कवि मलयज की डायरी में दर्ज है कठिनतर जीवन की व्यथा
हमारे समय के असाधारण आलोचक एवं कवि मलयज की पुण्यतिथि पर विशेष...
कवि-आलोचक मलयज लिखते हैं कि 'कविता मेरे लिए एक आत्मसाक्षात्कार है और आलोचना उसी कविता से साक्षात्कार। आलोचना का संसार कविता के संसार का विरोधी, उसका विलोम या उसका प्रतिद्वन्द्वी संसार नहीं है, बल्कि वह कविता के संसार से लगा हुआ समानान्तर संसार है। ये दोनों संसार अपनी-अपनी जगह पर स्वतंत्र सर्वप्रभुता सम्पन्न संसार है, पर दोनों के बीच एक मित्रता की सन्धि है।' आज मलयज की पुण्यतिथि है।
गरीब स्वभावत: क्रान्तिकारी होता है क्योंकि भूखे पेट और एक लंगोटी के सिवा उसके पास कुछ नहीं होता। जो गरीब के साथ नहीं है, वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अमीर के साथ है। अमीर बनने की चेष्टा गरीब के बृहत समूह से कटते जाने की चेष्टा है।
हमारे समय के असाधारण आलोचक एवं कवि मलयज की आज (26 अप्रैल) पुण्यतिथि है। कविता के इस मर्मी आलोचक-कवि का जन्म सौभाग्य से पूर्वाचल की मिट्टी में हुआ। सन 1935 में मलयज का जन्म आजमगढ़ जिले के दोहरीघाट क्षेत्र के 'महुई' गांव (उ.प्र.) में एक किसान परिवार में हुआ था। उनका पूरा नाम भरतजी श्रीवास्तव था। उनका सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विकास इलाहाबाद की 'परिमल' पाठशाला में हुआ। उनके जीवन-काल में केवल चार पुस्तकें प्रकाशित हुईं - दो कविता-संग्रह 'जख्म पर धूल' (1971) और 'अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ' (1980)। एक पुस्तक सर्वेश्वर के साथ सम्पादित 'शमशेर' (1971) और एक आलोचना-पुस्तक 'कविता से साक्षात्कार' (1979)। 'हँसते हुए मेरा अकेलापन' (1982), 'संवाद और एकालाप' (1984), 'रामचन्द्र शुक्ल' (1987) और तीन खण्डों में प्रकाशित 'मलयज की डायरी' (2000) बाद की पुस्तकें हैं।
छात्र-जीवन में उन्होंने या तो डायरी लिखी या कविताएँ। पन्द्रह वर्ष की अवस्था (1950) में उन्होंने हाई स्कूल पास किया। 15 जनवरी 1951 में उनका डायरी-लेखन आरंभ हुआ और इसी वर्ष से डायरी में ही वे गीत-कविता लिखने लगे। यह पचास का दशक था। मलयज का निर्माण-दशक। स्व.विजय देवनारायण शाही और शमशेर से प्रभावित मलयज आश्चर्यजनक रूप से न तो लोहियावादी थे, न ही कलावादी। उन्होंने साहित्य में व्यक्तिवाद एवं कलावाद के आजीवन निर्मम आलोचक के रूप में ख्याति अर्जित की।
आजीवन वह कठिनाइयों से जूझते रहे। नौ वर्ष में ही क्षय रोगग्रस्त, इलाहाबाद से स्नातक अध्ययन के दौरान गंभीर बीमार, इलाज के लिए वेल्लूर ले जाए गए, जहां उनका एक फेफड़ा काटकर निकाल दिया गया। कृशकाय हो गए। अवसाद ने घेर लिया लेकिन अदम्य जीजीविषा बनी रही। जीवन को ललक के साथ जीने की उम्मीद ने उन्हें हमेशा बांधे रखा। अंग्रेजी से एमए करने के बाद वह इलाहाबाद छोड़ आजीविका की खोज में दिल्ली गए, वहां प्रभाकर माचवे की मदद से कृषि मंत्रालय की अंग्रेजी पत्रिका में नौकरी करते हुए साहित्य के सृजन में चुपचाप संलग्न रहे। दिल्ली में रहते हुए भी दिल्ली के मिजाज से दूर शमशेर के निकट रहे।
यद्यपि शमशेर उम्र में उनसे काफी बड़े थे पर दोनों की मैत्री का सिलसिला इलाहाबाद से दिल्ली तक बरकरार रहा। मलजय कभी भी अपने गांव महुई को नहीं भूले। महुई को न भूलना सामान्य जन और साधारण मनुष्य को नहीं भूलना था। शिक्षित हुए, पले-बढ़े इलाहाबाद में। फिर इलाहाबाद से दिल्ली, दिल्ली के विश्वपुस्तक मेला में बुढ़ापे के कदम रखने वाले उस अधेड़ ग्रामीण व्यक्ति पर उनकी नजर टिकी, जो फटा-पुराना कोट, घुटने तक धोती और चमरौधा पहने, एक मटमैली खेस को सिर से लेकर अपने चारों ओर लपेटे बड़े मनोयोग से किताबें उठाता, उसके पन्ने पलटता और करीने से यथास्थान रख देता था। वह मलयज थे। उनकी निगाह बड़ी तेज थी। वह बाहर जितना देखती थी, उससे कहीं अधिक भीतर। जीवन, समय और रचना के बहुत भीतर। वे सम्पादक, चित्रकार, पत्र-लेखक, कवि, कहानीकार, आलोचक, डायरी लेखक और निबंधकार थे - मुख्यत: कवि-आलोचक, पर उनके रचना-संसार और चिन्तन-संसार के सवाल एक विधा विशेष के प्रमुख सवाल होने के बाद भी मात्र उस विधा-विशेष में सीमित नहीं है। मलज की डायरी के पन्नों पर एक अमर रचना दर्ज है -
पन्द्रह अगस्त! मना रहे हो आज तुम मुक्ति का त्योहार!
स्वतंत्रता की छठी वर्षगाँठ!
उड़ाते तुम तिरंगा चक्र मंडित
और चिल्लाते 'किसी' की जय के नारे
खूब यूँ उत्साह तुम दरसा रहे
पर ध्येय क्या इन उत्सवों का?
क्यों 'मजे में' एक है जब दूसरा रोटी न पाता?
क्यो तड़पते भूख से मजदूर-बालक और नारी?
करो संकल्प, जिससे देश का तम दूर हो
रहे न कोई दीन/मलीन, बेकार/सुख-समृद्धि का हो 'सुराज'
मलयज का हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना दृष्टि को पुनर्व्याख्यायित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने अज्ञेय और शमशेर बहादुर सिंह की प्रशंसा में लंबे निबंध लिखे, जो बहुत सराहे गए। हिंदी के ख्यात आधुनिक आलोचक रविभूषण लिखते हैं - 'मलयज फिलहाल कहीं से भी साहित्यिक-वैचारिक परिदृश्य में नहीं हैं। संभव है, कवियों, आलोचकों, गंभीर पाठकों और सुधरे जनों को उन पर कुछ भी लिखना आज के समय में बहुत अटपटा और बेसुरा लगे क्योंकि कविता में सब कुछ 'शुभम् शुभम्' है और आलोचना में शिखर आलोचक पर लिखे जा रहे संस्मरणों का अंबार है।
हिन्दी साहित्य और समाज का परिदृश्य बहुत बदल चुका है। सुधीजन पूछ सकते हैं कि आज मलयज को याद करना क्यों ज़रूरी है? रमेशचन्द्र शाह की बात छोड़ें, जो उनके बड़े गहरे मित्र रहे। मलयज को याद करना उनके लिए स्वाभाविक है। अब तो समय के साथ मलयज जैसे सुयोग्य कवि-आलोचक को नामवर सिंह, विष्णु खरे, अशोक वाजपेयी, दूधनाथ, काशीनाथ, विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे नामचीन हिंदी विद्वान भी भुला बैठे, यद्यपि 'आलोचना की पहली किताब' विष्णु खरे ने इस 'बेहतर आलोचक और बेहतर इन्सान' को समर्पित की थी और हमारा समय 'बेहतर आलोचक और बेहतर इन्सान' की पहचान का, उसके साथ चलने और रहने का नहीं है। क्या सचमुच नहीं होना चाहिए?'
सेनेटोरियम का जीवन मलयज ने आत्मपीड़ा से ग्रस्त होकर नहीं जिया, बल्कि वहाँ मानव-जीवन के तमाम मूल्यवान पहलू खोज लिए। उनके सजग चिन्तन का रूप पनपता गया। साथ ही भाषा का भी मार्जन होता गया। मलजय, जैसे एकान्त में ही, अपने जीवित रहने की ऊर्जा इकट्ठी करते थे। कवि-आलोचक मलयज का मानना था कि 'समाज-व्यवस्था को सिर्फ गरीब बदल सकता है- इस बदलाव में सिर्फ उसी की दिलचस्पी है। अमीर केवल यथास्थिति बनाए रखना चाहता है।
गरीब स्वभावत: क्रान्तिकारी होता है क्योंकि भूखे पेट और एक लंगोटी के सिवा उसके पास कुछ नहीं होता। जो गरीब के साथ नहीं है, वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अमीर के साथ है। अमीर बनने की चेष्टा गरीब के बृहत समूह से कटते जाने की चेष्टा है। अपने को बंद करने की चेष्टा है। एक व्यक्ति भी अपने निर्णय से - अपने अमीर बनने के निर्णय से - कई कई गरीब पैदा करता है। अमीर बनने की कोशिश जन-समूह का रास्ता छोड़कर अपनी अलग पगडंडी पर चलने लगना है। सबका, बहुसंख्यक का साथ छोड़ देना, देश का साथ छोड़ देना है क्योंकि देश उन लोगों से बना है, जो ज्यादातर गरीब हैं, गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं। आज अमीर होना एक अराष्ट्रीय कर्म है। कविता मेरे लिए एक आत्मसाक्षात्कार है और आलोचना उसी कविता से साक्षात्कार।
आलोचना का संसार कविता के संसार का विरोधी, उसका विलोम या उसका प्रतिद्वन्द्वी संसार नहीं है, बल्कि वह कविता के संसार से लगा हुआ समानान्तर संसार है। ये दोनों संसार अपनी-अपनी जगह पर स्वतंत्र सर्वप्रभुता सम्पन्न संसार है, पर दोनों के बीच एक मित्रता की सन्धि है। दोनों एक दूसरे पर अपनी शर्तें और प्रतिज्ञाएं, आरोपित नहीं करते, पर उनकी एक दूसरे के हितों में आपसी दिलचस्पी है। कविता कुछ भी सिद्ध नहीं करती सिवाय एक अनुभव को रचने के। आलोचना कुछ भी प्रमाणित नहीं करती सिवाय उस रचे हुए अनुभव को व्यापक अर्थ-विस्तार देने के। अनुभव ही कविता को आलोचना से जोड़ता है, पर कविता में इस जुडऩे की भाषा अनुभूति है और आलोचना में विचार।'
रविभूषण बताते हैं कि मलयज ने ज्यादा नहीं लिखा। वे कुछ भी लिखने के पक्ष में कभी नहीं रहे। 1981-82 में 'दिनमान' उनका कुछ भी लिखा छापने को तैयार था। मलयज तैराक नहीं, गोताखोर थे। उन्होंने हमेशा डुबकी लगायी। क्या सचमुच हमने उन मोतियों की पहचान कर ली है, जो उन्होंने हमें दिए - स्वतंत्र भारत के आरंभिक तीन दशकों में क्या केवल आलोचक के रूप में उन्हें देखना संगत है? या कवि-रूप में? या डायरी-लेखक के रूप में? साहित्यरूपों को एक दूसरे से सर्वथा अलग कर आलोचना कर हमने जो एक सुविधाजनक स्थिति पैदा कर ली है, क्या वह सही है? पचास के दशक में मलयज कवि और आलोचक किसी भी रूप में 'सीन' में नहीं थे। आज के पुरस्कृत, सम्मानित, विभूषित अलंकृत कितने कवियों में अपनी काव्य-रचना के प्रति ऐसी बेचैनी है? मलयज के यहां सवाल से सवाल निकलते हैं, एक दूसरे से आपस में जुड़े हुए, गुँथे हुए। एक बड़ी प्रश्न-श्रृंखला हम उनके यहाँ देख सकते हैं। प्रश्नों के निदान-समाधान में उनकी आस्था नहीं थी। निर्ममतापूर्वक मलयज अपने को छीलते हैं। वे अपनी कविताओं के स्वयं निर्मम आलोचक थे। लेखन उनके लिए सामान्य कर्म नहीं था-
लिखो तभी जब संकट में हो
चीजें जब सब हिली हुई हो
जमीन सरकी हुई थिर कुछ भी नहीं
एक साँस भीतर एक बाहर बीच में
हलचल जिसमें कोई तरतीब नहीं
संकट में होना धार में होना है
किनारा है उथलापन
प्रतिष्ठित आलोचक डॉ अरविंद त्रिपाठी का मानना है कि मलयज आजीवन 'एक चुप आदमी' रहे। अज्ञेय के अनुयायी, अज्ञेय के 'मौन' को सराहते नहीं अघाते पर मलयज ने अज्ञेय से ज्यादा मौन जीवन जिया, पर लेखकीय स्तर पर मुखर, उत्तेजक और हमेशा बेचैनी भरे लेखन के प्रतिमान रहे। नई कविता और आठवें दशक तक की कविता के एक अनन्य भाष्यकार के रूप में विख्यात मलयज कविता से कला के अति आग्रही होने के बावजूद कलावाद के निर्मम आलोचक के रूप में शुमार थे। मलयज शमशेर की कविता के सिर्फ पाठक भर न थे, निर्मम, विश्वसनीय व बेबाक आलोचक थे। एक खास तरह की तटस्थ साफगोई उनके व्यक्तित्व व स्वभाव से लेकर उनकी आलोचना में व्याप्त थी।
1960 में 'लहर' के बहुचर्चित कविता विशेषांक का संपादन करके मलयज ने संपादन कला के साथ नई कविता और सन 60 के बाद की कविता के फर्क को पहली बार काव्यालोचना में उद्घाटित किया था। उसी अंक से नवलेखन के सौंदर्यशास्त्र विषय पर दूधनाथ सिंह से हुई उनकी जिरह और बहस इतने वर्षो बाद आज भी पठनीय और मननीय है। कहने की जरूरत नहीं कि सन 60 के बाद के आलोचकों में जहां तक कविता की आलोचना का प्रदेय है उनमें मलयज की आलोचना काव्यालोचना का आज सर्वश्रेष्ठ और विश्वसनीय मॉडल है।
कवियों में उन्होंने निराला से लेकर अपने समकालीनों तक पर लिखा जिनमें निराला की 'सरोज स्मृति' कविता पर लिखी उनकी आलोचना आज भी मुझे घेरती है-सरोज स्मृति कविता की तरह, एक महान कविता पर लिखी गई महान आलोचना की तरह। मलयज पर कवि शमशेर लिखते हैं- 'वे सतर्कपूर्ण जिरह के एक प्रश्न-पत्र सरीखे थे। जैसे सबकुछ सोच-विचार कर तैयार होकर मिलने आए हों। उनमें कोई हार्दिकता नहीं थी। लगता है जैसे हर समय मेरे अंदर कुछ कुरेद रहे हों।' लक्ष्मीकान्त वर्मा ने जिस 'लघुमानव' की बात की थी और साही ने 'लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर बहस' की जो शुरूआत की थी, वह 'लघुमानव' मलयज के विचार-चिन्तन में कई दिनों तक उपस्थित रहा था।
'संवाद और एकालाप' के 'गोष्ठी-प्रसंग' में 'लघु मानव का प्रश्न' पर उनके विचार दर्ज़ है। वे 'लघुमानव की कल्पना और उसके स्वरूप पर विचार, जिन दो दृष्टियों - सैद्धान्तिक और साहित्यिक से कर रहे थे, उनमें मात्र साहित्यिक संदर्भ में देखने से उत्पन्न समस्याओं की ओर भी उन्होंने हमारा ध्यान दिलाया। वे पचास के दशक के मनुष्य को पहले के मनुष्य से 'बदला हुआ' देख रहे थे। ''सन 50 के बाद से जो जीवन इस देश में आया, वह स्वतंत्रता-पूर्व के जीवन से निश्चय ही भिन्न था। यह जीवन मूल्य-संक्रमण से उत्पन्न अव्यवस्था का जीवन था। इस जीवन से जूझना ही नयी पीढ़ी की नियति थी।
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