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...क्योंकि, बिन पानी सब सून!

...क्योंकि, बिन पानी सब सून!

Thursday October 12, 2017 , 6 min Read

आज मानव जीवन के समाने अनेक छोटी-बड़ी समस्याएं मुंह फैलाए खड़ी हैं। कुछ समस्याएं तो ऐसी हैं जो मानव जीवन को प्रभावित किए बिना रह सकती हैं। हम एक ऐसी समस्या के बारे में बात कर रहे हैं जिसके सदुपयोग से ही हम उस समस्या का समाधान कर सकते हैं। यह है पीने लायक जल की समस्या...

साभार: यूट्यूब

साभार: यूट्यूब


जैसे-जैसे विश्व की जनसंख्या बढ़ रही है, वैसे अवहनीय पद्धतियां और नीतियां उन प्राकृतिक साधनों को खा रही हैं जिन पर हम सब निर्भर होते हैं। इसके फलस्वरूप जनता और इश ग्रह की कुशलक्षेम खतरे में पड़ रही है।

मनुष्य जाति की ताजे पानी की मांग और उपलब्ध मात्रा में संतुलन की स्थिति पहले ही खतरे में है। पिछले 75 सालों में विश्व की जनसंख्या बढ़कर तिगुनी हो गई है। 2050 तक दुनिया भर में इंसानों की संख्या 930 करोड़ हो जाने की संभावना है।

आज मानव जीवन के समाने अनेक छोटी-बड़ी समस्याएं मुंह फैलाए खड़ी हैं। कुछ समस्याएं तो ऐसी हैं जो मानव जीवन को प्रभावित किए बिना रह सकती हैं। हम एक ऐसी समस्या के बारे में बात कर रहे हैं जिसके सदुपयोग से ही हम उस समस्या का समाधान कर सकते हैं। यह है पीने लायक जल की समस्या। जलम् एव जीवनम् अस्ति अर्थात जल ही जीवन है। मानव जीवन के लिए जल कितना महत्तवपूर्ण है, ये हममें से हर एक को मालूम है। कवि रहीम ने पानी के महत्व का अपने शब्दों में कुछ इस तरह वर्णन किया है, रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे मोती मानुस चून।

जैसे-जैसे विश्व की जनसंख्या बढ़ रही है, वैसे अवहनीय पद्धतियां और नीतियां उन प्राकृतिक साधनों को खा रही हैं जिन पर हम सब निर्भर होते हैं। इसके फलस्वरूप जनता और इश ग्रह की कुशलक्षेम खतरे में पड़ रही है। यूएनडीपी की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, ताजे पानी की आपूर्ति, कृषि भूमि और मत्स्य भंडारों पर बढ़ते हुए दबाव से अभूतपूर्व चुनौतियां सामने हैं और मनुष्य जाति तथा पर्यावरण में संतुलन स्थापित करने के काम पर तत्काल अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि देश भूमि और जल अवनति को विपरीत दिशा दें। अपने संसाधन के आधार को विशेष तौर से मिट्टी की ऊपरी परत और ताजे पानी को तेजी से बचाएं। मनुष्य जाति की ताजे पानी की मांग और उपलब्ध मात्रा में संतुलन की स्थिति पहले ही खतरे में है। पिछले 75 सालों में विश्व की जनसंख्या बढ़कर तिगुनी हो गई है। 2050 तक दुनिया भर में इंसानों की संख्या 930 करोड़ हो जाने की संभावना है।

अफ्रीका में गड्ढे का पानी पीने को मजबूर बच्चा

अफ्रीका में गड्ढे का पानी पीने को मजबूर बच्चा


अनुमानतः 31 देशों के 50.8 करोड़ लोग ऐसे हैं जो पहले से ही पानी की कमी महसूस कर रहे हैं और अगले कुछ दशकों में यह समस्या और भी खतरनाक होने की संभावना है। आए दिन सोशल मीडिया पर सोमालिया, सूडान जैसे तमाम अफ्रीकी देशों के बच्चों का पानी के लिए बिलबिलाते हुए वीडियो दिखता रहता है। हम उसे देखकर ठंडी आहें तो भरते हैं लेकिन पानी बर्बाद करने में जरा भी कोताही बर्दाश्त नहीं करते हैं। पानी का मोटर चलता रहा है, टंंकी भर जाती है, पानी बहता रहा है। हमको लगता है कि हमारे देश में तो खूब पानी है, हम तो प्यासे नहीं मरने वाले। इसी स्वार्थ और लापरवाही ने दुनिया को पेयजल संकट के इस कगार पर ला खड़ा किया है। संकट इतना घना है कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए ही होगा जैसे मुहावरे गढ़े जाने लगा है।

अनेक देश अपनी पानी की जरूरतें पूरी करने के लिए अस्थाई स्रोतों का प्रयोग करते हैं। कुछ स्थानीय जल भंडार तो इतनी तेजी से खाली हो रहे हैं कि वर्षा का जल भी उनकी भरपाई नहीं कर पा रहा है। चीन, अमेरिका और द. एशिया के कुछ नगरों में जलस्तर प्रतिवर्ष 1 मीटर तक नीचे गिर रहा है। पानी की खराब गुणवत्ता एक और समस्या है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि 100 करोड़ से अधिक लोगों को स्वच्छ पानी नहीं मिलता। विकासशील देशों में नब्बे से पच्चानबे फीसदी पानी सीवर का, सत्तर फीसदी उद्योगों का गंदा पानी, बिना उपचार किए सतही पानी में डाल दिया जाता है। जिसके कारण इस्तेमाल करने लायक पानी प्रदूषित हो जाता है। अनेक औद्योगिक देशों में उर्वरक और कीटनाशी निःस्त्राव और तेजाबी वर्षा से पानी की आपूर्ति दूषित हो जाती है। पानी को प्रयोग करने लायक बनाने के लिए खर्चीली ऊर्जा सघन निथारन क्रिया और उपचार की जरूरत होती है।

मराठवाड़ा में सूखे का संकट

मराठवाड़ा में सूखे का संकट


रिपोर्ट में कहा गया है कि आइसबर्गों को लवणमुक्त करने और एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाकर पानी की कमी दूर कर शुद्ध प्रौद्योगिकीय समाधानों से सीमित सफलता मिलने की संभावना है। इसके स्थान पर रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि नदियों के प्राकृतिक बहाव को बहाल किया जाना चाहिए। पानी को ज्यादा किफायत से प्रयोग किया जाए। विशेष तौर पर से सिंचाई के लिए। क्योंकि ताजे जल का दो तिहाई भाग इसी पर खर्च होता है। रसायनों के इस्तेमाल और पशु मल-मूत्र को नियंत्रित किया जाए और प्रभावी मूल्यन नीतियां बनाई जाएं।

आजादी के बाद पूरे भारत में पानी की समस्या चरम सीमा पर थी। खेती-बाड़ी अंतिम सांसे गिन रहे थे। सरकार ने पानी की समस्या पर नियंत्रण पाने के लिए एक कार्यक्रम चलाया। जो केवल 28 राज्यों के 67 जिलों में प्रारंभ हुआ। इसके अंतर्गत गांवों में ढलानों पर तालाब और जोहड़ों का निर्माण कराया गया। वर्षा होने पर जल ढलान के कारण तालाबों में इकट्ठा हो गया। तालाब तो भरे ही साथ ही ढलान के कारण पानी रिस-रिस कर कुओं में पहुंचा जिससे कुओं का जलस्तर बढ़ा। इस कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए इसको सरकार ने 1972 में स्वजल धारा नामक योजना के अंतर्गत पूरे देश में लागू कर दिया। सब लोगों का यही नारा, गांव-गांव हो स्वजल धारा।

यह सच है कि सूर्य और वायु के पश्चात आवश्यक तत्व जल है। वैसे तो यह आसानी से उपलब्ध होने वाला साधन है किंतु वर्तमान में विशेषकर गर्मियों में 22 शहरों में पेयजल की आपूर्ति एक कठिन समस्या बना जाती है। अभी इसी साल की गर्मी में ही मराठवाड़ा में पानी की भयंकर कमी से मानव जीवन बेहाल था। इस समस्या का मुख्य कारण लोगों का पानी को लापरवाही से इस्तेमाल करना है। और कुछ नहीं। तो चेत जाइए!

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