मैं बच गई, क्योंकि मुझे चीखना आता था...
हमारे आसपास मौजूद 10 लड़कियों में से करीब 6-7 लड़कियां ऐसी होती हैं, जो यौन शोषण का शिकार हुई होती हैं और ऐसे में हॉलीवुड एक्ट्रेस एलिसा मिलानो का ट्विटर अभियान #MeToo ऐसी लड़कियों के दर्द को खुलकर बाहर आने का मौका दे रहा है।
यौन शोषण वो तकलीफ है, जो सालों साल तक किसी भी लड़की को परेशान करती रहती है। ऐसी बच्चियां बहुत समय तक तो नॉर्मल ही नहीं हो पातीं। वो अपने करीब आने वाले हर शख़्स को संदेह की नज़र से देखती हैं। कई लड़कियां ऐसी भी होती हैं, जो बड़े होने तक किसी के साथ भी, यहां तक कि प्रेमी या पति के साथ भी नॉर्मल सेक्शुअल लाईफ बिता नहीं पातीं। सालों बाद भी नींद में डर कर उठ जाती हैं। हमारे आसपास मौजूद 10 लड़कियों में से करीब 6-7 लड़कियां ऐसी होती हैं, जो कभी-न-कभी कहीं-न-कहीं यौन शोषण का शिकार हुई होती हैं और ऐसे में हॉलीवुड एक्ट्रेस एलिसा मिलानो का ट्विटर अभियान #MeToo इन लड़कियों के दर्द को खुलकर बाहर आने का मौका दे रहा है। शुक्रिया मिलानो उन सभी लड़कियों की तरफ से, जो अपनी बात को इतनी बहादुरी से कहने की हिम्मत सिर्फ तुम्हारी वजह से जुटा पा रही हैं...
#MeToo की शुरुआत हॉलीवुड एक्ट्रेस एलिसा मिलानो ने अपने ट्विटर अभियान के तहत 15 अक्टूबर 2017 को की, यानि की दो दिन पहले ही। मिलानो के इस अभियान के तहत दुनियाभर की महिलाएं अपने साथ हुई यौन शोषण की घटनाओं का खुलासा कर रही हैं। उनके इस ट्वीट पर 42, 000 से ज्यादा रिस्पॉन्स मिल चुका है।
दो दिनों से सोशल मीडिया पर #MeToo काफी तेज़ी से देखने को मिल रहा है। मेरी फ्रेंडलिस्ट की लगभग सभी लड़कियों ने इसे अपनी वॉल पर डाला है। कुछ ने सिर्फ #MeToo लिख कर छोड़ दिया है, तो कईयों ने अपने अनुभव भी साझा किए हैं। #MeToo की शुरुआत हॉलीवुड एक्ट्रेस एलिसा मिलानो ने अपने ट्विटर अभियान के तहत 15 अक्टूबर 2017, यानि की दो दिन पहले ही। मिलानो के इस अभियान के तहत दुनियाभर की महिलाएं अपने साथ हुई यौन शोषण की घटनाओं का खुलासा कर रही हैं। उनके इस ट्वीट पर 42, 000 से ज्यादा रिस्पॉन्स मिल चुका है। हर लड़की की अपनी कोई न कोई कहानी है। किसी के पापा का दोस्त, तो किसी के मामा, किसी के ताऊ जी तो किसी के दादाजी, पड़ोस वाला बंटी भईया तो तीसरी मंज़िल पर रहने वाले तिवारी अंकल.... हर लड़की की कहानी है और सबके भीतर उन सभी के लिए नफरत भरी पड़ी है, जिन्होंने उनके उनके बचपन को गंदा करने की कोशिश की।
गंदा शब्द ही अपने आप में अजीब है। असल में ऐसा करने से गंदी वो बच्ची नहीं होती, जिसके साथ ये सब होता है बल्कि सामने वाले शख़्स की असलिय का पता चलता है। लेकिन ऐसी असलियत का क्या, जिसकी समझ बीस साल बाद आये? ऐसी असलियत का क्या, जिसे सोचकर गुस्सा बीस साल बाद फूटे? ऐसी असलियत का क्या, जिसे बीस साल बाद ट्विटर पर #MeToo लिख कर ज़ाहिर किया जाये। हां, लेकिन ऐसा करने से भीतर का वो गुस्सा काफी हद ठंडा ज़रूर पड़ता है।
सालों पहले एक फिल्म देखी थी मॉनसून वैडिंग और पिछले साल आलिया भट्ट की हाईवे। दोनों फिल्मों में एक ऐसी बच्ची को दिखाया गया है, जो घर में आनेवाले सबसे क्लोज़ फैमिली फ्रैंड द्वारा यौन शोषण का शिकार होती हैं। मुझे समझ नहीं आता कि कैसी होती हैं, वो माँऐं जो अपनी बच्चियों के दिलों को पढ़ नहीं पातीं। सुहाना (मेरी एक सहेली का बदला हुआ नाम) ने मुझे स्कूल के दिनों में बताया था, कि उसके घर में आनेवाले भईया (जो कि उसके मामा के बेटे थे) अक्सर उसके साथ वो सबकुछ करते थे, जो वो नहीं चाहती थी। जिसके बाद उसे दर्द होता था। वो तकलीफ में रहती थी। अंधेरे में जाने से डरती थी। घंटों-घंटों बाथरूम में बैठी रहती थी। उसका वो भईया शादीशुदा था, दो बेटियां का पिता था। सुहाना ने कई बार अपनी माँ को बताने की कोशिश की, लेकिन वो जानती थी कि उसकी बात पर कोई भरोसा नहीं करेगा और हुआ भी ऐसा ही। एक दिन उसने अपनी माँ को वो सब बातें बता दीं। बदले में माँ ने उसके कानों को खींचते हुए उसके दोनों कंधों को झकझोर दिया और उसे खामोश हो जाने को कहा और ये भी कहा कि "मुझे बता दिया है और किसी को मत बताना। ये बहुत गंदी बात है। वो मेरे भाई का बेटा है। लोग नहीं मानेंगे कि उसने ऐसा कुछ किया होगा। सब तुझे गलत, तुझे गंदा कहेंगे।" ये जो शब्द है न गंदा, ये हमेशा लड़कियों के लिए ही इस्तेमाल होता है। गलती किसी और की होती है और गंदा किसी और को कहा जाता है।
और, एक बार तो माँ ने अपनी आंखों से सबकुछ देख लिया तो भी आज तक सुहाना के उस कज़िन ब्रदर से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पाई। वो फिर भी घर में आता रहा, फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि माँ के देखने के बाद वो सुहाना से दूर हो गया और उसके साथ फिर कुछ नहीं किया कभी। वो अभी भी फैमिली फंक्शन्स में उससे मिलता है, फ्रैंच कट में रहता है, गैलिस वाली पैंट पहनता है, वाईन पीता है, 58 साल का हो चुका है और समाज में एक सभ्य पहचान रखता है। लेकिन आज भी सुहाना उसे देखकर उसी तरह डर जाती है, जैसे कि आज से 25 साल पहले। अपनी बेटी को सुहाना ने आज तक उसके करीब जाने नहीं दिया और अपनी बेटी को ये भी बताया समझाया कि लोग ऐसे भी होते हैं, इसलिए किसी पर भरोसा मत करो।
किसी भी लड़की की ज़िंदगी में ऐसी किसी घटना का हो जाना उस बुरे स्वप्न जैसा है, जिसे याद करते ही पूरा बदन सुलग उठता है और आंखों से चिंगारियां निकलने लगती हैं। हर लड़की बड़े होने पर ये सोचती है, कि मैं उस वक्त क्यों नहीं चिल्लाई? मैंने क्यों नहीं सबको बताया? क्यों माँ ने मुझे चुप्प करा दिया? क्यों किसी ने उससे कोई सवाल नहीं पूछा? ये जो ढेर सारे क्यों हैं न, ये सारी ज़िंदगी उस लड़की का पीछा करते हैं, जिसे बचपन में कोई ना कोई करीबी सारी ज़िंदगी सोचने के लिए सौंप जाता है।
"मुझे याद है, मैं तब तीसरी क्लास में थी। हमारे पड़ोस में एक तिवारी जी रहते थे। वो अकेले रहते थे। अपने घर मकान परिवार से दूर, नौकरी के चक्कर में। कभी-कभी उनकी पत्नी उनसे आकर मिल जाया करती थी। पत्नी की भी सरकारी नौकरी थी, तो वो बच्चों के साथ उस शहर में रहती थी, जहां उसकी नौकरी थी। तिवारी जी उस शहर में जहां उनकी नौकरी थी। तिवारी जी किराये पर नीचे के फ्लोर पर रहते थे और हम लोग ऊपर के कमरे में। हम जिस बिल्डिंग में रहते थे, वहां 5-6 किरायेदार रहते थे। सभी एक साथ उठते बैठते खाते पीते, यहां तक कि बिजली चले जाने पर सब अपने अपने बिस्तर लगा कर छत पर एक साथ सो जाया करते थे। तिवारी जी के प्रति बिल्डिंग के सभी लोगों को लगाव था, सहानुभूति थी, क्योंकि वो परिवार से दूर रह रहे थे, तो हर शाम उनके घर कोई न कोई पकी पकाई सब्जी पहुंचा दिया करता था, तिवारी जी रोटी सेंक कर खा लेते थे। तिवारी जी भी कहीं जाते आते तो किसी न किसी के लिए कुछ कुछ ले आते, कभी आम, कभी तरबूज, कभी केला, कभी बर्फी, कभी तिल के लड्डू... तिवारी जी की छवि बेहद ही सज्जन व्यक्ति की थी। बिल्डिंग की सभी औरतें उनसे बड़े अदब से पेश आतीं और सारे मर्द दफ्तर जाते में उन्हें सलाम ठोंकना नहीं भूलते। एक बार मैं अपने दोस्तों के साथ बैट-बॉल खेल रही थी। बॉल गलती से उनके कमरे में चली गई। बॉल चूंकि मेरे से गई थी, तो लेने भी मुझे जाना पड़ा। उनका दरवाजा खुला था। मैं धीरे से कमरे में गई। कमरे में कोई नहीं था, जैसे ही मैं बॉल लेने के लिए मेज की ओर बढ़ी। किसी ने पीछे से मुझे गोद में उठा लिया। बॉल के अंदर जाते ही तिवारी अंकल दरवाजे के पीछे छिप गये होंगे। कोई भी बच्चा अंदर जाता वो उसे उसी तरह गोद में उठा लेते जैसे उन्होंने मुझे उठाया। मैं अपने पैर पटकने लगी। वो मुझे लगातार बोल रहे थे, बेटा क्या खायेगा, तरबूज खायेगा, टॉफी खायेगा, ऐसी और ढेर सारी बॉल लेगा, फ्रॉक लेगा... कुछ भी बके जा रहे थे। लेकिन उनका लगातार मुझे अपनी गोद में इस तरह उठाये रहना अजीब लग रहा था। उनके मुंह से प्याज की महक आ रही थी और उनका खुरदरा चेहरा मुझे डरा रहा था। इससे पहले की वो मेरे साथ कुछ कर पाते मैं ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी। सारे बच्चे अंदर दौड़ आये और अंकल ने मुझे छोड़ दिया। मैं ज़मीन पर गिर पड़ी। मेरी कोहनी में चोट आ गई। मेरे दोस्तों ने मुझे उठाया और मुझे लेकर बाहर चले आये। कोई बच्चा उनकी मेज पर से केला लेकर भाग आया तो कोई सेब। वो सब बच्चों को कमरे से बाहर निकालने लगे। उसके बाद मैं वापिस ऊपर अपने कमरे में आ गई। खिड़की के पास रखे तखत पर पैर रखकर खिड़की पर जा खड़ी हुई और सड़क देखने लगी। मां ने कहा, आज नहीं खेलना देर तक? बड़ी जल्दी आ गई? किसी से लड़ाई हो गई है क्या? मैंने कहा, नहीं, मेरी कोहनी में चोट लग गई। अब नहीं जाऊंगी नीचे खेलने... उस दिन के बाद से मैं तिवारी अंकल को पीछे से देख कर ही डर जाती थी।वो मुझे देखकर एक अजीब-सी हंसी हंसा करते थे। मां की उंगली पकड़े जब भी कहीं बाहर जाती और वो मिलते तो हमेशा मेरे गालों को छूने की कोशिश करते लेकिन मैं कभी उन्हें अपने गाल नहीं छूने देती।"
मैं बच गई क्योंकि मुझे चिल्लाना आता था, चीखना आता था... मुझे कभी किसी ने नहीं सिखाया था, लेकिन ऐसी नजाने कितनी लड़कियां कितने बच्चे होते हैं, जो नहीं बच पाते, क्योंकि उन्हें चीखना नहीं आता... चिल्लाना नहीं आता... असल में उन्हें मालूम ही नहीं होता है, कि उनके साथ जो हो रहा है वो आखिर है क्या! सामने वाला व्यक्ति उनके साथ ऐसा क्यों कर रहा! और वो नजाने कितनी बार कितने लोगों द्वारा इन सब चीज़ों का शिकार होती हैं। मेरी भी ज़िंदगी में वो सिलसिला थमा नहीं। कभी कोई बस स्टॉप पर मिला, तो कभी कोई कॉलेज की सीढ़ियों पर, कभी स्कूल से घर लौटते हुए, तो कभी बस के भीतर, कभी अॉटो में, कभी मैट्रो में... लेकिन मैं हमेशा बची रही क्योंकि मुझे चिल्लाना आता था।
आज भी ऐसी कई माँऐं हैं, जो अपनी बेटियों को अब तक ये नहीं सीखा पाई हैं कि चिल्लाना कैसे है। चीखना कैसे है। बताना कैसे है। लड़ना कैसे है। ऐसी कई माँऐं हैं, जो बच्चियों को ये सब बताने पढ़ाने में संकोच करती हैं। उन्हें शर्म आती है। वो कहती हैं, हम अपनी बच्चियों से कहेंगे क्या? हमारी बेटियों की किताबों में क्यों नहीं ऐसे चैप्टर पढ़ाये जाते हैं, जहां उन्हें ज़िंदगी की कड़वी सच्चाईयों से लड़ना सिखाया जाये।
जॉनी-जॉनी यस पापा और बा!बा! ब्लैक शीप पढ़ने से ज्यादा ज़रूरी है, कि कोर्स में उन कविताओं उन कहानियों को डाला जाये, जो हमारी बेटियों को कम उम्र से ही जागरुक बनायें। स्कूल में कत्थक और वेस्टर्न डांस करवाने से ज्यादा ज़रूरी है, लड़कियों के लिए सेल्फ डिफेंस की एक्स्ट्रा क्लासिज़ देना। उनके शरीर और सोच को मजबूत बनाना। उनकी समझ को निखारना। सिंड्रैला और रपुंज़ल की कहानियों से बाहर निकाल कर असल दुनिया का सच बताना। उन्हें बताया जाये, कि प्रिंसेज़ की ज़िंदगी का मकसद किसी प्रिंस का मिल जाना ही नहीं होता, बल्कि रास्ते में आने वाले कंकड़-पत्थर और चट्टानों से लड़ना झगड़ा और उन्हें तोड़ते हुए आगे बढ़ना भी होता है।
यौन शोषण वो तकलीफ है, जो सालों साल तक किसी भी लड़की को परेशान करती रहती है। ऐसी बच्चियां बहुत समय तक तो नॉर्मल ही नहीं हो पातीं। वो अपने करीब आने वाले हर शख़्स को संदेह की नज़र से देखती हैं। कई लड़कियां तो ऐसी भी होती हैं, जो बड़े होने तक किसी के साथ भी, यहां तक कि प्रेमी या पति के साथ भी नॉर्मल सेक्शुअल लाईफ बिता नहीं पातीं। सालों बाद भी नींद में डर कर उठ जाती हैं। हमारे आसपास मौजूद 10 लड़कियों में से करीब 6-7 लड़कियां ऐसी होती हैं, जो यौन शोषण का शिकार हुई होती हैं और ऐसे में हॉलीवुड एक्ट्रेस एलिसा मिलानो का ट्विटर अभियान #MeToo ऐसी लड़कियों के दर्द को खुलकर बाहर आने का मौका दे रहा है।
शुक्रिया मिलानो उन सभी लड़कियों की तरफ से, जो अपनी बात को इतनी बहादुरी से कहने की हिम्मत सिर्फ तुम्हारी वजह से जुटा पा रही हैं... हर लड़की के लिए बहुत ज़रूरी है ये हिम्मत।