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अवधी भाषा के महत्वपूर्ण कवि-नाटककार रमई काका

अवधी के आभूषण रमई काका को धोखा हो गया...

अवधी भाषा के महत्वपूर्ण कवि-नाटककार रमई काका

Friday February 02, 2018 , 9 min Read

अवधी भाषा के महत्वपूर्ण कवि-नाटककार चन्द्रभूषण त्रिवेदी उर्फ रमई काका पढ़ीस और वंशीधर शुक्ल के साथ अवधी की उस अमर ‘त्रयी’ का हिस्सा हैं, जिसकी रचनात्मकता ने तुलसी और जायसी की सृजन-भाषा अवधी को एक नई साहित्यिक समृद्धि प्रदान की। 

रमई काका

रमई काका


रमई काका नौकरी के लिए गांव छोड़ने के बाद जिंदगीभर लखनऊ में ही रहे लेकिन इसके बावजूद उनकी कविताओं में गांव और कृषि प्रधान संस्कृति की मौजूदगी हमेशा बनी रही। 

आज (2 फ़रवरी) अवधी के आभूषण चंद्रभूषण त्रिवेदी 'रमई काका' का जन्मदिन है। उनका जन्म सन् 1915 में उन्नाव (उ.प्र.) के रावतपुर गाँव में हुआ था। वह वर्ष 1940 से 1975 तक लगातार आकाशवाणी लखनऊ-इलाहाबाद में कार्यरत रहे और उस दौरान पूरे अवधी भाषी अंचल में 'रमई काका' के नाम से जन-जन के मनोमस्तिष्क पर छा गए। अवधी उत्तर के मध्य-पूर्व जनपदों लखनऊ, कानपुर, उन्नाव, फैजाबाद, इलाहाबाद, जौनपुर, वाराणसी, आजमगढ़, मऊनाथभंजन और उनके आसपास के जनपदों में बोली जाती है। रमई काका मुख्यतः व्यंग्य कवि थे। उनकी 'हास्य के छींटे' संकलन में 'दो छींकें' शीर्षक से प्रकाशित एक लोकप्रिय व्यंग्य कविता है -

छींक मुझको भी आती है,

छींक उनको भी आती है,

हमारी, उनकी छींक में अंतर है

हमारी छींक साधारण है,

उनकी छींक में जादू मंतर है,

हमारी छींक छोटी नाक की है,

उनकी छीक बड़ी धाक की है,

हमारी छींक हवा में खप जाती है,

उनकी छींक अखबार में छप जाती है।

रमई काका के जीवन पर प्रकाश डालते हुए हिमांशु बाजपेयी लिखते हैं - अवधी भाषा के महत्वपूर्ण कवि-नाटककार चन्द्रभूषण त्रिवेदी उर्फ रमई काका पढ़ीस और वंशीधर शुक्ल के साथ अवधी की उस अमर ‘त्रयी’ का हिस्सा हैं, जिसकी रचनात्मकता ने तुलसी और जायसी की सृजन-भाषा अवधी को एक नई साहित्यिक समृद्धि प्रदान की। यूं अवधी की इस कद्दावर तिकड़ी के तीनों सदस्य बहुत लोकप्रिय रहे लेकिन सुनहरे दौर में आकाशवाणी लखनऊ के साथ सफल नाटककार और प्रस्तोता के बतौर लंबे जुड़ाव और अपने अद्वितीय हास्य-व्यंग्यबोध के चलते रमई काका की लोकप्रियता सचमुच अद्भुत और असाधारण रही है।

रेडियो नाटकों का उनका हस्ताक्षर चरित्र ‘बहिरे बाबा’ तो इस कदर मशहूर रहा कि आज भी उत्तर भारत के पुराने लोगों में रमई काका का नाम भले ही सब न जानें लेकिन बहिरे बाबा सबको अब तक याद हैं। अपनी अफसानवी मकबूलियत को रमई काका ने अपने रचनाकर्मी सरोकारों और दायित्वबोध पर कभी हावी नहीं होने दिया। उनके नाटक और कविताएं अपने समय से मुठभेड़ का सशक्त माध्यम बनीं। उनकी भाषा में गजब की सादगी और अपनेपन की सौंधी-सी खुशबू है। अपने लोगों से अपनी भाषा में अपनी बात कहते हुए उन्होंने अपने समय के ज्वलंत सवालों को संबोधित किया। हालांकि उन्होंने खड़ी बोली में भी लिखा लेकिन उनकी पहचान हमेशा अवधी से जुड़ी रही।

हास्य-व्यंग्य के अपने जाने पहचाने रंग में तो वे बेजोड़ रहे ही, उन्होंने दिल में उतर जानेवाली संजीदा कविताएं भी लिखीं। उस दौर में जब खड़ी बोली के कई बड़े साहित्यकार लोकभाषाओं को भाषा नहीं फकत बोली कहकर खड़ीबोली को उन पर तरजीह दे रहे थे और दूसरों से भी उसी में लिखने का आग्रह कर रहे थे, उस वक्त रमई काका अवधी में उत्कृष्ट लेखन करते हुए, अपने समय के जरूरी सवालों को उठाते हुए और अत्यधिक लोकप्रिय होते हुए ये सिद्ध कर रहे थे कि अवधी भाषा-साहित्य केवल रामचरितमानस और पद्मावत तक सीमित किसी गुजरी हुई दास्तान नहीं है, बल्कि ये एक ज़िन्दा कारवान-ए-सुखन है, जो अभी कई मंज़िलें तय करेगा।'

रमई काका नौकरी के लिए गांव छोड़ने के बाद जिंदगीभर लखनऊ में ही रहे लेकिन इसके बावजूद उनकी कविताओं में गांव और कृषि प्रधान संस्कृति की मौजूदगी हमेशा बनी रही। गांव का उनका प्रकृति चित्रण अनूठा है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि वे गांव को किसी आउटसाइडर यानी शहरवाले की नजर से नहीं बल्कि एक इनसाइडर के बतौर देखते और बयान करते हैं। डा. रामविलास शर्मा लिखते हैं- ‘उनकी गंभीर रचनाओं में एक विद्रोही किसान का उदात्त स्वर है, जो समाज में अपने महत्वपूर्ण स्थान को पहचानता रहा है और अधिकार पाने के लिए कटिबद्ध हो गया है।’ लोकभाषाओं को पिछड़ेपन की निशानी और खुद को प्रगतिशील माननेवालों को यह जानना बहुत जरूरी है कि रमई काका की अवधी में लिखी गईं ग्राम्य जीवन पर आधारित कविताओं में चौंकानेवाली प्रगतिशीलता और विद्रोह का स्वर मिलता है। उनकी 'हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा' शीर्षक कविता में जरा उनके ठेठ शब्दों के रंग देखिए -

हम गयन यक दिन लखनउवै, कक्कू संजोगु अइस परिगा।

पहिलेहे पहिल हम सहरु दीख, सो कहूँ - कहूँ ध्वाखा होइगा।

जब गएँ नुमाइस द्याखै हम, जंह कक्कू भारी रहै भीर

दुई तोला चारि रुपइया कै, हम बेसहा सोने कै जंजीर

लखि भईं घरैतिन गलगल बहु, मुल चारि दिनन मा रंग बदला

उन कहा कि पीतरि लै आयौ, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा।

म्वाछन का कीन्हें सफाचट्ट, मुंह पौडर औ सिर केस बड़े

तहमद पहिरे कम्बल ओढ़े, बाबू जी याकै रहैं खड़े

हम कहा मेम साहेब सलाम, उई बोले चुप बे डैमफूल

'मैं मेम नहीं हूँ साहेब हूँ ', हम कहा फिरिउ ध्वाखा होइगा।

हम गयन अमीनाबादै जब, कुछ कपड़ा लेय बजाजा मा

माटी कै सुघर महरिया असि, जहं खड़ी रहै दरवाजा मा

समझा दूकान कै यह मलकिन सो भाव ताव पूछै लागेन

याकै बोले यह मूरति है, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा।

धँसि गयन दुकानैं दीख जहाँ, मेहरेऊ याकै रहैं खड़ी

मुंहु पौडर पोते उजर - उजर, औ पहिरे सारी सुघर बड़ी

हम जाना मूरति माटी कै, सो सारी पर जब हाथ धरा

उइ झझकि भकुरि खउख्वाय उठीं, हम कहा फिरिव ध्वाखा होइगा।

रमई काका दशकों तक पूर्वांचल के कवि सम्मेलनों में धूम मचाते रहे। मंचों से उनकी ई छीछालेदर द्याखौ तौ, नैनीताल, कचेहरी, अंधकार के राजा, नाजुक बरखा, बुढ़ऊ का बियाहु आदि कविताओं को अपार प्रसिद्धि मिली। उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘बौछार’ 1944 में प्रकाशित हुआ इसके बाद भिनसार, नेताजी, फुहार, गुलछर्रा, हरपाती तरवारि, हास्य के छींटे और माटी के बोल आदि काव्य संकलन भी प्रकाशित हुए। चित्रलेखा वर्मा बताती हैं कि ‘रमई काका’ के पिता पं. वृंदावन त्रिवेदी फौज में नौकरी करते थे तथा प्रथम विश्व युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। उस समय काका केवल एक वर्ष के थे।

काका की आत्मकथा से पता चलता है कि पिता की मृत्यु के बाद माँ गंगा देवी को सरकार से कुल तीन सौ रूपए मिलते थे जिनसे वे अपने परिवार को चलाती थीं। इस तरह उनका बचपन संकटों और कष्टों में बीता। पर उनका लालन-पालन इस तरह से हुआ कि ग्राम संस्कृति काका के जीवन का पर्याय बन गयी क्योंकि उनकी प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण वातावरण में हुई थी। हाई स्कूल की परीक्षा अटल बिहारी स्कूल से उत्तीर्ण की। इसके पश्चात आपने नियोजन विभाग में निरीक्षक का पद सम्हाला। निरीक्षक पद का प्रशिक्षण लेने के लिए वे मसौधा-फैजाबाद में कुछ समय रहे।

अपने प्रशिक्षण काल में भी आपने अपनी प्रतिभा से प्रशिक्षकों को प्रभावित किया। यहाँ उन्होंने कई कविताएँ लिखीं तथा कई एकांकियों का मंचन भी किया। ‘गड़बड़ स्कूल’ एकांकी ने यहाँ के लोगों का बहुत मनोरंजन किया। यहाँ के बाद उनकी नियुक्ति उन्नाव के बोधापुर केंद्र में हो गयी। यहाँ इन्होंने बहुत मेहनत की। फलतः इनके केंद्र को संपूर्ण लखनऊ कमिश्नरी में प्रथम स्थान मिला। उन्हें गवर्नर की ‘सर हेनरी हेग शील्ड’ प्रदान की गयी। इस केंद्र पर काम करते हुए काका ने एक बैलगाड़ी बनायी जिसमें बालवियरिंग का प्रयोग हुआ था तथा ढलान से उतरते समय उसमें ब्रेक का भी प्रयोग किया जा सकता था।

यद्यपि आपने शास्त्रीय एवं सुगम संगीत का विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया था परंतु अपनी प्रतिभा के ही बल पर शास्त्रीय और सुगम संगीत का ज्ञान प्राप्त किया। लखनऊ आकाशवाणी से 1977 में सेवानिवृत्त होने के दो वर्ष बाद दो-दो वर्षों के लिए उनका सेवाकाल बढ़ाया भी गया। सेवानिवृत्ति के बाद भी वे निष्क्रिय नहीं हुए और आकाशवाणी, दूरदर्शन, समाचार पत्र, पत्रिकाओं और कवि सम्मेलनों से जुड़े रहे। आकाशवाणी पर आपने अनेक भूमिकाएँ भी निभायीं। बहिरे बाबा के अलावा वह सन्तू दादा, चतुरी चाचा आदि की भी भूमिकाओं में लोगों के बीच मुखर रहे। यद्यपि काका स्थायी रूप लखनऊ में रहे पर उनका संपर्क गाँव से जीवन भर बना रहा। शहर में रहते हुए आपने अपने ग्रामीण मन को बचाए रखा।

रमई काका का काव्य अवध के गाँव से बहुत गहराई से जुड़ा होने के कारण आकाशवाणी (पंचायत घर), दूरदर्शन और एच.एम.वी. के रिकार्डर के माध्यम से उनकी कविताएँ अवध अंचल में रच-बस गयीं। ‘मौलवी’ रमई काका की पहली उपलब्ध कविता है। यह कविता उन्होंने ‘पडरी’ के मिडिल स्कूल में पढ़ते हुए लिखी थी। इस कविता पर काका के अपने गुरु पं. गौरीशंकर जी से आशीर्वाद मिला था कि काका एक कवि के रूप में विख्यात होंगे। रमई काका वृद्धावस्था में ब्रांकाइटिस रोग से वे पीड़ित थे। अन्त में 1982 की फरवरी में इतने बीमार हो गये कि फिर सम्हल ही नहीं पाए और अंत में 18 अप्रैल 1982 को प्रातःकाल उनका निधन हो गया। रमई काका को हिन्दी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए “उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान” की ओर से सम्मान किया गया। रमई काका की एक और 'धरती हमारि! धरती हमारि!' शीर्षक लोकप्रिय कविता है -

धरती हमारि ! धरती हमारि !

है धरती परती गउवन कै औ ख्यातन कै धरती हमारि।

हम अपनी छाती के बल से धरती मा फारु चलाइत है,

माटी के नान्हें कन - कन मा , हमही सोना उपजाइत है,

अपने लोनखरे पसीना ते ,रेती मा ख्यात बनावा हम,

मुरदा माटी जिन्दा होइगै,जहँ लोहखर अपन छुवावा हम,

कँकरील उसर बीजर परती,धरती भुड़गरि नींबरि जरजरि,

बसि हमरे पौरख के बल ते,होइगै हरियरि दनगरि बलगरि,

हम तरक सहित स्याया सिरजा , सो धरती है हमका पियारि ...

धरती हमारि ! धरती हमारि !

हमरे तरवन कै खाल घिसी , औ रकत पसीना एकु कीन,

धरती मइया की सेवा मा , हम तपसी का अस भेसु कीन,

है सहित ताप बड़ बूँद घात , परचंड लूक कट - कट सरदी,

रोंवन - रोंवन मा रमतु रोजु , चंदनु अस धरती कै गरदी,

ई धरती का जोते - जोते , केतने बैलन के खुर घिसिगे,

निखवखि,फरुहा,फारा,खुरपी,ई माटी मा हैं घुलि मिलिगे,

अपने चरनन कै धूरि जहाँ , बाबा दादा धरिगे सम्हारि ...

धरती हमारि ! धरती हमारि !

हम हन धरती के बरदानी ,जहँ मूंठी भरि छाड़ित बेसार,

भरि जात कोंछ मा धरती के,अनगिनत परानिन के अहार,

ई हमरी मूंठी के दाना , ढ्यालन की छाती फारि - फारि,

हैं कचकचाय के निकरि परत,लखि पौरुख बल फुर्ती हमारि,

हमरे अनडिगॆ पैसरम के , हैं साक्षी सूरज औ अकास,

परचंड अगिन जी बरसायनि,हमपर दुपहर मा जेठ मास,

ई हैं रनख्यात जिन्दगी के ,जिन मा जीतेन हम हारि-हारि ...

धरती हमारि ! धरती हमारि !

रमई काका की एक कविता है- 'बुढ़ऊ का बिवाह'। किसी तरीके से बुढ़ऊ को शादी के लिये तैयार किया जाता है। बारात जाती है किन्तु रतौंधी सारा मज़ा किरकिरा कर देती है। वर देवता अपनी आंखों से दिखाई न देने के कारण दीवार की तरफ मुँह करके खाने पर बैठते हैं। तब सासु जी उनसे कहती हैं ('बुढ़ऊ का बिवाह' की कुछ पंक्तियां)-

जब पचपन के घरघाट भएन,

तब देखुआ आये बड़े बड़े।

हम शादी ते इनकार कीन,

सब का लौटारा खड़े खड़े।

सुखदीन दुबे, चिथरू चौबे,

तिरबेनी आये धुन्नर जी।

जिन बड़ेन बड़ेन का मात किहिन

बड़कए अवस्थी खुन्नर जी....

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