कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
शलभ श्रीराम सिंह ने कविता लिखने की शुरुआत उर्दू शायरी से की थी। उस समय शलभ फैजाबादी के नाम से लिखते थे। बाद में वह नवगीत आन्दोलन में शामिल हो गए। इसके बाद शलभ श्रीराम सिंह के नाम से लिखने लगे।
शलभ के बारे में स्वयं बाबा नागार्जुन ने कहा था कि जब वह गीत रचते हैं तो लगता है कि वे गीत हैं और गीत रचना क्या होता है। मूलतः वह प्रेम और प्रकृति के नहीं, बगावत के कवि है। वह जन साधारण की जिंदगी कठिन करने वाली शक्तियों के विरुद्ध शब्द देते हैं।
भावनाओं के तरल गतिमान श्रोत पूरे वेग के साथ टकराने के लिए छटपटा रहे हैं, उन्हें उनकी दिशा में कोई मोड़ कर तो देखे। चट्टानों की सुनिश्चित परिणति इस कार्य व्यापार की प्रतीक्षा कर रही है।
जनकवि शलभ श्रीराम सिंह और हास्य-व्यंग्य के कवि ओमप्रकाश आदित्य की जयंती 5 नवंबर को होती है। इसी दिन नागार्जुन और विजयदेव नारायण साही की पुण्यतिथि भी होती है। समालोचक विजय बहादुर सिंह के शब्दों में बाबा नागार्जुन जीवन और कविता में बेहद बेलिहाज और निडर व्यक्तित्व वाले सर्जक रहे हैं। हिन्दी में तो वे संस्कृत पण्डितों और शास्त्रज्ञों की समस्त सम्पदा लेकर आये थे, उनकी शुरुआती नौकरियाँ भी इसी शास्त्र-ज्ञान और दर्शन के बल पर सम्भव हुईं पर हिन्दी के स्वाभाविक प्रवाह को उन्होंने कहीं भी अपनी किसी भी कोशिश से असहज नहीं होने दिया। बल्कि उसे और भी प्रवाहपूर्ण और संगीतमय बनाया। बहुभाषाविद् नागार्जुन तो मातृभाषा मैथिली में ‘यात्रीजी’ के नाम से सुविख्यात और सुप्रतिष्ठित हैं।
मैथिली में एक पूरा मैथिली युग ही चलता है। बंगला और संस्कृत में तो उनकी कविताएँ उत्सुकता और उल्लास से पढ़ी ही जाती हैं। किन्तु नागार्जुन इतने ही नहीं हैं। सच तो यह कि अपनी विराटता छिपाए हुए वे हमारे समय के विलक्षण काव्य-वामन हैं। ज़रूरत पड़ने पर वे चकमा भी दे सकते हैं लेकिन उनका औसत चरित्र फक्कड़ाना है। अपने हित-लाभपूर्ण चाक-चिक्य की तो ऐसी-तैसी वे कर ही लेते हैं पर आसपास रहने और आने-जाने वालों को भी देखते रहते हैं कि कौन किस हद तक ‘अपना घर’ फूँक सकता है। जीवन-भर उनकी कसौटियाँ कुछ इसी तरह की रही हैं। उनकी ये पंक्तियां आज भी देश-काल के चेहरे में टटकी-टटकी सी चस्पा लगती हैं-
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास,
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास,
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त,
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद,
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद,
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद,
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
शलभ श्रीराम सिंह ने कविता लिखने की शुरुआत उर्दू शायरी से की थी। उस समय शलभ फैजाबादी के नाम से लिखते थे। बाद में वह नवगीत आन्दोलन में शामिल हो गए। इसके बाद शलभ श्रीराम सिंह के नाम से लिखने लगे। विद्याधर शुक्ल के शब्दों में शलभ श्रीराम सिंह की कविताओं में कबीर का अक्खड़पन, नजरुल की क्रान्ति चेतना और निराला का ओज कौंधता है। वह सिर से पाँव तक कवि थे। कविता को उन्होंने अपना जीवन सौंप दिया। शलभ कविता में ही जागे, जिए और मरे लेकिन आज के बन्दर बाटी आलोचक समकालीन कवियों की मर्दुमशुमारी में शलभ जैसे शक्तिसम्पन्न और जनचेता कवि का नामोल्लेख तक नहीं करते।
जबकि सच्चाई यह है कि साठोत्तर कवियों में धूमिल के असमय निधन के बाद शलभ से बड़ी उम्मीदें की गई थीं, वे आधी अधूरी रह गईं। गोरख पाण्डे पर भी आशाएँ टिकीं लेकिन उनकी आत्महत्या ने ऐसी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। शलभ के बारे में स्वयं बाबा नागार्जुन ने कहा था कि जब वह गीत रचते हैं तो लगता है कि वे गीत हैं और गीत रचना क्या होता है। मूलतः वह प्रेम और प्रकृति के नहीं, बगावत के कवि है। वह जन साधारण की जिंदगी कठिन करने वाली शक्तियों के विरुद्ध शब्द देते हैं।
शलभ श्रीराम सिंह लिखते हैं कि भाव, भाषा, शिल्प और शैली का अशेष भण्डार निःशेष कहां हुआ है भला? हमारी संवेदना के दरवाजों पर विरुचि और विरूपता के कवच पहने खुरदुरे और बेडौल यथार्थ की चट्टान यदि खड़ी है तो उन्हें इच्छित आकार देने और सही ठिकानों पर स्थापित करने वाली बुद्धि और विवेक से हमारी कला चेतना वंचित कहां है। भावनाओं के तरल गतिमान श्रोत पूरे वेग के साथ टकराने के लिए छटपटा रहे हैं, उन्हें उनकी दिशा में कोई मोड़ कर तो देखे। चट्टानों की सुनिश्चित परिणति इस कार्य व्यापार की प्रतीक्षा कर रही है।
अपने मुहाने पर सर्व स्तरीय विभीषिकाओं को साथ लेकर खड़ी इस शताब्दी की विसंगतियों, विरोधाभाषों, निर्मूल्यताओं, अन्याय और मानवता विरोधी पक्षों पर प्रहार करना होगा। निश्चित रूप से रास्ता मिलेंगा। शर्त यह है कि हमारी चिंता नये सृजन की संभावनाओं को टटोलने और नये उन्मेष के सपनों को पहचाने की होनी चाहिए। शलभ की ये कालजयी पंक्तियां आज भी हमे अनायास अंदर तक आंदोलित कर देती हैं। वर्ष 1985-86 में तत्कालीन प्रधानमंत्री बनने से पूर्व चन्दशेखर द्वारा निकाली गई पद यात्रा के दौरान रची गई थी -
जहाँ आवाम के ख़िलाफ़ साज़िशें हो शान से,
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से,
जहाँ पे लब्ज़े-अमन एक ख़ौफ़नाक राज़ हो,
जहाँ कबूतरों का सरपरस्त एक बाज़ हो
वहाँ न चुप रहेंगे हम, कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक़ हमारा हक़ हमें जनाब चाहिए।
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए।
यक़ीन आँख मूँद कर किया था जिनको जानकर,
वही हमारी राह में खड़े हैं सीना तान कर,
उन्ही की सरहदों में क़ैद हैं हमारी बोलियाँ,
वही हमारी थाल में परस रहे हैं गोलियाँ,
जो इनका भेद खोल दे, हर एक बात बोल दे
हमारे हाथ में वही खुली क़िताब चाहिए।
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