फिल्म ‘श्री 420’ के राज से व्यापार का गुर सीखकर पहुंचा दिया टर्नओवर 100 करोड़
420 के प्रोडक्ट ने बनाई देश, दुनिया में अपनी पैठ, घर की रसोई से किया था व्यापार शुरु
18 साल के हुकुमचंद को एक छोटी सी किराने की दुकान पर जिंदगीभर काम करना गंवारा नहीं था। सोच बडी थी। घर की रसोई से व्यापार की शुरुआत की। नाम रखा भी तो धोखाधडी वाला 420. मगर काम में ईमानदारी और मेहनत के बलबूते पर बदनाम नाम को भी सफलता और विश्वास का पर्याय बना दिया।
इंदौर के 420 के पापड, 420 के इंस्टेंट रेडी मिक्स, 420 का नमकीन, 420 मशीनरीज, 420 बेकरीज और 420 मसाले मध्यप्रदेश ही नहीं देश के 18 राज्यों और विदेशों तक में अपने नाम का डंका बजा रहे हैं। 420 पापड के नाम से शुरु हुए उद्योग के बाद आज 420 ग्रुप ने खाने पीने के सामान के अलावा मशीनरीज में भी अपना एक मुकाम बना लिया है। और यही 420 नाम की छाप हुकुमचंद अग्रवाल और उनके परिवार पर भी पूरी तरह चस्पा हो चुकी है। 420 ग्रुप की 125 से ज्यादा गाडियों के रजिस्ट्रेशन नंबर, मोबाईल नंबर, लैंडलाईन फोन, कम्पनी के रेट कार्ड सभी के आखिरी तीन डिजिट का अंक 420 है। ज़ाहिर है 420 नंबर अग्रवाल परिवार के लिए शर्म नहीं बल्कि गर्व का प्रतीक बन गया है। ग्रुप का कारोबार 100 करोड़ पार कर चुका है। आज हर शहर का रिटेलर 420 के उत्पाद को बेचने की मोनोपॉली लेने के लिये आगे रहता है। मगर एक वक्त था जब घर में पापड़ बनाने के बाद हुकुमचंद को इन्हें बेचने के लिए भी कई महीनों तक पापड़ बेलने पड़ते थे।
इस कहानी की शुरुआत होती है सन् 1960 से। जब इंदौर में रहने वाले 16 साल के हुकुमचंद अग्रवाल के घर की माली हालत ठीक नहीं थी। परिवार की मदद के लिए हुकुमचंद ने एक छोटी सी परचून की दुकान पर नौकरी कर ली। पगार से घर की थोडी बहुत मदद तो होने लगी मगर हालात में कोई बहुत बडा बदलाव नहीं आ पाया। हुकुमचंद को ये बात सालने लगी। खुद का काम करने का विचार आया, मगर पूंजी का कोई जुगाड़ नहीं हो पा रहा था। पूंजी जमा करने के लिये हुकुमचंद ने पापड़ के व्यापारियों से काम लाना शुरु किया। व्यापारी पापड़ के आटे की लोई गिनकर हुकुमचंद को देते और वे घर से पापड़ बेलकर वापस ला देते। नौकरी के अलावा इस काम से कुछ पैसा बचने लगा। हुकुमचंद की मां भी बेटे के इस काम में मदद करने लगीं। हुकुमचंद ने देखा कि व्यापारी पापड़ बनाने के लिये कच्चे सामान के तौर पर जो आटे की लोई उन्हें देते थे, उसकी क्वालिटी दोयम दर्जे की होती थी। ये बात हुकुमचंद को बहुत खलने लगी।
साल 1962 की बात है। एक दिन अपने काम से फारिग होकर हुकुमचंद राज कपूर की फिल्म श्री 420 का देखने चले गये। काम के उधेड़बुन के बीच अरसे बाद हुकुमचंद ने खुद के मनोरंजन के लिए वक्त निकाला था। मगर फिल्म का शो खत्म होने के बाद हुकुमचंद की जिंदगी का असली शो शुरु हो गया। 18 साल के हुकुमचंद 'मेरा जूता है जापानी' के बोल गुनगुनाते हुए वापस लौट रहे थे। मगर दिमाग में फिल्म के हीरो राज का किरदार फिट बैठ गया था। फिल्म के क्लाईमेक्स में राज ने अपने ऊपर लगे 420 के तमगे के साथ ईमानदारी के साथ काम करते हुए नई पहचान बनाई थी। इस सीन का असर हुकुमचंद पर इस कदर हुआ कि उन्हें मिलावटखोरों के बीच खुद को ईमानदारी के दम पर खडे होने की ताकत मिल गई। थोडी बहुत जमापूंजी से हुकुमचंद ने पापड़ बनाने का सामान खरीदा। सबसे अच्छी क्वालिटी के साथ स्वाद को ध्यान में रखते हुए घर की रसोई में अपनी मां और पत्नी के साथ पापड़ बनाना शुरु कर दिया। इंदौर के कांच मंदिर इलाके में एक छोटी सी दुकान लेकर घर के बने पापड़ बेचना शुरु किया। पापड़ को नाम दिया गया 420 के पापड़। दुकान पर 420 नाम का बोर्ड चस्पा कर दिया गया। आसपास के दुकानदारों और पहचानवालो ने 420 नाम को लेकर जमकर मजाक उड़ाया। मगर हुकुमचंद ने उनपर ध्यान देने के बजाय अपने काम को अपनी पूजा बना लिया। हुकुमचंद ने किराना व्यापारियों से उनका माल बेचने के लिये सम्पर्क किया। मगर दुकानदारों ने साफ कह दिया कि वे अपनी दुकान पर 420 नाम छपे पैकेट का माल नहीं बेच सकते। इसलिए या तो हुकुमचंद नाम बदलें या फिर खाली पैकेट में माल रखकर पैक करें। मगर हुकुमचंद इसके लिये राजी नहीं थे। वे बदनाम नाम के साथ ईमानदारी से काम करना चाहते थे। पर जब दुकानदारों ने उन्हें नकार दिया तो वे घर-घर जाकर और शादी पार्टियों में सम्पर्क करने लगे। एक बार जिसने पापड़ का स्वाद चखा वो 420 की दुकान को ढूंढकर आने लगा। देखते देखते 420 ब्रांड के पापड़ का पूरे इंदौर में घर-घर में पैठ बनना शुरू हो गया। 8 साल में हालात पूरे बदल चुके थे। जो दुकानदार 420 नाम से दूर भाग रहे थे वे अब उनके माल के साथ अपनी दुकान में 420 पापड़ का बोर्ड लगाने की इजाजत मांगनें लगे।
समय बीतता गया फैक्ट्री का आकार और मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी। हुकुमचंद के बेटे और पूरा परिवार इसी कारोबार से जुड़ गया। 420 का स्वाद प्रदेश के बाहर दूसरे राज्यों और धीरे-धीरे देश के बाहर पहुंचने लगा। हुकुमचंद ने बेटों और छोटे भाईयों के साथ मिलकर कारोबार को और तेजी से बढ़ाना शुरु कर दिया। 420 ने पापड़ के अलावा, 65 तरह की नमकीन, इंस्टेंट मिक्स बनाकर बाजार में अपनी धाक जमा ली। नमकीन और पापड़ उद्योग के लिए काम आने वाली मशीनों का निर्माण शुरु करके 420 ने फूड प्रोसेसिंग मशीनरीज के क्षेत्र में भी अपना मुकाम बना लिया। आज 420 ग्रुप 100 करोड़ से ज्यादा का कारोबार करने वाली कम्पनी बन चुकी है। आज हुकुमचंद की तीसरी पीढ़ी भी अपने खानदानी कारोबार मे उतर चुकी है।
हुकुमचंद 73 साल के हो चुके हैं और आज भी 15 घंटे फैक्ट्री में काम करते हैं। योर स्टोरी को अपने संघर्ष से शिखर तक की कहानी सुनाते हुए हुकुमचंद ने बताया,
"जिंदगी में सफलता हासिल करने के लिए नाम नहीं बल्कि आपका ईमानदारी से किया हुआ काम मायने रखता है। बड़ा नाम रखकर खराब सेवा देंगे तो उस बड़े नाम को भी आप बदनाम कर देंगे। इसी तरह बदनाम नाम को भी आप ईमानदारी, अच्छी सेवा और गुणवत्ता के आधार पर सम्मान दिलवा सकते हैं। ईमानदारी का रास्ता लंबा जरुर होता है मगर आपकी कई पीढियों तक को वो शोहरत और लाभ दिलवाता है। जब मैंने व्यापार शुरु किया था तो मेरा टारगेट 100 करोड नहीं था। मेरा लक्ष्य गुणवत्ता के आधार पर बाजार में पकड़ बनाना था।"
हुकुमचंद के बेटे नरेश अग्रवाल ने बताया,
"हम पिताजी के नक्शे कदम पर चलते हुए इस कारोबार को आगे बढ़ा रहे हैं। IIM अहमदाबाद में हमारे पिताजी के संघर्ष से लेकर इस मुकाम तक पहुंचने की स्टोरी केस स्टडी के तौर पर पढ़ाई जा रही है। हमारा लक्ष्य है कि हम कम्पनी का टर्नओवर 420 करोड़ तक पहुंचाकर पिताजी को उपहार दें।"
हुकुमचंद के पोते नमन अग्रवाल भी पुश्तैनी व्यवसाय को संभाल चुके हैं। नमन का कहना है,
"मुझे स्कूल में दूसरे बच्चे 420 बोलकर चिढ़ाने की कोशिश करते थे। मगर मुझे कभी बुरा नहीं लगा। मुझे इस नाम पर गर्व होता है। ये हमारे लिये सम्मान का शब्द है।"
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