फिल्में हर उद्यमी को ज़रूर देखनी चाहिए, जो उद्यम के लिए प्रेरित करती हैं
हम अपने पाठकों के समक्ष दस ऐसी फिल्में प्रस्तुत करते हैं जिन्हें हर उद्यमी को देखना चाहिए....
कहा जाता है कि फिल्में समाज का दर्पण होती हैं। अच्छी फिल्में अक्सर हमारे संघर्ष, हमारी खुशियां और हमारी त्रासदी को समेटती हैं। हॉलीवुड की तरह हमारे देश में उद्यमिता केंद्रित फिल्में कम ही बनी हैं। बावजूद इसके, हम अपने पाठकों के समक्ष दस ऐसी फिल्में प्रस्तुत करते हैं जिन्हें हर उद्यमी को देखना चाहिए। ये सूची 1950 से 2005 के बीच बनी फिल्मों की है। 2005 के बाद बनी उद्यमिता केंद्रित फिल्मों की सूची हम अलग से जल्दी ही प्रकाशित करेंगे।
प्यासा (गुरु दत्त, 1957)
इस कालजयी फिल्म के नायक एक कवि हैं, जिनकी दिली इच्छा है कि इनकी कविताओं की किताब प्रकाशित हो। इनके भाई इनका मज़ाक उड़ाते हैं और इनकी कविताओं की डायरी रद्दीवाले को बेच देते हैं। इनकी कविताओं में गरीबों के प्रति गहरी वेदना भी है, और आज़ादी के बाद के भारत में एक आदर्शवादी की हताशा भी। प्रकाशक इनकी किताब आखिर तब छापते हैं जब ये अपने आस-पास के छल-प्रपंच से तंग आकर ख़ुदको मुर्दा करार देते हैं।
इस फिल्म के नायक का व्यक्तित्व और अपनी कला के प्रति निष्ठा हमें प्रेरणा देती है। गरीबों के प्रति इनकी गहरी आस्था, खासकर इनका एक वैश्या से मित्रता और प्रेम हमें दिखलाता है कि हमारे समाज में अपनी राह पर चलते जाना कितना कठिन काम होता है। फिल्म के अंत में जब ये तमाम सम्मान और स्वीकृतियों को ठुकराते हैं, हम अनायास ही इन्हें निहारने लगते हैं। हमें एहसास होता है पैसे और कामयाबी का ईमानदारी और अपनी कला के प्रति आस्था के सामने कोई मोल नहीं।
सत्यकाम (हृषिकेश मुख़र्जी, 1969)
यह फिल्म अंग्रेज़ों के शासनकाल के आखिर के दिनों पर केंद्रित है। कुछ इंजीनियरिंग के छात्र अपनी पढ़ाई पूरी करते हैं, जिनमें हमारा नायक भी शामिल है। ये सिद्धांतवादी और ज़िद्दी है। बदलते समय में एक आदर्शवादी युवा के संघर्षों को समेटती इस फिल्म में धर्मेन्द्र के अभिनय को उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ माना गया है। निर्देशक हृषिकेश मुख़र्जी ने भी इसे अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ फिल्म कहा है।
हम फिल्म के नायक को कई नौकरियां बदलते देखते हैं, कि कैसे ये अपने जीवन में कोई समझौता नहीं करना चाहते। हर हार इन्हें अपने सिद्धानों के प्रति और भी दृढ़ करता चला जाता है। जहाँ एक तरफ इनकी तकलीफें ख़त्म नहीं होतीं, हम इनके विवेक और चेतना के कायल हुए बिना नहीं रह पाते। ऐसे संघर्षों से हर उद्यमी को कभी न कभी गुज़ारना पड़ता है। सत्यकाम में इनके लिए सीखने को बहुत कुछ है।
मंथन (श्याम बेनेगल, 1976)
फिल्म की कहानी जानवरों के एक डॉक्टर पर केंद्रित है, जो दूध के उत्पादन के लिए एक सहकारी समिति के गठन की उम्मीद लिए एक गांव में पहुँचते हैं। गांव का एक रईस व्यवसाई और सरपंच इनके खिलाफ कई षड्यंत्र करते हैं। इन्हें धर्मगत और जातिगत विसंगतियों का भी सामना करना पड़ता है। यह फिल्म प्रसिद्ध सामाजिक उद्यमी और 'फादर ऑफ़ द वाइट रेवोलुशन' डॉ. वर्गीज कुरियन के जीवन पर आधारित है।
ग्रामीण और सामाजिक उद्यमिता पर यह भारत में बनी अब तक की शायद सबसे बेहतरीन फिल्म है। गांव में लोगों को एकजुट करने के पीछे का संघर्ष, जहाँ जाति, वर्ण, और धर्म के आधार पर भेद भाव, और इन सबके बीच एक उद्यमी। अपनी आशा और निराशा के साथ हमारा नायक बेहद जागरूक है। व्यवसाय के नियमों को तोड़ते हुए ये एक ऐसे उद्यम का सफलतापूर्वक गठन करते हैं जिससे किसी एक अमीर को नहीं, बल्कि हर गरीब किसान को फायदा पहुँचता है।
मंज़िल (बासु चटर्जी, 1979)
फिल्म का नायक अपनी खुद की कंपनी शुरू करने के सपने देखता है। एक बेरोजगार युवक की महत्वाकांक्षा का ही नतीजा होता कि वह बिजली के उपकरणों का अपना कारोबार शुरू करता है, जिसके लिए वह भारी रकम कर्ज़े में भी लेता है। उसकी कंपनी बाजार में नहीं चल पाती। उसकी प्रेमिका के पिता, जो कि एक आदर्शवादी वकील भी है, उस पर व्यापार में धोखाधड़ी का आरोप लगाते हैं। उसने अपनी प्रेमिका से अपनी हैसियत के बारे में झूठ बोला था, जो अब सामने आता है। नायक को अपने किये का पछतावा होता है, और अपनी मेहनत के बल पर अंत में वह एक कामयाब उद्यमी बन का उभरता है।
यह फिल्म हमें अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थितियों से लड़ने के लिए सपने देखना सिखाती है। मगर यह भी बताती है, कि ईमानदारी सबसे ज़रूरी गुण है। यह सिखाती है कि हमें अपनी गलती को भूल कर आगे बढ़ने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।
जाने भी दो यारों (कुंदन शाह, 1983)
यह हममें से कइयों की प्रिय फिल्म है। अपने समय की सबसे बेहतरीन फिल्मों में गिने जाने वाले इस फिल्म में दो उद्यमी हैं जो मिलकर एक स्टूडियो चलाना चाहते हैं। समाज में फैले भ्रष्टाचार पर तीखे व्यंग्य करते हुए इस फिल्म के अंत में राजनेता, बड़े उद्योगपति, समाजसेवी, पत्रकार सभी स्वार्थी सिद्ध होते हैं। सिर्फ हमारे दो बेचारे नायक ही ईमानदार हैं, और इस ईमानदारी की इन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
यह फिल्म बताती है कि उद्यमिता का रास्ता आसान नहीं होता। स्थितियां हमेशा हमारे पक्ष में नहीं होतीं। यह हमारे लोकतंत्र पर कड़े कटाक्ष करती है, और इसे देखते हुए हमें एहसास होता है, कि भले ही इस फिल्म के बने हुए तीस साल से अधिक बीत गए हैं, मगर हमारे सामाजिक और राजनितिक परिवेश में ज़्यादा बदलाव नहीं आए हैं।
एक रुका हुआ फैसला (बासु चटर्जी, 1986)
सिडनी लूमेट की महान फिल्म '12 एंग्री मेन' से प्रेरित इस फिल्म में बारह लोग बतौर न्यायपीठ एक युवक के जीवन पर फैसला लेने की कोशिश करते हैं। अभिशस्त इस युवा पर अपने पिता के क़त्ल का इलज़ाम लगा है, और हमारे बारह में से ग्यारह सदस्य इस बात को पहले से मान बैठे हैं कि युवक दोषी है। सिर्फ फिल्म का नायक इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वह संशय में है, और चर्चा करना चाहता है। बेहतरीन संवादों के ज़रिये, फिल्म के आखिर में वह जूरी के बाकी सदस्यों को इस बात के लिए राज़ी करने में सफल होता है, कि शायद यह युवक अपराधी नहीं है।
इस फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि यह दर्शाती है कि हम किस प्रकार अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते हैं। उपलब्ध तथ्यों को निष्पक्ष होकर तोलना और निर्णय लेना हर उद्यमी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा होता है। हम कई बार अकेले पड़ जाते हैं, मगर आत्म-चेतना और व्यक्तिपरकता पर अगर हम ज़ोर दें तो तथ्यपरक फैसले लिए जा सकते हैं।
एक डॉक्टर की मौत (तपन सिन्हा, 1990)
यह फिल्म एक जूनियर डॉक्टर की त्रासद कहानी सुनाती है। हमारा नायक एक डॉक्टर है जो कुष्ठरोग के टीके का आविष्कार कर लेता है, मगर इस काम की ख्याति और श्रेय बाकी लोग लेना चाहते हैं, जो हमारे नायक से अधिक ताक़तवर और कुटिल हैं। आखिर में जब दो अमरीकी डॉक्टरों को इस टीके के आविष्कार के लिए सम्मानित किया जाता है, हमारे हताश नायक को एक प्रतिष्ठित विदेशी संस्थान से न्योता मिलता है कि वह दुनिया के बेहतरीन वैज्ञानिकों के साथ मिलकर बिमारियों को इलाज पर शोध करे। वह काम और मानवता की सेवा को अपने जीवन की साधना मान, बीती बातों को भूल कर आगे बढ़ जाता है।
इस फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है दूरदर्शी होकर अपना काम करते रहने की नैतिकता को सामने लाना। तात्कालिक लाभ-हानि से बढ़कर होता है अपने रास्ते पर चलते जाना। ज़ाहिर है ऐसे लोग कम ही होते हैं। मग़र जो इस बात को समझते हैं वही जीवन में आगे बढ़ते हैं।
लगान (आशुतोष गोवारिकर, 2001)
अंग्रेज़ों के शासन काल के दौरान भारत के छोटे से गांव की घटनाओं को दर्शाती इस फिल्म में गांव के कुछ लड़के अंग्रेज़ों से क्रिकेट के खेल में लोहा लेते हैं। एक तरफ मंझे हुए खिलाड़ी और दूसरी तरफ धर्म, जाति पर बंटे हुए गांव के साधारण लोग जिनका भविष्य दांव पर लगा हुआ है। इनका एकजुट होकर किया गया संघर्ष हमें प्रेरित करता है।
जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, हमारे विचारों में क्रिकेट की भूमिका कमज़ोर पड़ती जाती है और परिप्रेक्ष्य में चल रहे संघर्ष ज़रूरी लगने लगते हैं। ये हमारा ध्यान खींचते हैं। छोटे और अनुभवहीन भी जब एकजुट होकर संघर्ष करते हैं, तो बड़े बड़ों को ललकारने की क्षमता रखते हैं - यह बात उद्यमियों को गाँठ बांधनी चाहिए।
स्वदेश (आशुतोष गोवारिकर, 2004)
यह फिल्म विकास के उस पहलू को दर्शाती है जिसे हमारा समाज लगभग दरकिनार करता चला आया है - गरीबी। फिल्म का नायक एक बुद्धिमान सुशिक्षित युवा है जो नासा में बतौर वैज्ञानिक नौकरी करता है। अपनी बचपन की धाय को अपने साथ विदेश लेकर जाने की इच्छा के साथ ये अपने गांव आता है, और यहाँ की स्थिति देख कर उसकी रूह काँप जाती है। वह तय करता है कि गांव के लोगों के साथ मिलकर ये बगल के नहर से बिजली का उत्पादन करेगा। और ये मेहनतकश लोग ऐसा कर दिखाते हैं।
यह फिल्म दर्शाती है एक समूह की ताक़त उसके लोगों की सामूहिक ताक़त है। अपनी मुश्किलों को लोग मिलकर सुलझा सकते हैं। यह एक गूढ़ प्रश्न हमारे लिए भी खड़ी करता है - समाज के पढ़े लिखे नागरिक होने के नाते हम क्या कर रहे हैं? यह फिल्म ईमानदारी सिखाती है, मेहनत करना सिखाती है और अपनी जड़ और ज़मीन से जुड़े रहना सिखाती है। उदमयियों को इस फिल्म से प्रेरणा लेनी चाहिए।
इक़बाल (नागेश कुकनूर, 2005)
फिल्म का नायक एक गूंगा-बहरा लड़का है जिसे क्रिकेट खेलने का शौक़ है। किसान का बेटा होने के नाते उसे परिवार से, खासकर अपने पिता से कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता। उसके गांव का एक पुराना शराबी खिलाड़ी उसे सिखाता है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, हम एक गरीब युवक को अपने जूनून को पूरा करते देखते हैं।
एक ऐसे रास्ते पर चलना जहाँ पैसे वाले और ताकतवरों ने पहले से कब्ज़ा कर रखा है, हर उद्यमी की नियति है। हमारे फिल्म का नायक यही करता है और अपने बुलंद हौसलों पर सवार अपनी मंज़िल तक भी पहुंचता है। यह फिल्म बताती है कि असामान्य स्थितियों से ही विलक्षण लोग निकालकर आते हैं जो अपनी निष्ठा के ज़ोर पर आगे निकलते हैं।
आपका क्या ख्याल है? वर्ष 2005 तक की फिल्मों में और कौन सी फिल्में हैं जिन्हें उद्यमियों को देखना चाहिए। आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी।