'झंडा ऊंचा रहे हमारा' लिखने वाले पार्षद जी से अनजान है बहुसंख्यक आबादी
स्वतंत्रता दिवस पर विशेष: जन-गण-मन की जुबान पर 'पार्षद' जी का झंडा-गीत
स्वतंत्रता संग्राम में गूंजे 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा' गीत की रचना करने वाले श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ जी का नाम आज देश के बहुसंख्यक लोग भूल चुके हैं। नई पीढ़ी तो लगभग पूरी तरह अंजान है। कानपुर के फूलबाग में हजारों लोगों के साथ पहली बार इस गीत पर नेहरू जी रीझ उठे थे। ‘पार्षद’ जी ने राष्ट्रपति भवन में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद को सम्पूर्ण रामकथा भी सुनाई थी।
‘पार्षद’ जी उन्नीस साल की उम्र में ही स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। सन् 1920 में करीब तेईस वर्ष की उम्र में फतेहपुर जिला कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बन गए। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें दुर्दांत क्रांतिकारी घोषित कर आगरा जेल भेज दिया गया।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कहने पर ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा’ गीत लिखने वाले स्वतंत्रता सेनानी कवि श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ के नाम और संघर्षशील जीवन से कम ही लोग परिचित हैं। वह स्वाधीनता आन्दोलन में छह साल तक राजनैतिक बन्दी रहे। उसी दौरान वह महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू, महादेव देसाई, कवि रामनरेश त्रिपाठी आदि के संपर्क में पहुंचे। रामचरित मानस उनका प्रिय ग्रन्थ था। वे श्रेष्ठ ‘मानस मर्मज्ञ’ तथा प्रख्यात रामायणी भी थे। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद को उन्होंने राष्ट्रपति भवन में सम्पूर्ण रामकथा सुनाई थी। वह सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी रहे। उन्होंने दोसर वैश्य इण्टर कालेज, अनाथालय, बालिका विद्यालय, गणेश विद्यापीठ, दोसर वैश्य महासभा, वैश्य पत्र समिति आदि की स्थापना एवं संचालन किया।
जालियावाला कांड की दुखद स्मृति में पहली बार झंडा-गीत 13 अप्रैल 1924 को जवाहर लाल नेहरू की मौजूदगी में कानपुर के फूलबाग मैदान में हज़ारों लोगों के बीच गाया गया। नेहरू जी ने गीत सुनने के बाद कहा था- 'लोग भले ही श्यामलाल गुप्त को नहीं जानते हैं, राष्ट्रीय ध्वज के लिए लिखे इस गीत से अब पूरा देश परचित हो चुका है।' देश आजाद होने के पांच वर्ष बाद ‘पार्षद’ जी ने अपनी इस अमर रचना का 15 अगस्त 1952 को लालकिले पर स्वयं पाठ किया था। 'झंडा-गीत' नाम से प्रसिद्ध यह पूरी कविता इस प्रकार है -
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति सरसानेवाला, वीरों को हर्षाने वाला,
शांति सुधा बरसानेवाला मातृभूमि का तन-मन सारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
लाल रंग भारत जननी का, हरा अहले इस्लाम वली का,
श्वेत सभी धर्मों का टीका, एक हुआ रंग न्यारा-न्यारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
है चरखे का चित्र संवारा, मानो चक्र सुदर्शन प्यारा,
हरे देश का संकट सारा, है यह सच्चा भाव हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
स्वतंत्रता के भीषण रण में, लखकर जोश बढ़े क्षण-क्षण में,
काँपे शत्रु देखकर मन में, मिट जायें भय संकट सारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
इस चरखे के नीचे निर्भय, होवे महाशक्ति का संचय,
बोलो भारत माता की जय, सबल राष्ट्र है ध्येय हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
आओ प्यारे वीरो आओ, राष्ट्र ध्वजा पर बलि-बलि जाओ,
एक साथ सब मिलकर गाओ, प्यारा भारत देश हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
शान न इसकी जाने पाए, चाहे जान भले ही जाए,
विश्व विजय करके दिखलाए, तब होवे प्रण पूर्ण हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
इस गीत का स्वयं में एक इतिहास है। ‘पार्षद’ जी का जन्म कानपुर (उ.प्र.) के पास नरवल गाँव में 09 दिसम्बर 1893 को हुआ था। मिडिल क्लास फर्स्ट क्लास पास करने के बाद पिता विशेश्वर प्रसाद गुप्त उनको व्यावसायिक उद्यम में सक्रिय करना चाहते थे लेकिन वह पढ़ाई पूरी कर अध्यापक बनना चाहते थे। जब वह पाँचवीं कक्षा में थे, उन्होंने यह कविता लिखी- 'परोपकारी पुरुष मुहिम में पावन पद पाते देखे, उनके सुंदर नाम स्वर्ण से सदा लिखे जाते देखे।' पंद्रह वर्ष की उम्र में ही उन्होंने हरिगीतिका, सवैया, घनाक्षरी आदि छन्दों में रामकथा के बालकण्ड की रचना की परन्तु पूरी पाण्डुलिपि पिताजी ने कुएं में फिंकवा दी क्योंकि किसी ने उन्हें समझा दिया था कि कविता लिखने वाला दरिद्र होता है और अंग-भंग हो जाता है। इस घटना से श्यामलाल के दिल को बडा़ आघात लगा और वे घर छोड़कर अयोध्या चले गये। वहाँ मौनी बाबा से दीक्षा लेकर राम भजन में तल्लीन हो गये। कुछ दिनों बाद जब पता चला तो कुछ लोग अयोध्या जाकर उन्हें वापस ले आये। श्यामलाल जी के दो विवाह हुए। दूसरी पत्नी से एकमात्र पुत्री की प्राप्ति हुई। पार्षद जी ने उन्हीं दिनो 'स्वतन्त्र भारत' कविता लिखी -
महर्षि मोहन के मुख से निकला, स्वतन्त्र भारत, स्वतन्त्र भारत।
सचेत होकर सुना सभी ने, स्वतन्त्र भारत, स्वतन्त्र भारत।
रहा हमेशा स्वतन्त्र भारत, रहेगा फिर भी स्वतन्त्र भारत।
कहेंगे जेलों में बैठकर भी, स्वतन्त्र भारत, स्वतन्त्र भारत।
कुमारि, हिमगिरि, अटक, कटक में, बजेगा डंका स्वतन्त्रता का।
कहेंगे तैतिस करोड़ मिलकर, स्वतन्त्र भारत, स्वतन्त्र भारत।
‘पार्षद’ जी उन्नीस साल की उम्र में ही स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। सन् 1920 में करीब तेईस वर्ष की उम्र में फतेहपुर जिला कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बन गए। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें दुर्दांत क्रांतिकारी घोषित कर आगरा जेल भेज दिया गया। 1930 में 'नमक सत्याग्रह' के दौरान भी वह गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में वह जिला परिषद के स्कूल में बच्चों को पढ़ाने लगे। उसी दौरान स्कूल में उनसे एक शपथपत्र भरने को कहा गया। शपथपत्र में दो साल तक स्कूल की नौकरी न छोड़ने का आश्वासन देना था। 'पार्षद' जी ने इसे पराधीनता मानते हुए त्यागपत्र दे दिया। वह कवि-हृदय थे। मासिक पत्र ‘सचिव’ निकालने लगे। इसके हर अंक में मुखपृष्ठ पर उनकी रचना की ये पंक्तियां लिखी होती थीं – 'रामराज्य की शक्ति शान्ति, सुखमय स्वतन्त्रता लाने को, लिया 'सचिव' ने जन्म, देश की परतन्त्रता मिटाने को।' कानपुर में एक समारोह के दौरान 'पार्षद' जी ने कार्यक्रम अध्यक्ष एवं हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्वागत में एक कविता पढ़ी। इससे क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ बहुत प्रभावित हुए। सन् 1923 में फतेहपुर (उ.प्र.) में कांग्रेस के अधिवेशन में विद्यार्थी जी के भाषण से क्षुब्ध होकर अंग्रेजी हुकूमत ने उनको गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। विद्यार्थी जी जब रिहा हुए तो 'पार्षद' जी ने उनके वीरोचित सम्मान में एक कविता पढ़ी। इसके बाद वह दोनों एक दूसरे से अभिन्नता से जुड़ गए।
उन दिनों कांग्रेस का तिरंगा झण्डा तो तय हो चुका था, पर उसके लिए कोई सम्मान-गीत नहीं था। विद्यार्थी जी ने 'पार्षद' जी से आग्रह किया कि वह तिरंगे का 'झण्डा-गीत' लिख दें। जब काफी समय गुजर गया, गीत नहीं लिखा गया तो एक दिन विद्यार्थी जी ने 'पार्षद' जी से कहा कि लगता है, तुम्हें बहुत घमंड हो गया है। कल सुबह तक किसी भी कीमत पर 'झण्डा-गीत' लिखकर दे दो। उसके बाद 'पार्षद' जी ने रातभर में यह गीत लिखकर विद्यार्थी जी को दे दिया। बाद में इस गीत के 'विजयी विश्व' शब्द पर कुछ स्वतंत्रता सेनानियों ने आपत्ति की तो 'पार्षद' जी ने कहा- इन दो शब्दों का अर्थ विश्व को जीतना नहीं, बल्कि भारत को अपना गौरव प्राप्त करना है। बाद में यह गीत स्वतंत्रता संग्राम कर रहे हर सेनानी को कंठस्थ होने के साथ ही पूरे हिंदुस्तान में लोकप्रिय हो गया। वर्ष 1938 में 'हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन' में जब महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने भी मंच से इसका गायन किया तो 'पार्षद' जी खुशी से झूम उठे। देश स्वतंत्र होने के बाद धीरे-धीरे कुछ दशकों में जैसे-जैसे कांग्रेस का आचरण बिगड़ता गया, लोग 'पार्षद' जी का झंडा-गीत भी भूलने लगे। एक दिन किसी ने 'पार्षद' जी से पूछा कि वह आजकल क्या लिख रहे हैं तो उनका जवाब था- कुछ नया तो नहीं लिख रहा, हां पुराने झण्डा-गीत में यह पंक्ति संशोधित कर दी है - 'इसकी शान भले ही जाए, पर कुर्सी न जाने पाए।'
देश आजाद होने के कुछ साल बाद 'पार्षद' जी ने अपने गृह-ग्राम नरवल में 'गणेश सेवा आश्रम' खोला। वह कानपुर शहर से रोजाना आश्रम पैदल जाने लगे। एक दिन रास्ते में उनके पैर में शीशे का टुकड़ा चुभ गया। जख्म गहरा था लेकिन आर्थिक तंगी में वह उसका ठीक से इलाज नहीं करा पा रहे थे। गैंगरीन हो गया। शहर के सामान्य से उर्सला अस्पताल में भर्ती करने में डॉक्टर ने चार-पांच घंटे लगा दिए। उस वक्त किसी ने भी उनकी सुध नहीं ली। स्वतंत्रता दिवस से पांच दिन पहले 10 अगस्त, 1977 को वह इस दुनिया से चले गए। डॉक्टर ने शव अभद्र तरीके से वॉर्ड से बाहर जमीन पर रखवा दिया। घर तक ले जाने के लिए एम्बुलेंस नहीं दिया गया तो एक खड़खड़े (ठेले) पर देह घर पहुंचाया गया। बाद में श्मसान ले जाने के लिए एम्बुलेंस मिला।
'पार्षद' जी का स्वयं का कोई पुत्र नहीं था। केवल एक पुत्री चंदावती थीं। उन्होंने अपने लघु भ्राता के पुत्र को गोद ले लिया था। जनरलगंज की एक तंग गली में स्थित उनके मकान को आज भी लोग 'पार्षद जी का मकान' नाम से जानते और उस पर गर्व करते हैं। मकान दो मंजिला है। ग्राउंड फ्लोर पर कभी 'पार्षद' जी ने अपना अध्ययन कक्ष बना रखा था। अब फेरी लगाकर जिंदगी गुजार रहे उनके पौत्र राजेश गुप्ता इसका इस्तेमाल करते हैं। मकान के प्लास्टर उखड़ चुके हैं। बारिस में छत टपकती है। श्यामलाल गुप्त की बहू नारायणी देवी बताती हैं कि जब वह ब्याहकर ससुराल में लाई गई थीं, पति राम किशोर गुप्त बेरोजगार थे। ससुर श्यामलाल गुप्त आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे। जब उन्हें झंडा-गीत के लिए पद्मश्री अवॉर्ड से प्रधानमंत्री कार्यालय (दिल्ली) से बुलावा आया था, वहां जाने के लिए उनके पास कोई ढंग का धोती-कुर्ता, जूता भी नहीं था। राम किशोर ने अपने दोस्त से कुछ रुपए उधार लेकर धोती-कुर्ता और जूते का इंतजाम किया। ऐसी मुफलिसी के बावजूद 'पार्षद' जी ने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा, न गोद लिए हुए बेटे के लिए किसी से नौकरी की सिफारिश की।
कानपुर के फूलबाग में उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई है। इसका अनावरण उनके जन्मदिन 9 सितम्बर 1955 को किया गया था। 'पार्षद' जी ने ‘झण्डा गीत’ के अलावा एक और ध्वज-गीत उन्होंने लिखा था लेकिन उसकी विशेष चर्चा नहीं हो सकी। उस गीत की पहली पंक्ति है - 'राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति, राष्ट्रीय पताका नमो-नमो। भारत जननी के गौरव की, अविचल शाखा नमो-नमो।' इन पंक्तियों के कारण उनका कविता पाठ रोक दिया गया। इससे नाराज 'पार्षद' जी फिर कभी दुबारा आकाशवाणी केन्द्र नहीं गए। उन्होंने लिखा -
'देख गतिविधि देश की मैं
मौन मन में रो रहा हूँ,
आज चिन्तित हो रहा हूँ।
बोलना जिनको न आता था,
वही अब बोलते हैं,
रस नहीं, बस देश के
उत्थान में विष घोलते हैं,
सर्वदा गीदड़ रहे, अब
सिंह बन कर डोलते हैं,
कालिमा अपनी छिपाये,
दूसरों की खोलते हैं,
देख उनका व्यक्तिक्रम,
मैं आज साहस खो रहा हूँ।'
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