जैविक विधि से धान उगाकर सीडबैंक में बीजों का संरक्षण कर रहे छत्तीसगढ़ के किसान
देसी बीजों का सीडबैंक...
यह लेख छत्तीसगढ़ स्टोरी सीरीज़ का हिस्सा है...
छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के गोटुलमुंडा गांव के रहने वाले किसान कुछ साल पहले तक अपने खेतों में ढंग से फसल भी नहीं उगा पाते थे, लेकिन अब वही किसान न केवल ऑर्गैनिक (जैविक) खेती से अपनी आजीविका चला रहे हैं बल्कि “सीड बैंक” स्थापित कर कई दुर्लभ प्रजाति के बीजों को बचा भी रहे हैं।
आज इन किसानों के पास 105 प्रजाति के धान हैं। कुछ धान तो ऐसे हैं जो कैंसर जैसे रोगों से भी रक्षा कर सकते हैं। बाजार में उनकी कीमत भी काफी ज्यादा मिलती है। चिरईनखी धान एक ऐसा ही धान है। इसकी कीमत बाजार में 50 रुपये प्रति किलो है।
दोपहर की तपती धूप में खुले मैदान के पास पेड़ों की छांव के नीचे बैठे कुछ किसान आने वाली फसल के लिए योजना बना रहे हैं। इन सबके बीच डी.के. भास्कर नाम का एक शख्स सभी किसानों की अगुवाई कर रहा है। पास में ही एक छोटा सा भवन बना है जिसके चारों ओर सूखी क्यारियां हैं जो फसल के मौसम में लहलहाती हैं। ये भवन वास्तव में सीड बैंक है जिसका निर्माण इन किसानों ने अपनी मेहनत और सरकार की मदद के जरिए करवाया है। छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के गोटुलमुंडा गांव के रहने वाले ये किसान कुछ साल पहले तक अपने खेतों में ढंग से फसल भी नहीं उगा पाते थे, लेकिन अब वही किसान न केवल ऑर्गैनिक (जैविक) खेती से अपनी आजीविका चला रहे हैं बल्कि “सीड बैंक” स्थापित कर कई दुर्लभ प्रजाति के बीजों को बचा भी रहे हैं।
रासायनिक खाद, हाइब्रिड बीजों और महंगे कीटनाशकों की वजह से खेती करना आजकल काफी महंगा हो गया है। खेती में कम लागत से अधिक मुनाफा पाने का एक अच्छा तरीका है कि ऑर्गैनिक (जैविक) तरीके से खेती की जाए। डी.के. भास्कर स्वयं एक किसान हैं, जो गांव के किसानों को एकजुट करके जैविक विधि से 105 प्रजाति के धान और मोटे आनाज के बीजों को बचा कर सीड बैंक में रख रहे हैं। कभी साल भर में सिर्फ एक फसल उगाने वाले किसान आज ऑर्गैनिक खेती से न केवल लाभ कमा रहे हैं बल्कि अपनी माली हालत भी दुरुस्त कर रहे हैं।
य़ोरस्टोरी से बात करते हुए डी.के. भास्कर कहते हैं, कि दो साल पहले इस पूरे इलाके में आकाल पड़ा था जिसकी वजह से किसानों की हालत बिगड़ गई थी। किसानों की हालत सुधारने के लिए उन्होंने आपस में मिलकर कृषि विभाग से खेती के बारे में बात करने की योजना बनाई। इसके लिए भास्कर ने गांव वालों को इकट्ठा किया और एक समिति का गठन किया। सभी किसानों को लेकर वे जिला प्रशासन के पास पहुंचे। प्रशासन ने उनकी बात सुनी और पूरी मदद करने का आश्वासन दिया।
कुछ दिनों के भीतर ही जिले के कृषि अधिकारी गोटुलमुंडा आए और यहां किसानों से मिलकर उनकी समस्याएं सुनी। गांव वालों ने उन्हें बताया कि पास में 100 मीटर की दूरी पर एक नाला बहता है जिससे पानी की समस्या दूर की जा सकती है। लेकिन नाले से पानी निकालने के लिए कोई पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हैं। कृषि अधिकारियों ने सोचा कि अगर इन किसानों को पंप दे दिया जाए तो ये नाले के पानी को खेतों तक आसानी से पहुंचा सकते हैं। जल्द ही 23 किसानों को सरकार की ओर से पंप दिया गया। पहले साल में केवल एक फसल उगाने वाले किसानों ने पहले धान की फसल की रोपाई की उसके बाद दो और फसलें की।
फसल तो अच्छी हुई लेकिन उनके पास एक और समस्या थी। किसानों ने बैठक में सोचा कि अब बाजार में हाइब्रिड बीजों का दबदबा बढ़ गया है और उन्हें हर साल ये नए महंगे बीज खरीदने पड़ते हैं। जबकि इसी इलाके में कई सारे देसी बीज ऐसे हैं जो धीरे-धीरे विलुप्त होने की कगार पर हैं। इसके लिए उन्होंने बीजों का संग्रहण करना शुरू किया। आस पास के इलाकों के अलावा गांव के लोगों ने अपने रिश्तेदारों से हर तरह के पुराने बीज मंगवाए और उन्हें फिर से अपने खेतों में बोना शुरू कर दिया।
किसानों ने सोचा कि अगर उनके खेतों के पास ही एक भवन बन जाए तो उससे कई फायदे होंगे। लेकिन इन किसानों के पास इतनी धनराशि नहीं थी कि तुरंत किसी भवन का निर्माण किया जा सके। उन्होंने अनुमान लगाया गया कि भवन के निर्माण में लगभग 3 लाख रुपये का खर्च आएगा, लेकिन इतना पैसा जुटाना उनके लिए लगभग नामुमकिन था। वे कृषि विभाग के दफ्तर गए और अपनी समस्या बताई। विभाग की तरफ से उन्हें 1.5 लाख रुपये स्वीकृत किए गए। इन पैसों से सिर्फ निर्माण सामग्री ही आ पाई। मेहनत गांव के लोगों ने खुद की। डी.के. भास्कर बताते हैं कि छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्ग लोगों ने श्रमदान किया। उन सभी लोगों के नाम भवन की एक दीवार पर लिखे गए हैं।
वे बताते हैं कि पंप मिलने के बाद खेती में सुधार आ गया था लेकिन बड़े पैमाने पर फसल उगाने के लिए ट्यूबवेल की जरूरत महसूस की जा रही थी। तब उन्होंने एक प्रस्ताव बनाकर कृषि विभाग को दिया तो उन्हें ट्यूबवेल भी लगवाने के लिए पैसे मिल गए। 14 किसानों को इसका लाभ मिला।
आज इन किसानों के पास 105 प्रजाति के धान हैं। कुछ धान तो ऐसे हैं जो कैंसर जैसे रोगों से भी रक्षा कर सकते हैं। बाजार में उनकी कीमत भी काफी ज्यादा मिलती है। चिरईनखी धान एक ऐसा ही धान है। इसकी कीमत बाजार में 50 रुपये प्रति किलो है। हर तरह की प्रजातियों के धान सभी किसानों में बांट दिए जाते हैं और वे अपनी जमीन पर इन्हें उगाकर फसल समिति को दे देते हैं। समिति इन्हें प्रदर्शनी के माध्यम से बेचती है और आपस में बिक्री से मिले पैसों का बंटवारा करती। भास्कर बताते हैं कि पिछले साल आंचलिक जैविक मेले में उन्होंने 2 क्विंटल चावल बेचा।
एक और धान की वेराइटी है जिसका नाम करवस्ता है। यह भी पारंपरिक सुगंधित धान है जिसकी कीमत काफी अच्छी मिलती है। जहां पर किसानों ने सामुदायिक भवन बनाया है वहीं पर 10x10 फुट की क्यारियां बनाकर कई तरह की खेती की जाती है। बाकी का बचा हुआ धान किसान अपने-अपने खेतों में उगाते हैं। फसल के अंत में काफी अच्छी मात्रा में बीजों का संरक्षण कर लिया जाता है। गांव के लोगों को जिले की खनिज संपदा निधि से ही एक मिनी “राइस मिल” मिल गई जिससे धान से चावल निकालने के लिए किसानों को दूर नहीं जाना पड़ता। भास्कर का कहना है कि बाजार में ऐसे चावल की डिमांड काफी ज्यादा है। उन्हें पिछले किसान मेले में लगभग 80-85 लोगों ने चावल का ऑर्डर दिया। इतना ही नहीं अब कई कंपनियां भी किसानों से धान खरीदने के लिए संपर्क में हैं। बीज बनाने वाली ऐसी ही एक कंपनी बायर ने 20 क्विंटल धान का ऑर्डर दिया है।
धान के अलावा मोटे अनाज भी यहां उगाए जाते हैं। भास्कर के अनुसार उनके पास 'आर' नाम का एक खास मोटा अनाज है जिस पर शोध किया जा रहा है। यह अनाज और कहीं देखने को नहीं मिलता। इसे पुणे और दिल्ली की प्रयोगशालाओं में टेस्ट करने के लिए भेजा गया है। कहा जाता है कि यह अनाज भी कैंसररोधी है। अगर वैज्ञानिकों ने इसे सही साबित कर दिया तो किसानों को काफी लाभ होगा।
यह सब बताते हुए भास्कर के चेहरे की रौनक बताती है कि आदिवासी इलाके के ये किसान सीड बैंक के जरिए दुर्लभ बीजों का संरक्षण करने के साथ समृद्धि की ओर भी बढ़ रहे हैं। आने वाले समय में हम उम्मीद कर सकते हैं कि बीजों को संरक्षित करने का ये सिलसिला बढ़ता ही जाएगा और बाजार में देसी ऑर्गैनिक बीज सदा के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाएंगे।
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