फौलादी इरादों, मेहनत और अनुशासन ने बनाया है डॉ. संजीव बगई को विशेष, विशिष्ट और विवेकी डॉक्टर
डॉ. संजीव बगई का तेवर और मिजाज़ दोनों सख्त हैं, लेकिन दिल बच्चों-सा ही निर्मल और मुलायम है ... शिशुओं की दिक्कतों को दूर करते हुए कामयाबी की बेमिसाल कहानी लिखी है बच्चों के इस बड़े डॉक्टर ने ... नन्हे-मुन्ने बच्चों की ज़रूरतों और तकलीफों को उनके माता-पिता से भी बेहतर समझते हैं डॉ. संजीव बगई
घटना नब्बे के दशक की है। 6 साल के एक बच्चे को उसके माता-पिता इलाज के लिए अस्पताल ले गए। बच्चे की हालत बहुत ही खराब थी। पीलिया ने उसे बुरी तरह से जकड़ लिया था। हालत इतनी नाज़ुक थी कि माता-पिता भी जानते थे कि बच्चे के जिंदा बचने की संभावना बहुत ही कम है। माता-पिता को लगता था कि कोई करिश्मा ही उनकी संतान को बचा सकता है और ये करिश्मा किसी अच्छे डॉक्टर के हाथों से ही हो सकता है। एक डॉक्टर ने बच्चे की ज़िम्मेदारी अपने हाथों में ली। उस युवा डॉक्टर ने सबसे पहले तो बच्चे का गहन परीक्षण किया और उसकी नाजुक हालत को देखते हुए तुरंत अस्पताल में भर्ती करवा लिया। खून की जांच और जिगर के परीक्षण से पता चला कि बच्चे के खून में बिलीरुबिन 55 को भी पार कर गया है, जबकि सामान्य स्थिति में उसे 5 ही होना चाहिए। खून में बिलीरुबिन ज़रुरत से बहुत ही ज्यादा हो जाने की वजह से उस बच्चे की त्वचा, आँखें और चहरे का रंग पीला पड़ गया था। पीलिया भी मामूली नहीं था, उसका रूप भयानक था। अस्पताल में भर्ती कर बच्चे का इलाज शुरू करने के बावजूद उसकी हालत में सुधार नहीं हो रहा था। बच्चे की हालत इतनी ज्यादा खराब हो गयी कि उसके गुर्दों ने भी काम करना बंद कर दिया। कुछ दिनों बाद फेफड़ों और जिगर ने भी काम करना बंद कर दिया। एक समय तो डॉक्टर को लगा कि बच्चे की जान बचाने के किये उसका लीवर ट्रांसप्लांट करना होगा, लेकिन बच्चे ही हालत इतनी ख़राब थी कि लीवर ट्रांसप्लांट करना नामुमकिन-सा और जोखिम-से भरा काम था। जब ये बात लड़के के माता-पिता को पता चली तब उन्हें लगा कि अब उनका बच्चा जिंदा बचेगा ही नहीं। लेकिन, बच्चे का इलाज कर रहे डॉक्टर ने विकट संकट में भी उम्मीद नहीं छोड़ी। बच्चे की नाजुक हालत देखकर डॉक्टर के दिल की धडकनें भी तेज़ हुईं थी, लेकिन डॉक्टर ने न तो हिम्मत हारी और न ही अपनी कोशिश को रोका। उस डॉक्टर ने पहले भी कई बच्चों का इलाज किया था। कई सारे जटिल मामलों को सुलझाया था। बुरी हालत में लाये गए कई सारे बच्चों का इलाज कर उन्हें दुबारा चुस्त-दुरुस्त और तंदुरुस्त बनाया था। लेकिन, इस लड़के का मामला पिछले सभी मामलों से अलग था। यहाँ स्थिति विकट नहीं विकटतम थी। मरीज की हालत इतनी खराब थी कि उसे देखकर किसी भी डॉक्टर के हाथ-पाँव फूल जाएँ। लेकिन, उस डॉक्टर ने 6 साल के उस बच्चे की जान बचाने के लिए अपना पूरा डाक्टरी अनुभव और अपनी सारी ताकत झोंक दी। डॉक्टर की मेहनत रंग दिखाने लगी। बच्चे के शरीर पर से पीला रंग धीरे-धीरे उतरने लगा। पीलिया को दूर होने में एक महीने से ज्यादा का समय लगा। बच्चा भी करीब डेढ़ महीने तक अस्पताल में ही रहा। लेकिन, उस डॉक्टर की दवाओं के असर की वजह से बच्चा एक बार फिर से स्वस्थ हो गया। एक मायने में उस डॉक्टर ने उस 6 साल के बच्चे को मौत के दरवाजे से खींचकर सुरक्षित जगह लाया था। बच्चे के शरीर से पीला रंग चले जाने और उसके सामान्य हो जाने से माता-पिता के चहरे पर भी गज़ब की रौनक थी। बच्चे और उसके माता-पिता की खुशी ने डॉक्टर के मन में भी एक नए जोश, उत्साह और विश्वास का संचार किया। इसी बच्चे ने आगे चलकर दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में अच्छे नंबर लाये। वो इंजीनियर बना और उसकी शादी भी हुई। शादी में उसने उस डॉक्टर को भी बुलाया जिसकी वजह से उसकी जान बची थी। शादी में शिरकत कर डॉक्टर ने उसे बधाई दी और भविष्य के लिए शुभकामनाएँ भी। उस डॉक्टर की ज़िंदगी के हसीन और यादगार पलों में वो लम्हा भी शामिल है जब उन्होंने उस लड़के को दुल्हे के रूप में खुशहाल देखा था। यहाँ पर हमने जिस डॉक्टर की घटना बताई है वे संजीव बगई हैं, वही संजीव बगई जिन्हें बाल-रोगों के इलाज के क्षेत्र में आसाधारण और बेहतरीन काम करने के लिए भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ पुरस्कार से सम्मानित किया है। नवजात शिशुओं और बच्चों के इलाज के क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान और उनकी असामान्य सेवाओं के लिए उन्हें डॉ. बी. सी . रॉय अवार्ड से भी नवाज़ा जा चुका है। डॉ. बी. सी. रॉय अवार्ड चिकित्सा के क्षेत्र में दिया जाने वाला सबसे प्रमुख और बड़ा सम्मान है।
डॉ. संजीव बगई ने अपने डाक्टरी जीवन में अब तक हजारों बच्चों का इलाज किया है। एक बेहद ख़ास मुलाकात में डॉ. बगई के कहा, “हर डॉक्टर की ज़िंदगी में कुछ ऐसे आसाधारण मामले आते हैं जो उन्हें बहुत कुछ नयी बातें सिखा देते हैं। पीलिया का शिकार 6 साल के उस बच्चे का इलाज मेरे लिए एक आसाधारण मामला था। मेरे लिए उस बच्चे का इलाज करना बहुत बड़ी चुनौती थी। लेकिन, मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी। मैंने इलाज में पूरी सावधानी बरती और नियमित रूप से बच्चे के स्वस्थ पर ध्यान दिया।” डॉ. संजीव बगई ने आगे चलकर साथी डॉक्टरों के सहयोग से एक कामयाब ऑपरेशन किया जिसकी चर्चा दुनिया-भर में हुई। ये ऑपरेशन था जुड़वा और आपस में जुड़ी हुई बच्चियों/बहनों का। सीता-गीता नाम की इन जुड़ी हुई बहनों को अलग करना बहुत ही जटिल काम था। ये काम किसी एक डॉक्टर या सर्जन के बस की बात भी नहीं था। ऊपर से इस ऑपरेशन में जोखिम बहुत था, लड़कियों की जान जाने का खतरा भी था। लेकिन, डॉ. संजीव बगई ने सीता और गीता के मामले को एक चुनौती के तौर पर लिया और दोनों बहनों को अलग कर चिकित्सा-जगत में नायाब कामयाबी हासिल की और भारत के चिकित्सा- क्षेत्र के इतिहास में एक नया और शानदार अध्याय जोड़ा। बड़ी बात तो ये भी है सीता और गीता के ऑपरेशन से पहले दुनिया-भर में बहुत ही कम, पांच या छह, ऐसे कामयाब ऑपरेशन किये गए थे जहाँ आपस में जुड़े हुए बच्चों/ शरीरों को अलग किया था। भारत में भी इस तरह के ऑपरेशन एक या दो ही हुए थे।
सीता और गीता का मामला भी काफी पेचीदा था। दुनिया-भर में बहुत की कम ऐसे मामले हुए हैं जहाँ जुड़वा बच्चे आपस में जुड़कर पैदा हुए हैं। एक मायने में ये मामले दुर्लभ से भी दुर्लभ कहे जा सकते हैं। इन दुर्लभ मामलों में सभी मामले ऑपरेशन तक नहीं पहुँच पाते हैं। और, जो मामले ऑपरेशन थिएटर तक पहुँचते हैं, वे भी कामयाब होते हैं ऐसा भी नहीं रहा है। जुड़े हुए बच्चों का ऑपरेशन करना बहुत ही जटिल प्रक्रिया है और अलग-अलग स्पेशलिटी वाले डॉक्टर मिलकर ही इस तरह का ऑपरेशन कर सकते हैं। जहाँ तक सीता और गीता की बात है उनका जन्म बिहार के एक गरीब परिवार में हुआ था। जन्म के समय से ही दोनों बहनें आपस में जुड़ी हुई थीं। इन दोनों बहनों के सिर, हाथ और पैर अलग-अलग थे, लेकिन वे दोनों कमर के जरिए एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं। उनमें मल व मूत्र उत्सर्जन के अंग भी एक ही थे, यानी उनके गुर्दे और स्पाइनल कार्ड भी एक ही थे। सीता और गीता को अलग करवाने के लिए उनके माता-पिता कई सारे अस्पताल गए और कई डॉक्टरों से भी मिले। लेकिन, सारे डॉक्टरों में मामले को काफी पेचीदा बताया और और अपने हाथ खड़े कर दिए। माता-पिता ने भी सीता और गीता के अलग होने की उम्मीदें छोड़ दी थीं। माता-पिता के लिए बड़े दुःख और पीड़ा की बात ये थे कि दोनों जुड़वा बहनों की हालत बिगड़ रही थी और कई डॉक्टरों ने कहा था कि अगर दोनों का शरीर अलग नहीं किया गया तो जल्द ही दोनों की मौत हो जाएगी।
जब दिल्ली में प्रैक्टिस कर रहे बाल-रोग विशेषज्ञ डॉ. संजीव बगई को सीता और गीता के बारे में पता चला तब उन्होंने एक बड़ा फैसला लिया। फैसला था सीता और गीता के मामले को अपने हाथों में लेना और उन्हें अलग करवाने की कोशिश शुरू करना। काम आसान नहीं था। वे अकेले ये काम नहीं कर सकते थे। उन्होंने अलग-अलग विशेषज्ञों से बातचीत की और उन्हें सीता और गीता के ऑपरेशन में मदद करने को मनाया। तय हुआ कि बत्रा अस्पताल में सीता और गीता का अलग करने के लिए ऑपरेशन किया जाएगा। डॉ. बगई की पहल पर 27 डॉक्टरों की एक टीम बनी, जिसमें न्यूरोलाजिस्ट, ओर्थोपीडिशियन, एनास्थीशियन, जैसे अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ शामिल थे।चूँकि सीता और गीता का परिवार गरीब था और ऑपरेशन के होने वाले भारी भरकम खर्च का वजन नहीं कर सकता था डॉ संजीव बगई ने सारे डॉक्टरों, तकनीशियनों और दूसरे कर्मियों को बिना कोई फीस लिए सीता और गीता के ऑपरेशन में अपना योगदान देने के लिए भी मनवाया था। तय तारीख को 27 डॉक्टरों की टीम ने मिलकर करीब 12 घंटे तक डेढ़ साल की नन्हीं उम्र वाली सीता और गीता का ऑपरेशन किया। डॉक्टरों के मेहनत का नतीजा भी शानदार रहा। जब सीता और गीता बत्रा अस्पताल पहुंची थीं तो उनके शरीर के बाहरी हिस्से के अलावा कई अंदरुनी अंग भी जुड़े हुए थे। दोनों को अलग करने के लिए डॉक्टरों को दो अलग-अलग ऑपरेशन करने पड़े थे। पहले ऑपरेशन के ज़रिए दोनों बहनों का शरीर अलग-अलग किया गया। और फिर इसके बाद दोनों के अंदरुनी अंग बनाने के लिए ‘रीकंस्ट्रक्टिव’ सर्जरी की गई। डॉक्टरों में अपनी प्रतिभा, ज्ञान-विज्ञान और काबिलियत के ज़रिये जुड़ी हुई जुड़वा बहनों को अलग करने में कामयाबी हासिल कर ली। ये कामयाबी कोई मामूली कामयाबी नहीं थी। ये एक नायाब कामयाबी थी, ये एक ऐसी कामयाबी भी जो भारत के डॉक्टरों की ताकत को दर्शाती थी। इस कामयाबी की चर्चा दुनिया भर में हुई और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे जुड़े हुए बच्चों और उनके माता-पिता के लिए उम्मीद की नयी किरण बनकर उभरी। कई लोगों ने सीता और गीता के कामयाब ऑपरेशन को “चमत्कार” भी कहा। लेकिन, इस बात में दो राय नहीं कि सीता और गीता को डॉ. संजीब बगई की पहल, उनके अथक प्रयास, काबिलियत और डॉक्टरी अनुभव की वजह से ही नया जीवन मिल पाया।
डॉ. बगई भी जब कभी सीता और गीता के कामयाब ऑपरेशन की याद करते हैं तो उनके चहरे में खुशी और फक्र का भाव साफ़ नज़र आता है। डॉ. बगई के लिए सीता और गीता का कामयाब ऑपरेशन उनकी ज़िंदगी की बड़ी कामयाबियों में से एक ही है। वे इस ऑपरेशन को अपने ज़िंदगी की सबसे बड़ी कामयाबी मानते। उनके मुताबिक, छोटी उम्र में ही ऑस्ट्रेलिया के शहर सिडनी में दि प्रिंस ऑफ़ वेल्स चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल का फेलो बन जाना उनके अब तक के जीवन की सबसे बड़ी कामयाबी है। 1991-92 में संजीव बगई ने दि प्रिंस ऑफ़ वेल्स चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल का फेलो बनने का गौरव हासिल किया था और उस समय उनकी उम्र महज़ 26 साल थी। आमतौर पर सिडनी के इस मशहूर अस्पताल का फेलो बनने का गौरव बड़े नामचीन और बेहद अनुभवी डॉक्टरों को ही मिलता है। फेलो बनने के बाद डॉ. संजीव बगई को दि प्रिंस ऑफ़ वेल्स चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल में उस ज़माने के सबसे मशहूर बाल-रोग विशेषज्ञों के साथ काम करने का मौका मिला था। इस अस्पताल में उन्हें बहुत कुछ नया सीखने को मिला और जो अनुभव उन्होंने सिडनी में हासिल किया उसका फायदा उन्हें आज भी मिल रहा है। डॉ. बगई कहते हैं, “जो डॉक्टर दि प्रिंस ऑफ़ वेल्स चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल में काम कर सकता है वो दुनिया की किसी भी जगह काम कर सकता है।”
संजीव बगई के डॉक्टर बनने की कहानी भी दिलचस्प है। नौकरीपेशा मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे संजीव ने हमें एक बेहद ख़ास मुलाकात में बताया कि बचपन में डॉक्टर बनने के लिए उनपर माता-पिता या फिर किसी और से किसी तरह का कोई दबाव नहीं था। संजीव बगई के पिता सरकारी इकाई हिंदुस्तान पेट्रोलियम के लिए काम किया करते थे। सरकारी नौकरी होने की वजह से पिता का अक्सर एक जगह से दूसरी जगह तबादला होता रहता था। यही वजह थी संजीव को अपने बचपन में ही चंडीगढ़, पुणे, लखनऊ, कोलकाता, मुंबई जैसे शहरों में रहने का मौका मिला था। ज्यादातर समय शहरी माहौल में रहे और पले-बढ़े संजीव शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज़ थे। जूनियर कॉलेज में उन्होंने मैथ्स, फिजिक्स और केमिस्ट्री के अलावा बायोलॉजी को भी अपना मुख्य विषय बनाया था ताकि इंजीनियर या डॉक्टर बनने का विकल्प खुला रहे। जूनियर कॉलेज की परीक्षा में अच्छे नंबरों की वजह संजीव को इंजीनियरिंग कॉलेज और मेडिकल कॉलेज दोनों में सीट मिल रही थी, लेकिन संजीव ने डॉक्टर बनने का फैसला किया। डॉक्टर बनने का फैसला उनका अपना खुद का था। संजीव बगई ने बताया, “ग्यारहवीं की पढ़ाई के दौरान ही डॉक्टर का ख्याल अपने आप आ गया था। वैसे भी जब मैं जूनियर कॉलेज में था उस समय करियर काउंसलिंग जैसे कोई चीज़ नहीं थी और अगर थी तब भी मुझे उसके बारे में मालूम नहीं था। जूनियर कॉलेज के बाद मेरे पास दोनों विकल्प थे – डॉक्टर बनने का भी और इंजीनियर बनने का भी। मैंने डॉक्टर बनना पसंद किया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।” संजीव का दाखिला मुंबई में सेठ गोवर्धनदास सुंदरदास मेडिकल कॉलेज, जोकि जी. एस. मेडिकल कॉलेज के नाम से मशहूर था, में हुआ। जी. एस. मेडिकल कॉलेज भारत ही नहीं बल्कि पूरे ऐसा महाद्वीप के सबसे पुराने मेडिकल कॉलेज में एक है और इसकी स्थापना आज़ादी से पहले साल 1926 में हुई थी। स्थापना से आजतक भी इस मेडिकल कॉलेज में डाक्टरी की पढ़ाई के लिए सीट हासिल करने को बड़ी कामयाबी और प्रतिष्टा का विषय माना जाता है। एमबीबीएस की पढ़ाई के अपने दिनों की यादों को ताज़ा करते हुए संजीव ने बताया, “मेडिकल कॉलेज के वे साढ़े पांच साल काफी मज़ेदार थे। ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत दिन मैंने मेडिकल कॉलेज में ही बिताये। उन दिनों मेरी सिर्फ तीन प्राथमिकताएं थीं। पहली – पढ़ाई-लिखाई, दूसरी – क्रिकेट और तीसरी – सेहतमंद खाना खाना और अच्छी सेहत बनाये रखना। मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने ये तीनों काम अच्छे से किये। मैंने अच्छे से पढ़ाई की, कोई लापरवाही नहीं बरती और इसकी वजह से कोई बैकलॉग कभी नहीं रही। कॉलेज में सभी लोग मुझे पसंद करते थे और मैं भी सभी को चाहता था। सभी एक दूसरे को पसंद करते थे। मुझे क्रिकेट खेलने का बहुत शौक था और मैंने पेशेवर क्रिकेट खेली। एक तरफ पढ़ाई थी और दूसरी तरफ क्रिकेट का शौक, दोनों काम पूरा करने के लिए सेहतमंद रहना ज़रूरी था और मैंने हमेशा अच्छा भोजन किया और स्वस्थ रहा। बहुत ही प्यारे दिन थे वे।”
संजीव बगई को शुरू से ही बच्चों से प्यार था। बच्चे हमेशा उनकी आकर्षण का केंद्र रहे। संजीव को बच्चों, खासतौर पर नवजात शिशुओं, से जुड़ी एक बात बहुत ही चुनौती-भरी लगती थी। छोटे बच्चे जो बोलना नहीं जानते और ये बता नहीं सकते कि उन्हें कहाँ, कैसी और कब से तकलीफ है, उन नन्हें बेजुबान बच्चों की तकलीफ का पता लगाना और उस तकलीफ को दूर करने को वे बहुत बड़ी चुनौती मानते थे। इसी चुनौती को संजीव ने अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बना लेने की ठान ली। एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान बच्चों का वार्ड ही उनकी सबसे पसंदीदा जगह थी। नवजात शिशुओं, नन्हें-नन्हें बच्चों को अपने हाथों में लेकर उनका परीक्षण करने, बीमारी का पता लगाने और उनका इलाज करने में संजीव को मज़ा आने लगा। एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने बच्चों का डॉक्टर बनने का मन बना लिया था। जब आगे चलकर संजीव ने एमडी की पढ़ाई के दौरान बाल-रोगों को अपना मुख्य विषय बनाया तब उस समय के बाल-रोग निवारण विभाग के मुखिया के प्रभाव में उनका मुख्य विषय पीडियाट्रिक नेफ्रोलॉजी बन गया। यानी संजीव बगई बच्चों के डॉक्टर तो बने ही वे बच्चों में गुर्दों और मूत्र उत्सर्जन के अंगों के विशेषज्ञ भी बन गए। संजीव बगई ने बताया,“मुंबई में एमडी की पढ़ाई के दौरान ऐसे कई मामले आते थे जहाँ बच्चों की किडनी ने काम करना बंद कर दिया होता। अस्पताल ऐसी ही बच्चों से भरा रहता था। हमें बच्चों के इलाज में दिन-रात मेहनत करनी पड़ती थी। हमारे डिपार्टमेंट के हेड पीडियाट्रिक नेफ्रोलोजिस्ट थे और उनके प्रभाव में मैं भी पीडियाट्रिक नेफ्रोलोजिस्ट बन गया।”
डॉ. बगई पिछले कई सालों से बच्चों का इलाज कर रहे हैं। हर दिन वो बच्चों का परीक्षण करते हैं, बीमारी का पता लगाते हैं और अपनी दवाइयों/इलाज से बीमारी को दूर भगाते है। जब बीमार बच्चा उनके इलाज से ठीक हो जाता है तब उन्हें बहुत खुशी होती है, लेकिन तब वे किसी बच्चे की जान नहीं बचा पाते तब उन्हें बहुत दुःख भी होता है। वे कहते हैं, “कई बार ऐसा होता है कि बहुत देरी कर देने के बाद माता-पिता अपने बीमार बच्चों को उनके पास इलाज के लिए लाते हैं। कई बार तो देरी इतनी ज्यादा हो जाती है कि बच्चे की जान नहीं बचाई जा सकती क्योंकि उसकी हालत इतनी बिगड़ जाती है कि सुधरने लायक ही नहीं रहती। फिर भी हम बच्चे की जान बचाने और उसकी बीमारी दूर करने के लिए अपनी ओर से पूरी कोशिश करते हैं।” डॉ. बगई ये भी कहते हैं कि डॉक्टरी के पेशे में ही सबसे ज्यादा मेहनत लगती है। कोई दूसरा पेशेवर काम में उतना समय नहीं लगता जितना की एक डॉक्टर को अपने मरीजों के इलाज में लगाना पड़ता है। बच्चों की बीमारी के बड़े जानकार डॉ. बगई के शब्दों में, “डॉक्टर बनना भी आसान नहीं है। मेडिकल कॉलेज में दाखिला हासिल करने के लिए खूब मेहनत करनी पड़ती है। मेडिकल कॉलेज में सीट मिल जाने के बाद करीब साढ़े पांच साल एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी कर डिग्री लेने में लग जाते हैं। इसके बाद स्पेशलाइज़ेशन में ढ़ाई-तीन साल लग जाते हैं। फिर अनुभव के लिए आपको किसी अस्पताल में काम करना पड़ता है। एक डॉक्टर के तौर पर परिपक्व और अनुभवी बनते-बनते उम्र तीस साल ही हो जाती है। और जब डॉक्टर परिपक्व बनकर प्रैक्टिस करना शुरू करता है जब उसका ज्यादातर समय लोगों के इलाज में ही बीतने लगता है।”
बड़ी बात ये भी है कि संजीव बगई खुद बहुत ही व्यस्त डॉक्टर हैं। सुबह से लेकर रात तक मरीजों के उनके पास इलाज के लिए आने का सिलसिला चलता ही रहता है। चूँकि वे काफी लोकप्रिय और प्रसिद्ध हैं, लोग दूर-दूर से अपने बीमार बच्चों का इलाज करवाने के लिए उनके पास आते हैं। जब हमने उनसे ये पूछा कि वे डॉक्टर के तौर पर अपनी सारी व्यस्ताओं के बावजूद अपने घर-परिवार के लिए समय कैसे निकाल लेते हैं, तब डॉ. बगई ने कहा, “हर एक की ज़िंदगी में टाइम मैनेजमेंट और अनुशासन बहुत ही ज़रूरी है। मैंने हर काम ने लिए अपना समय निर्धारित किया हुआ है। मैं अपने दिन की शुरूआत जल्दी कर लेता हूँ। मैं अपने ज्यादातर काम दोपहर से पहले ही पूरा करने की कोशिश करता हूँ। अस्पताल में भर्ती मरीजों को देखने के लिए राउंड्स लगाने होते हैं। ओपीडी के मरीजों को भी देखना होता है। मुझपर अपने उम्रदराज माता-पिता की भी ज़िम्मेदारी है। परिवार और बच्चों के लिए भी समय निकालना होता है। सभी के साथ इंसाफ कर सकूं, ये तभी मुमकिन है जब मैं समय का सही इस्तेमाल करूँ। मेरे लिए सभी के इए माकूल समय निकलना, ज़िंदगी में सभी कामों के लिए बैलेंस बनाना मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं। मैं हर काम को आनंद लेता हूँ।”
हमने खुद देखा है डॉ. संजीव बगई समय और अनुशासन के मामले में बहुत ही पाबन्द हैं। हकीकत तो ये है कि अनुशासन को लेकर वे बहुत ही सख्त हैं। कामकाज के मामले में ढ़िलाई और समय को ज़ाया करना उन्हें सख्त नापसंद है। ज़िंदगी में अनुशासन को हमेशा से बनाये रखने की वजह से ही वे पूरी मजबूती और विश्वास के साथ अपने मरीजों को भी अनुशासनबद्ध जीवन-जीने की सीख देते हैं। जैसा उनका आचरण-व्यवहार है, वैसा ही करने की वे सीख भी लोगों को देते हैं, और यही उनकी सबसे बड़ी खूबी भी है।
डॉ बगई ने अपने जीवन में कई सारी आसाधारण कामयाबियां हासिल की हैं। बड़े-बड़े डॉक्टर, वैज्ञानिक, कई नामचीन हस्तियाँ भी उनकी मुरीद है। बच्चों की बीमारियों और उनके इलाज के वे बहुत बड़े जानकार के रूप में दुनिया-भर में मशहूर हैं। अलग-अलग संस्थाएं उन्हें अपना ज्ञान और अनुभव लोगों के साथ बांटने के लिए गोष्ठियों का आयोजन करती रहती हैं। उनके कई सारे शोध-पत्र और लेख देश और दुनिया की बड़े-बड़ी पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। चिकित्सा-जगत में उनकी अपनी बेहद ख़ास पहचान है। डॉ. संजीव बगई की कामयाबी की कहानी भी मेहनत, लगन, निष्ठा और अनुशासन की एक अद्भुत मिसाल है। वे कई लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। जीवन में कामयाबी की बाबत पूछे गए सवालों के जवाब में उन्होंने कहा, “हर कोई अपनी किस्मत खुद बनता है। हर कोई अपनी कहानी खुद लिखता है। हजारों ऐसे लोग होंगे जिनकी कामयाबियां मुझसे बड़ी होंगी, जिनका जीवन मेरे जीवन से ज्यादा उज्जवल होगा। मैं बहुत ही विनम्र परिवार से हूँ। जब मैं 1990 में दिल्ली आया था तब मेरे पास सिर्फ छह हज़ार रुपये थे, लेकिन मैंने मेहनत की और करता ही रहा। अगर कोई मुझसे ये पूछे कि कामयाबी कैसे मिलती है तो मैं यही कहूँगा कि इरादा पक्का होना चाहिए। कामयाबी के लिए मेहनत भी बहुत ज़रूरी है। इंसान को अपने मन से हार का डर भी मिटाना चाहिए, चुनौतियाँ आती रहेंगी, डट कर उनका मुकाबला करना चाहिए न कि पीछे हटना। ज़िंदगी लम्बी है, कामयाबी हासिल करने की कोशिश जारी रहनी चाहिए।”
वैसे तो डॉ. संजीव बगई की कई सारी खूबियाँ है, लेकिन उनकी एक बड़ी खूबी ये भी है कि वे हर काम को गंभीरता से लेते हैं। बच्चों का इलाज हो या फिर अपना कोई शौक पूरा करना, वे हर काम पूरी संजीदगी के साथ करते हैं। और एक दिलचस्प बात, जो लोग संजीव बगई के बारे में नहीं जानते है और उन्हें पहली बार देखते हैं, ऐसे लोगों में ज्यादातर लोगों को पहली नज़र में यही लगता है कि वे सेना के अफसर है। एक तो उनकी मूछें हमेशा सेना के किसी बड़े और रौबदार अफसर की तरह तनी हुई होती हैं और दूसरे उनके वाणी भी उनके स्वभाव की तरह ही गंभीर है। वसंत विहार की उनकी क्लिनिक में हुई एक बेहद ख़ास मुलाकात में डॉ. संजीव बगई ने हमें वो राज़ भी बताया कि कैसे वे आखिर नवजात शिशुओं और शब्दों के ज़रिये अभियक्त न कर पाने वाले नन्हें बच्चों की तकलीफ को आसानी से पहचान लेते हैं। डॉ. संजीव बगई के मुताबिक, तीन चरण हैं जिससे वे छोटे बच्चों की तकलीफ का पता लगा लेते हैं। पहला – बहुत की सूक्ष्मता से बच्चे का निरीक्षण करना। दूसरा – बच्चों के माता-पिता से बच्चे के पूर्व की गतिविधियों, हरकतों, लक्षणों आदि के बारे में जानना और तीसरा – गहराई से बच्चे का परीक्षण करना। अगर ये तीन काम ठीक तरह से किये जाएँ तब डॉक्टर बच्चे की तकलीफों का आसानी से पता लगा ले सकता है। डॉ. बगई ने अपने अब तक के डॉक्टरी सफ़र में कई बड़े अस्पतालों में अपनी सेवाएं दी हैं। वे इन्द्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल और बत्रा अस्पताल से भी जुड़े रहे हैं। रॉकलैंड से उनका संबंध पुराना रहा है। वे नेफ्रॉन क्लिनिक एंड हेल्थ केयर के चेयरमैन एंड मैनेजिंग डायरेक्टर भी हैं। एक मेडिकल ऐड्मिनिस्ट्रेटर के रूप में भी उन्होंने खूब नाम कमाया है। इन दिनों वे दिल्ली में मनिपाल सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल को देश के बेहतरीन अस्पतालों में एक बनाने में जुटे हुए हैं। डॉ. संजीव बगई प्रोफेसर हैं, एक उम्दा और अनुभवी शिक्षक। वे अलग-अलग मेडिकल कालेजों में डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों के बीच अपना ज्ञान और अनुभव भी बाँट रहे हैं।