ट अमर्त्य सेन वहां से पढ़े थे. इंदिरा गांधी वहां पढ़ने गई थीं. लेखिका महाश्वेता देवी को अपने शुरुआती मूल्य और संस्कार वहां से मिले. मृणालिनी साराभाई ने वहां से शिक्षा पाई थी. आप नाम लीजिए, मुकुल डे, शांतिदेव घोष, सुमित्रा गुहा, चित्रा दत्ता, सब उस संस्थान की पैदाइश हैं.
हम बात कर रहे हैं विश्वभारती की, जिसे शांतिनिकेतन के नाम से भी जाना जाता है. गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के उस स्वप्न की, जो न सिर्फ साकार हुआ, बल्कि जिसने अनेकों के स्वप्नों को साकार भी किया.
विश्वभारती, जो आज भी देश में अपनी तरह का अनोखा स्कूल और विश्वविद्यालय है. जहां आज भी विद्यार्थी आसमान के नीचे पेड़ों की छांह में बैठकर पढ़ते हैं. जहां आज भी चित्र बनाने, संगीत सीखने, कविता लिखने और भौतिकी पढ़ने के बीच बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. जहां कला और विज्ञान के बीच वैसी दीवार नहीं, जैसी देश की बाकी यूनिवर्सिटियों में होती है.
23 दिसंबर को इस महान शिक्षण संस्थान का जन्मदिन होता है. 101 साल पहले 23 दिसंबर, 1921 को गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने विश्वभारती की नींव रखी थी. 101 सालों में इस जगह का मूल्य और गौरव जरा भी क्षीण नहीं हुआ है.
कोलकाता के पास एक गांव है बोलपुर. इस गांव में रवींद्रनाथ के पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी साधना के लिए एक आश्रम बनाया था. उस आश्रम का नाम था शांतिनिकेतन. रवींद्रनाथ ने उस जगह पर छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए एक छोटा सा स्कूल बनाया. शुरू में उस स्कूल में सिर्फ पांच विद्यार्थी थे.
इसी छोटे से स्कूल ने आगे चलकर बड़े विश्वविद्यालय का रूप ले लिया, जो विश्वभारती कहलाया. इस विश्वविद्यालय के बारे में रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था, “विश्व भारती भारत का प्रतिनिधित्व करती है. यहां भारत की बौद्धिक सम्पदा सभी के लिए उपलब्ध है. अपनी संस्कृति के श्रेष्ठ तत्व दूसरों को देने में और दूसरों की संस्कृति के श्रेष्ठ तत्व अपनाने में भारत सदा से उदार रहा है. विश्व भारती भारत की इस महत्वपूर्ण परम्परा को स्वीकार करती है.”
रवींद्रनाथ टैगोर को लगता था कि इस देश को ऐसे शिक्षण संस्थानों की जरूरत है, जो मिलिट्री कैंप की तरह न होकर वास्तव में सीखने और सिखाने के केंद्र हो.
ऐसे शिक्षण संस्थान, जहां गुरु और शिष्य के बीच मालिक और नौकर जैसा रिश्ता न हो. जहां आपसी संवाद की, आदान-प्रदान की, तर्क की, वैचारिकी की जगह हो.
जाहिर है, पारंपरिक तौर पर जिस तरह से शिक्षा दी जाती है, उसमें इस संवाद और बराबरी की कोई जगह नहीं थी. अंग्रेज जो शिक्षा प्रणाली लेकर आए थे, उसने तो और अपने सिस्टम और अपनी मशीनरी के लिए तर्कविहीन श्रमपशु तैयार करने का काम किया.
एक विराट खाली जगह थी और उसी जगह को भरने के उद्देश्य से एक नई सोच के साथ रवींद्रनाथ टैगोर ने इस जगह की नींव रखी थी.
रवींद्रनाथ मानते थे कि शिक्षा चारदीवारी के अंदर नहीं होनी चाहिए. दीवारें मनुष्य की सोच की संकीर्णता की परिचायक हैं. यदि शिक्षा के दायरे आसमान की तरह खुले और व्यापक हैं, ज्ञान की दुनिया असीमित और निर्बंध है तो कक्षा दीवारों के भीतर क्यों हो.
विश्व भारती में कक्षाएं खुले आसमान के नीचे पेड़ों की छांह में लगा करती थीं. वहां चित्र बनाने से लेकर, कविता लिखने और विज्ञान के प्रयोगों तक सबकुछ होता. किसी भी विषय के बीच कोई दीवार नहीं थी.
रवींद्रनाथ ने एक बार विश्व भारती में अध्यापन के अपने अनुभव के बारे में कहा था, “मुझे पता नहीं कि मैंने क्या सिखाया, ये जरूर पता है कि मैंने क्या सीखा.”
यही विशिष्टता थी गुरुदेव की और विश्व भारती की.
Edited by Manisha Pandey