Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Yourstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

जन्मदिन विशेष: बेबाक, दिलदार और बिंदास खुशवंत सिंह

खुशवंत सिंह, वो नाम जो कभी विचलित नहीं हुआ आलोचनाओं से...

जन्मदिन विशेष: बेबाक, दिलदार और बिंदास खुशवंत सिंह

Friday February 02, 2018 , 10 min Read

आज प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक, उपन्यासकार और इतिहासकार खुशवंत सिंह का जन्मदिन है। साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें 1974 में पद्म भूषण और 2007 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। उनको सर्वाधिक लोकप्रियता एक पत्रकार के रूप में मिली, साथ ही जीवन के कई पक्ष ऐसे भी रहे, जिन पर आज भी तरह-तरह की चटपटी टिप्पणियां होती रहती हैं। उन्होंने भरपूर बिंदास जीवन जिया और आलोचनाओं से कभी विचलित नहीं हुए।

खुशवंत सिंह (फाइल फोटो)

खुशवंत सिंह (फाइल फोटो)


वरिष्ठ पत्रकार क़ुर्बान अली से बातचीत के दौरान उन्होंने एक बार अपनी बेबाकी और जिंदादिली के कई अनछुए पहलुओं को साझा किया था। उस वक्त वह जीवन के 86 बसंत देख चुके थे।

'न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर' के ख्यात स्तंभकार खुशवन्त सिंह ने पत्रकारिता का ट्रेंड तोड़ते हुए जीवन भर नए तरह से बेबाक फर्राटेदार कलम चलाई। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन एक जिन्दादिल इंसान की तरह जिया। वह भारत सरकार के विदेश मन्त्रालय में भी कार्यरत रहे, साथ ही1980 से 1986 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। वह जितने हमारे देश में लोकप्रिय रहे, उतने ही पाकिस्तान में भी। उनकी किताब 'ट्रेन टू पाकिस्तान' एक समय में बेहद चर्चित रही। उस पर फिल्म भी बन चुकी है। सृजन और पत्रकारिता के लिए खुशवन्त सिंह को पद्म भूषण और पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। उनके पिता सर सोभा सिंह अपने समय के प्रसिद्ध ठेकेदार थे।

उस समय सोभा सिंह को आधी दिल्ली का मालिक कहा जाता था। खुशवन्त सिंह का विवाह कँवल मलिक के साथ हुआ जिनसे पुत्र राहुल और पुत्री माला के जन्म दिए। वह 1951 से 1953 तक भारत सरकार के पत्र 'योजना' के संपाक और बाद में मुंबई से प्रकाशित प्रसिद्ध अंग्रेज़ी साप्ताहिक 'इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया' और 'न्यू डेल्ही' के संपादक रहे। सन 1983 तक दिल्ली के प्रमुख अंग्रेज़ी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के संपादक भी वही थे। तभी से वे प्रति सप्ताह एक लोकप्रिय 'कॉलम' लिखते रहे, जो अनेक भाषाओं के दैनिक पत्रों में प्रकाशित होता रहा। उन्होंने लगभग 100 महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। अपने जीवन में सेक्स, मजहब और ऐसे ही विषयों पर की गई टिप्पणियों के कारण वे हमेशा आलोचना के केंद्र में बने रहे। वह 99 साल की उम्र में 20 मार्च 2014 को नई दिल्ली में दुनिया से विदा हुए।

वरिष्ठ पत्रकार क़ुर्बान अली से बातचीत के दौरान उन्होंने एक बार अपनी बेबाकी और जिंदादिली के कई अनछुए पहलुओं को साझा किया था। उस वक्त वह जीवन के 86 बसंत देख चुके थे। खुशवंत सिंह उस मुलाकात में कहते हैं कि उनकी जिंदगी की ख़्वाहिशें तो बहुत सारी रही हैं, तमाम तमन्नाएं दिल में रहती हैं, वो कहां ख़त्म होती हैं। जिस्म से तो बूढ़ा लेकिन आंख तो बदमाश होती है। 'मेरे अंदर किसी चीज़ को छिपाने की हिम्मत नहीं। शराब पीता हूं तो खुल्लम-खुल्ला पीता हूं, कहता हूं मैं पीता हूं। मुलीद हूं, नास्तिक हूं छिपाया नहीं कभी, मैं कहता हूं कि मेरा कोई दीन-ईमान धरम-वरम कुछ नहीं है। मुझे यक़ीन नहीं है इन चीज़ों में, तो लोग उसको डिसमिस कर देते हैं कि ये क्या बकता है, मैंने कई दफ़ा कहा है कि मैं किसी मज़हब में यक़ीन नहीं करता फिर भी मुझे निशाने खालसा भी दे दिया।

गुरुनानक यूनिवर्सिटी ने मुझे ऑनररी डॉक्टरेट भी दे दिया तो मैंने क़बूल कर ली। मैंने कोई समझौता नहीं किया कि मुझमें किसी मज़हब का अहसास वापस आ गया है। मैंने खुल्लम-खुल्ला कहा कि इसमें कोई यक़ीन नहीं है क्योंकि मैं नास्तिक हूं लेकिन अपने मज़हब का कभी मज़ाक़ नहीं उड़ाया, उसका अपमान नहीं किया और अपनी बात को रखा मगर साथ में उसकी इज़्जत भी की। किसी के दिल को चोट पहुंचाना, मेरे ख़्याल से यह ग़लत बात है। इसीलिए जब सलमान रुश्दी की 'दि सैटेनिक वर्सेस' किताब आई थी तो वह छपने से पहले ही मैंने उसे मंगवाया था। मैं एडवाइज़र हूं पेंगुईन वाइकिंग का, मैंने उसकी स्क्रिप्ट को पढ़ा और मैंने उनसे कहा कि हम हिंदुस्तान में इसे नहीं छापेंगे। तब मुझसे पेंगुईन वाइकिंग के मालिक ख़फ़ा हुए जो इंग्लैंड और अमरीका में हैं।

टेलीफोन पर उन्होंने कहा कि विल यू रीड इट अगेन क्योंकि हमने करोड़ों रुपये दिए हैं एडवांस रॉयल्टी के तौर पर और हम समझते हैं कि हिंदुस्तान में यह किताब ख़ूब बिकेगी तो तुम हिंदुस्तान में छापो। उन्होंने तीसरी दफ़ा मुझे धमकी देते हुए कहा कि पुट योर ओपिनियन इन राइटिंग। तो मैंने वो भी किया, आई पुट माई ओपिनियन इन राइटिंग। मैंने कहा कि दिस इज लीथल मटिरियल, इट विल हर्ट दि फीलिंग ऑफ दि मुस्लिम ऑर यू मे हैव सीरियस ट्रबुल इवन इन इंग्लैंड।

खुशवंत सिंह मज़हब के ख़िलाफ़ और सेक्स के बारे में खुल्लम-खुल्ला लिखते थे। खुलकर शराब की तारीफ़ करते रहते थे। अपनी दिनचर्या में भी वह बेहद कठोर रहे। रोजाना सुबह चार बजे सोकर उठने के बाद काम में जुट जाते थे। उनका पूजा-पाठ में कोई यकीन नहीं था, इसलिए उसमें वक़्त जाया न कर बस अपने काम पर लग जाते थे। वह कहते थे कि 'जिस आदमी ने 80 से ज़्यादा क़िताबें लिखी हों, उसके पास कितना वक़्त होता है ऐय्याशी के लिए, बहुत कम। मेरे पास तो बिल्कुल भी नहीं है। आती हैं मेरे पास ख़ूबसूरत लड़कियां, शाम को कभी महफ़िल जम जाती है, मगर मज़ाल है किसी की कि कोई 15-20 मिनट से ज़्यादा रुक जाए यहां। मैं अपने आप ही कहता हूं कि भई आप जाइए, लेट मी गेट बैक टू माई बुक्स।'

वह अपने बारे में कहते थे कि 'मीठी बातें तो बहुत हैं, खट्टी बहुत कम हैं, मेरा ख़्याल है कि खट्टी बात तो सिर्फ़ मेरे बेटे ने ही लिखी है मेरे बारे में। वो उसका हक है, मुझसे उसकी राय मुख़्तलिफ़ है।' मीडिया से एक लंबी बातचीत में उनके बेटे राहुल सिंह ने बताया था कि वह खुशवंत सिंह के 'इलेस्ट्रेट वीकली' का संपादक बनने से काफी पहले 'टाइम्स ऑफ इंडिया' का सहायक संपादक बन गए थे। 'तब मुझे गुस्सा आता है, जब मेरा परिचय खुशवंत सिंह के बेटे के रूप में करवाने के बाद यह जोड़ दिया जाता है कि वैसे ये खुद भी जानी मानी हस्ती हैं। दुख की बात है कि भारत में व्यक्ति की अपनी पहचान या शख्सियत नहीं होती, आप फलां-फलां के बेटे, पोते, भतीजे या चचेरे भाई के रूप में ज्यादा जाने जाते हैं।

ऐसी जगहों पर, जहां लोग मुझे खुशवंत सिंह के बेटे के रूप में नहीं जानते, मुझे पापा की वजह से शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। अमेरिका में एक ऐसा ही वाकया हुआ। इंदिरा गांधी की कुख्यात इमरजेंसी के बाद 1976 में मैं अमेरिका गया था। इंदिरा गांधी और संजय गांधी के काफी घनिष्ठ होने के वजह से मेरे पिता इमरजेंसी के बड़े समर्थक थे। मेरे मित्र अशोक महादेवन तब इंडियन रीडर्स डाइजेस्ट में उप संपादक थे। उन्होंने मुझे वाशिंगटन में एक पार्टी में आमंत्रित किया था। पार्टी अमेरिका में रह रहे महादेवन के एक भारतीय मित्र ने आयोजित की थी।

चूंकि उस शाम करने को कुछ खास नहीं था, इसलिए मैं अशोक के साथ हो लिया, उन्होंने न तो मेजबान को और न ही वहां मौजूद मेहमानों को मेरा परिचय दिया। आखिरकार, भारत की राजनीतिक स्थिति पर चर्चा शुरू हुई और बात इमरजेंसी पर आ टिकी। सबने उसे कोसा, खासकर, संजय गांधी को भद्दी-भद्दी गालिया दी जाने लगीं। तभी मेरे पिता का नाम भी आया, चूंकि वे उन गिने-चुने बुद्धिजीवियों और पत्रकारों में से थे, जिन्होंने इंदिरा गांधी का समर्थन किया था। मुझे लगता है कि तब मुझे स्पष्ट कर देना चाहिए था कि वे मेरे पिता हैं लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया और मुझसे यह एक बड़ी गलती हो गई।

एक मेहमान ने तो यहां तक कहा दिया कि मैं तो चाहता हूं कि कोई आदमी हरामी खुशवंत सिंह को गोली मार दे। अशोक महादेवन मुझे पार्टी में लाए थे, इसलिए उन्होंने याचना की दृष्टि से देखा। उनकी परेशानी साफ महसूस की जा सकती थी। आखिरकार उन्हें मौजूद मेहमानों के सामने घोषणा करनी पड़ी, यहां मौजूद राहुल दरअसल, खुशवंत सिंह के बेटे हैं। अचानक वहां चुप्पी छा गई और मेजबान ने माफी मांगनी शुरू की। मैं खीसें निपोड़ते हुए मुस्कराया और बोला, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता या इससे मिलते-जुलते कोई शब्द कहे होंगे मैंने, लेकिन उसके बाद पार्टी का मजा ही किरकिरा हो गया। पहले वाली गंभीर चर्चा की जगह हल्की-फुल्की बातों ने ले ली।'

राहुल सिंह के शब्दों में 'एक और वाकया 80 के दशक के मध्य का है। मैं इंडियन एक्सप्रेस के लिए उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में किसी चुनाव की रिपोर्टिग के लिए गया था। (तब मैं इसके चंडीगढ़ संस्करण का संपादक था) ट्रेन से सफर के दौरान मैं एक यात्री से बातें करने लगा, उन्होंने पूछा कि मैं शहर पहुंचकर कहां रुकूंगा? मेरे यह कहने पर कि कोई अच्छा होटल मिल जाए तो देखूंगा, उन्होंने अपने साथ ही रुकने का इसरार किया। वहां पहुंचकर पाया कि वे सज्जन उस इलाके के राजघराने से संबंध रखते थे। उन्होंने मुझे अपने आलीशान महल के एक बहुत बड़े बेडरूम में ठहराया। रात को डाइनिंग हाल में उस परिवार के दूसरे लोगों से मुलाकात हुई।

डाइनिंग हाल इतना बड़ा था कि मजे से उसे बालरूम भी कहा जा सकता था। खाना खाते समय ही मुझे याद नहीं किस तरह मेरे पिता का नाम आया। मैंने उन्हें बताया नहीं था कि मैं उनका बेटा हूं लेकिन जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि उस पूरे परिवार के मन में मेरे पिता के लिए गहरी नफरत थी। वे सब मेरे पिता के खिलाफ जहर उगल रहे थे और मैं बुत बना उन्हें देख रहा था। पिछली बार की तरह मुझे शायद यह खुलासा कर देना चाहिए था कि जिस शख्स की इज्जत के वे परखचे उड़ा रहे हैं, वे कोई और नहीं, मेरे पिता हैं। लेकिन मुझे लगा कि इसके लिए बहुत देर हो चुकी थी। उस वातावरण में वह सच्चाई कबूलना असंभव-सा लग रहा था।

लिहाजा, उद्विग्न कर देने वाली उस शाम को और बिगड़ने से बचाने के लिए बहाना बनाकर मैं वहां से उठ गया और अपने बेडरूम में आ गया। पहले मेरा वहां एक दिन और रुकने का इरादा था लेकिन मैंने मेजबान को धन्यवाद दिया और राजमहल से विदा ली। मैं नहीं जानता कि बाद में उन्हें यह पता चल पाया कि नहीं कि मैं कौन था या किसका बेटा था? .....दिक्कत यह है कि मेरे पिता की, लोगों में खास किस्म की छवि बन गई है, जिसे वे तोड़ना ही नहीं चाहते। यह छवि ऐसे रंगीन-आशिक मिजाज बूढ़े की, जिसे सेक्स के अलावा कुछ सूझता ही नहीं, जो औरतों का दीवाना है और चौंका देने वाले बयानों और अश्लील चुटकुलों से सुर्खियों में बने रहना चाहता है।

उनका बेटा होने के नाते मैं सच्चाई जानता हूं कि उन्हें सेक्स के मामले में हमारे समाज में व्याप्त ढोंग और दोहरे मानदंडों को बेनकाब करने में मजा आता है, लेकिन जहां तक औरतों की चाहत और आशिकमिजाजी का सवाल है, उन्हें खुद अपनी ऐसी छवि बनाने में मजा आता है। वे हमेशा जवान-खूबसूरत औरतों से घिरे रहते हैं और उन्हें यह अच्छा भी लगता है, लेकिन मैं जानता हूं कि दिल से वह बहुत ही रूढ़िवादी।' खुशवंत सिंह चुटकुले कहने के लिए भी मशहूर थे। उन्होंने जोक्स के कई कलैक्शन प्रकाशित किए थे और आज भी वे खूब बिकते हैं। एक जमाने में उनके चुटकुले खूब चाव ले-लेकर पढ़े जाते थे।

उनका एक प्रसिद्ध चुटकुला है- 'चंडीगढ़ से पूना', जो इस प्रकार है - संता चंडीगढ़ से पूना जा रहा था। उसे हवाईजहाज में मिडिल सीट मिली लेकिन अपनी सीट पर बैठने की जगह वो खिड़की वाली सीट पर बैठ गया। उस सीट पर एक बूढ़ी औरत बैठी हुई थी। बूढ़ी औरत ने संता से कहा, 'तुम मेरी सीट पर बैठे हुए हो। मुझे मेरी सीट वापस दो।' संता ने मना कर दिया। बूढ़ी औरत एयर होस्टेस के पास गई। संता ने सीट देने से साफ इंकार कर दिया। फिर थक के एयर होस्टेस पायलट के पास गई। पर संता अड़ा रहा कि वो उसी सीट पर बैठेगा। फिर पायलट ने संता के कान में कुछ कहा और संता चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया। बाद में एयर होस्टेस ने पायलट से पूछा कि आपने संता से कहा क्या? पायलट बोला- 'कुछ नहीं, मैंने बस इतना कहा कि बस की मिडिल सीट ही चंडीगढ़ जाएंगी। बाकी सब जालंधर जा रही हैं।'

यह भी पढ़ें: अवधी भाषा के महत्वपूर्ण कवि-नाटककार रमई काका