आया सावन झूम के...
अब की बरस भेजि भइया को बाबुल, सावन में लीन्हो बुलाय रे...
घुमड़ते मदमाते बादल, कड़कती बिगड़ती बिजली, प्रेमियों की रिझातीं मद्धिम-मद्धिम फुहारंें, तपिश से फटी जमीन के हृदय को आकाशीय प्रेम की बूदों से तृप्त करती वर्षा सावन के आने का पैगाम होती है। अषाढ़ की तपती गर्मी के पश्चात् जल की ठण्डी फुहारें, मन व तन को प्रफुल्लता प्रदान करने के साथ वातावरण को भी सुरम्यता प्रदान करती हैं। यही सुरम्यता, सजीवता, सृजनता, सहकारिता संयुक्त हो सावन की रचना करती हैं। ईश्वर की श्रेष्ठ रचनाधर्मिता की प्रस्तुति है सावन।
सावन के अनेक रूप हैं - जैसे किसान के लिये लहलहाती फसलें हैं सावन, व्यापारी के लिये भरे गोदाम हैं सावन, प्रेमी के लिये प्रेयसी की छवि है सावन। आंगन के लिये बिटिया का पीहर आगमन है सावन। बाबू जी का बार-बार चाय-पकौड़ी की फरमाइश है अम्मा का सावन।
सावन के आने की आहट अंग्रेजी के जुलाई माह से सुनाई पड़ने लगती है। जब दूर-दराज गांवों और शहरों में ब्याही लड़कियां मायके लौटने लगती हैं। सखी, सहलियों संग शरारती हंसी-ठिठोली करती कुछ समय के लिये सांसारिक जीवन की दुरूहताओं से विमुख हो बाबुल के आंगन में अपने खोये बचपन को तलाशती हैं। गांव के बूढ़े पीपल से लेकर हरियाले आम और नीम की डाल पर पड़े झूले पर बैठ पींगे भरतीं सखियों के साथ जीवन के कोलाहल को विस्मृत कर मन भर जी लेने की छटपटाहट, पूरे गांव में मेले जैसे वातावरण, चहुँ ओर कजरी और अन्य भावुक लोकगीतों के मधुर स्वरों से सृजित होते रसीले वातावरण से प्रकृति के रोम-रोम में होता स्पंदन, सावन के आगमन की दस्तक देता है। इस दस्तक के साथ ही प्रकृति भी अषाढ़ की तपिश के कारण मुरझाये और कुम्हलाये मुख को वर्षा की ठण्डी फुहारों की बौछारों में भिगो हरियाली की सुन्दर चुनर ओढ़ स्वयं को बढ़े ही मनमोहक अंदाज में सजा लेती है। चहुंओर फैली हरियाली को देखकर लगता है मानो प्रकृति ने हरे रंग की साड़ी के साथ मैचिंग चूड़ियां और बिंदी धारण कर ली हो। सौन्दर्य के नये प्रतिमानों को गढ़ता सावन मानव की सौन्दर्यप्रियता की भावना को सौन्दर्य साधना की ‘उपासना’ तक ले जाने की प्रेरणा देता है।
सावन को भगवान शिव का माह भी कहते हैं। सावन मास के प्रारम्भ होते ही व्रत और उपवासों का दौर प्रारम्भ हो जाता है। शिवोपासना, शिवलिंगों की पूर्जा-अर्चना के अमृृतमयी सरोवर में जन-मानस अलौकिक आनन्द की अनुभूतियों से स्वयं को कृतार्थ करता है। धर्मग्रन्थों के अनुसार इस मास में विधिपूर्वक शिवोपासना करने से मनचाहे फल की प्राप्ति होती है। मान्यता है शिव पूजा, रुद्राभिषेक, शिव स्तृति, मंत्र जप, शिव कथा को पढ़ने से सभी सांसारिक कलह, अशांति व संकटों से मुक्ति मिलती है। गांव व शहरों के शिवालय सज जाते हैं। चारो ओर वेलपत्र, धतूरा, आदि की दुकानें सज जाती हैं। कांवरियों का हुजूम भोले बाबा को जल अर्पण करने के लिये अपनी टोली के साथ निकल पड़ता है। सावन में ही कई प्रमुख त्यौहार- जैसे हरियाली अमावस्या, नागपंचमी, रक्षाबंधन आदि आते हैं। सच में इस माह में प्रकृति और प्राणी दोनों एकाकार हो उत्सव मनाते हैं। ऐसा उत्सव, जिसमें रम जाना, एक नयी उत्पत्ति के लिये, सुन्दर सृजन के लिये, चतुरंगी चपलता के लिये ताकि प्रणय के राग एक नवीन आवृत्ति के साथ एक नूतन व्योम में खिल सकें।
मन के तपते सेहरा को जैसे कोई भीगी बयार नजर करे, कड़कती धूप पर बूंदों के पर्दे डाल दे, तपते मस्तक पर गीली हथेलियों रख दे, कुछ ऐसी अदा से सावन अपने आने की आहट देता है। बड़ी लज्ज़त है इस अल्फाज़ की आवाज में। सावन कहने भर से लगता है मानो ऋतु ने बांसुरी बजायी हो और मौसम के भी रोमानी होने का उद्घोष कर दिया हो। सावन को पूरी मस्ती में सराबोर देखने की हसरत किसी गांव में जाकर ही पूरी की जा सकती है। पेड़ों पर पड़े झूलों पर किशोरिया, महिलायें, नवयुवतियां अनायास ही दिख जायेंगी। झूले सावन में शरारत, अठखेलियों का माध्यम बन जाते हैं। यह झूला भी सावन की भांति कई रूपों में आता है। कभी मां की बाहों के झूले के रूप, तो कभी पिता, दादा-दादी, भइया-भाभी या दीदी की बाहों के पालने के रूप में। भला कौन भूल सकता है वो झूले! प्रकृति से प्राणी - प्रवृत्ति से यह साम्यता अद्भुत है। सावन की हरियाली छटा देख हर नवयौवना का मन मचल उठता है। मन का मचलना भी कई तरह से अभिव्यत होता है, लेकिन जब ऋतु सावनिया हो तो मन के उद्गार लोकगीतों की बांह पकड़ उमड़ने लगते हैं खेत में काम करती महिलायें, झूला-झूलती युवतियां, पीहर लौटी बिटिया सभी के मनोभाव लोकगीतों के माध्यम से प्रकट होते हैं।
लोक मात्र स्त्री-पुरुष से नहीं बनता, गीतों के इस लोक में पशु-पक्षी, पेड़-पौधे नदी, जंगल आदि सभी शामिल हैं। इन सबका सहजीवन होता है प्रकृति को अभिव्यक्त करते लोकगीतों में। कबूतर संदेश ले जाता है तो कौआ मामा के आने न आने की संभावना को विचारता है। नदी बहन बनकर दुःख बांटती है, तो पहाड़ भाई बन रक्षा करता है। सावन चित्त प्रिय है, मधुर है, मानवीय है इसलिये लोकगीतों में सावन का विशेष महत्व है। एक गीत की बानगी देखिये -‘‘गलियों री बीबी मनरा फिरे, अरे बीबी मनरा को लाओ बुलाय। जामैं चूड़ा तौ मेरी जान हाथी दांत का। बदरा मइके में जइयों जाके मइया से कहियो, याद करे तेरी लाडली।’’ सावन के इस गीत में उस विवाहिता के मन की वेदना है, जिसे ससुराल में अपने आंगन और बगीचे की याद सताती है। सावन के गीतों में विरह है तो उल्लास भी। आशा के साथ निराशा भी। एक विवाहित स्त्री ससुराल में अत्यन्त सुखी होने का वर्णन करते हुये कहती है - ‘‘नाहक भइया आयो अनवैया रे, सवनवा में ना जाइवो ननदी। सोने की थाली में भोजन परोसल, चाहे भइया खावत चाहे जात रहे। सवनवा में ना जइयो ननदी।’’ किन्तु यहाँ बेटी पिता से कुछ और ही कहती है - ‘‘अब की बरस भेजि भइया को बाबुल, सावन में लीन्हो बुलाय रे।’’
झूले पर झूलती अविवाहित कन्यायें अपने माता-पिता सगे सम्बन्धियों से आग्रह करती हैं कि उसका विवाह कहीं पास के गांव में किया जाये। अपने आग्रह के साक्ष्य के रूप में नीम की कच्ची निबौरी को भी ले लेती हैं - ‘‘कच्चे नीम की निबौरी, सावन जल्दी अइयो रे। अम्मा दूर मत दीजौ, दादा नहीं बुलावेंगे। भाभी दूर मत दीजौ, भइया नहीं बुलावेंगे।’’
ये लोकगीत सावन के रसीलेपन की मिठास को बढ़ा देते हैं। प्रकृति का मानवीकरण कर प्रतीकों के माध्यम से अंतस की अनुभूतियों को सहज ढंग से प्रकट कर देते हैं। अपने बाल्यकाल का सावन सभी व्यक्तियों के लिये स्थायी सुखद स्मृति होता है। मुझे भी अपने बालपन का सावन नहीं भूलता है। तब संकीर्ण जातीय ढांचे में बटे ग्रामीण समाज में सावन भी अलग-अलग आता था। पेड़, पाटा, रस्सी का नहीं बस व्यक्ति का भेद था, लेकिन जैसे-जैसे अंधियारा बढ़ता था, समस्त भेद-भाव उस अंधेरे में गुम हो जाते थे। सारे मित्र पींगे बढ़ाते हुये झूले के आनंद में सराबोर हो जाते थे। लोकगीत, कजरी आदि किसी को याद नहीं थी, लेकिन उसके बिना अधूरा भी लगता था, सो कोई फिल्मी गीत, कविता, पाठ्य-पुस्तक में पढ़े सूर-कबीर-रसखान के दोहे गाने लगते थे। सारे मित्र संवेत स्वर में गाने का प्रयास करते थे। ‘‘गलेबाजी’’ के सारे हुनर आजमाते थे। आज जब रियल्टी-शो में बच्चों को ‘प्वाइन्ट्स’ के लिये गाते देखता हूँ तो उस वक्त के बेसुरे गलों से निकलते सुरों की निस्पृहता बरबस याद आ जाती है। बड़ी सुखद अनुभूति होती थी।
जब ढलती रात्रि के साथ काले मेघों के हृदय को चीरती बिजली की जोरदार कड़कड़ाहट से डर लगता था तो दौड़कर मां के पास दुबक जाते थे और वहां से काले मेघों के बीच छुपते-निकलते चांद को टुकुर-टुकर निहारते हुये चांद पर आधारित पाठ्य-पुस्तक की कविता ‘‘मां मुझको भी कपड़े सिलवादो’’ गुनगुनाते हुये सो जाते थे। ऐसा था हमारे बालपन का सावन। जेठ की तपती लू से जलती मरुधरा सावन के मेघों से नया जीवन प्राप्त करती है। तभी तो मूंगफली, कपास, ज्वार, बाजरा आदि खरीद की फसलों की बुआई इस महीने के बाद प्रारम्भ होती है। शायद तभी खरीफ को सावणी भी कहते हैं। सावन को लेकर प्राणी से प्रकृति, ऋतु से संस्कृति, तान से गान, लालित्य से साहित्य, उल्लास से उन्माद सभी संवदेनशील तन्तुओं में दोलायमान स्पंन्दन होने लगता है। इस ऋतु में प्रकृति श्रृंगार करती है। उसी तरह महिलायें और युवतियां भी तैयार होती है। हरे परिधानों के साथ हरी-हरी चूड़ियां पहने युवतियां सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक नजर आती हैं। सावन आवरण विहीन है। बंधन मुक्त है सावन। प्रकृति जिस ऋतु में कमलदल की पंखुड़ियों की भांति खिलकर नयनाभिराम हो जाती है, मेघों की काली घटाओं में कोयल की कूक के संग प्रणय के रीति-रंग की अंगड़ाइयों का स्नेहपूर्ण वंदन होता है तो सावन बरबस गा उठता है। यह बरबसपन ही तो सावन का आधार है।
सावन संदेश देता है, जितना आनंद, अनुभूतियां, मन को खोलने में हैं, उतनी मन के अन्तर्मुखी होने में नहीं। न जाने कितनी पीड़ाओं और चिंताओं को ये श्यामल मेघ अपनी गर्जना में विसर्जित कर देता है। प्रकृति का कण-कण प्राणी से वार्ता करता है। इस मदमाती ऋतु में हम महूसस कर सकते हैं कितने मीठे, सुरभित, सुभाषित भाव प्रकृति के आंचल में दमक रहे हैं। कभी अंजुली भर ठंडी बयार दिल की पायजेब को झनकृत कर देती है, तो कभी चुटकी भर गीली धूप ने ऊष्म मानवीय स्पर्शों का अनुभव करा दिया। कभी नन्ही सी कली के चटकने से मन का सन्नाटा चिहुंक उठता है। सुर्ख फूलों से नेत्रों को चमक मिलती है तो नर्म दूब से मन को ठंडक। धरती का सीना चीरते बीज अंकुरण में ममत्व है तो कोपल अंकुरण में बाल-सुलभ भोलापन और कली द्वारा बटती सुगंध में जीवन दर्शन। इस उत्सव माह में प्रकृति का रोम-रोम प्राणियों से संवाद करता है।
ग्राम्य संस्कृति से दूर शहरी आबोहवा में सावन का रंग किंचित परिवर्तित हो जाता है। कजरी के बोलों पर डोलने वाला मन यहां कजरारे-कजरारे पर थिरकता है। धड़ाके से बरसता सावन, नगर पालिकाओं की समस्त व्यवस्था को भंग कर आम जनमानस को जलवृष्टि से जूझने पर मजबूर कर देता है। गलियों से फूट निकली नदियों पर कागज की कश्ती की हुकूमत होती है, तो पानी से भरे आंगन में बिटिया की बादशाहत कायम रहती हैं। यहाँ सावन से पहले उसका विज्ञापन आता है। छाता, रेनकोट, बरसाती आदि की खरीद-फरोख्त बढ़ जाती है। जब झूमकर बरसते सावन की महीन बूंदे गुद-गुदी लगाते-लगाते अचानक घनघोर बारिश का रूप अखि़्तयार कर लेती हैं तो यह सारी तैयारियां बेकार हो जाती हैं। बड़े घरों में तो तुरन्त मजदूर लग जाते हैं, लेकिन मजदूर की झोपड़ी की सारी गृहस्थी झांकी की तरह चलायमान होने लगती है। रात्रि में विद्युत आपूर्ति बाधित होने की स्थिति से बचने के लिये नया इनवर्टर लिया जाता है। बच्चों के झूलने के लिये एक सीट वाला आधुनिक झूला हॉल में लगा दिया जाता है, अपनी तमाम खूबियों के बावजू़द इस झूले में वह लज्ज़त कहां को गरीब बस्ती के सामने वाले पीपल के पेड़ पर साइकिल के खराब टायरों से बने झूले को झूलने में है। बच्चे उस पर भीगते, खेलते, झूलते, गिरने पर रोते हुये घर चले जाते हैं। कुछ खा पीकर आंसू पोंछकर फिर आ जाते हैं झूलने के लिये। शहरों के रंग-ढंग गांव की माटी से जुदा हैं। गांव की बहू शहर में मिसेज हो गयी है। सिंदूर से आच्छादित मांग सिर्फ सिन्दूरी टीके में बदल गयी है।
लिहाजा सावन की ढोलक की थाप भी ‘‘किटी-पार्टियों’’ की तालियों में गुम हो गयी है। फिल्मी गीतों पर मचलते मन ने कजरी को गुनगुनाना छोड़ दिया है। अब कजरी केवल ‘‘सावन संध्या’’, सावन मिलन आदि जैसे सम्मेलनों में सुनने को मिलती है। लोक जीवन में रचे बसे ‘‘अहसास’’ यहां ‘धरोहर’ बन गये हैं। फिर भी कॉल न आने पर ‘ब्वायफ्रेंड’ को मिस करती युवती की पनीली अाँखों का सावन, ठण्डी फुहारों के बीच सरपट बाइक भगाते किशोरों का सावन, खाली बैठे मजदूर का सावन, खिडकी से झांकते, घर में कैद बच्चों का सावन और आसमान से बरसती स्मृति की फुहारों से भीगती पुरानी यादों में दादा-दादी का सावन, बरबस अपने विशेष होने का अहसास करा ही देता है। सावन के जितने रूप उसके उतने ही व्याख्यान हैं, जैसे बारीक-बारीक बूदों के हवा में लहराते रेले को धुंआ-धुंआ होती फिज़ा के नाम से पुकारते हैं, तो बादलों की शरारत भरी मद्धिम-मद्धिम बरसात को फुहार कहते हैं। श्यामल मेघों की कडकड़ाहट समस्त रागों का सामूहिक शंखनाद है तो वर्षा की झड़ी को मौसम की ज़ुबान कहा गया है। सारे अहसास भीग जाते हैं सावन की बारिश में। ताज्जुब, आंखे भीगती हैं, पर मन मयूर बन नाच उठता है। सब कुछ विस्मृत करा देता है यह मौसम। बड़ी जीवन दायिनी होती हैं बरसते सावन की बूंदे। बीज को जीवन देती हैं। अंकुर से धरती की गोद भर देती हैं। ताप से दरकी जमी लहलहा उठती है। हरियाली के पांव में घुघरू बांध देती हैं तो बूंदों के हाथों में मजीरा थमा देती है। प्रकृति के संगीत की, एक मधुर संगत सी जम जाती है।
कभी थक चुके मेघों के साथ गुजर रहे खामोश रात के निःस्तब्ध सन्नाटे में छत या छप्पर से टपकती पानी की बूदों की गूंजती आवाज को गौर से सुनिये - टप-टप-टप ऐसा लगता है मानो प्रकृति मानव को संदेश देना चाहती है कि यदि वह स्वयं को समता, सहजता, सरलता की विचार गंगा में डुबोकर, पूर्ण प्रफुल्लता और नवीन अभिलाषाओं के रथ पर आरुढ़ हो समष्टिगत भाव से जनहित ही मंगलकामना को अपना ध्येय बना ले तो हर माह सावन, हर दिन उत्सव होगा। तभी मन मचल कर कहेगा कि आया सावन झूम के।