महज़ 3 रुपये की दिहाड़ी पर सड़क बिछाने की मज़दूरी करने वाले तेनजिन आज करोड़ों रुपयों का कारोबार करने वाली कंस्ट्रक्शन कंपनी के मालिक हैं
तेनजिन ने काफी समय तक अपने माता-पिता की तरह ही सिर पर कंकरीट और डांबर के टोकरे ढोये हैं ... हिमाचल प्रदेश में जन्मे तेनजिन ने दिल्ली में होज़री कपड़े भी बेचे ... सड़क बिछाने का काम करते-करते कामयाबी की राह पकड़ी और फिर आगे बढ़ते ही चले गए ... तेनजिन ने कदम दर कदम तरक्की की, दिहाड़ी मजदूर से मजदूरों के सुपरवाइज़र बने ... छह सौ रुपये के काम का ठेका लेकर ठेकेदार बने, फिर एक के बाद एक कर हजारों, लाखों और करोड़ों के ठेके लेकर बड़े कारोबारी बन गए ... खुद की कंस्ट्रक्शन कंपनी बनाई, इंडस्ट्री खोली और दिल्ली में होटल भी शुरू किया ... ग़रीब और ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने के मकसद से तेनजिन ने अस्पताल भी खोला ... एक बड़े कारोबारी के साथ-साथ परोपकारी इंसान के तौर पर भी है तेनजिन की ख़ास पहचान है
तेनजिन जब किसी मज़दूर को सड़क बिछाने का काम करता हुआ देखते हैं तो वे उसके पास जाकर उसका हालचाल जानना नहीं भूलते। अगर उन्हें पता चलता है कि किसी मज़दूर को कोई तकलीफ़ है तो वे उसे दूर करने में अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं भी छोड़ते। सड़क बिछाने वाले मज़दूरों और निर्माण-कर्मियों से तेनजिन को काफी लगाव है। वे इन मज़दूरों को अपने दिल के काफी क़रीबी पाते हैं और उनकी परेशानियों को दूर करना अपना फ़र्ज़ समझते हैं। तेनजिन जब कभी किसी भी मज़दूर को मिट्टी, पत्थर ढोता हुआ देखते हैं तो वे बीते वक्त की यादों में खो जाते हैं। कारोबार की दुनिया में खूब धन-दौलत और शोहरत कमाने के साथ-साथ अपनी बेहद ख़ास पहचान बनाने वाले हिमाचल प्रदेश के तेनजिन का मज़दूरों से प्यार कोई रहस्य नहीं। तेनजिन को करीब से जानने वाला हर कोई शख़्स मज़दूरों के प्रति उनकी अनुरक्ति और आसक्ति को महसूस कर सकता है। मज़दूरों के प्रति उनके अनुराग का कारण भी कोई ढकी-छिपी बात नहीं है। वे एक समय मज़दूर थे, वो भी दिहाड़ी मज़दूर । 16 साल की उम्र से उन्होंने मज़दूरी करनी शुरू की थी। सड़कें बिछाने का काम उन्होंने कई दिनों तक किया था। उनके माता-पिता और भाई-बहन भी हिमाचल प्रदेश में मज़दूरी किया करते थे, लेकिन तेनजिन ने मेहनत, संघर्ष और ईमानदारी के दम पर कारोबार किया और बहुत बड़े कारोबारी बने। उन्होंने कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री में खूब नाम कमाया। जिस कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री में उन्होंने मज़दूर का काम किया, उसी इंडस्ट्री में उन्होंने अपनी खुद की कंपनी बनाई और करोड़ों का कारोबार किया। धन-दौलत कमाने के साथ-साथ उन्होंने लोगों की भी खूब मदद की। ज़रूरतमंदों के मददगार के रूप में वे काफी मशहूर हुए।
मिट्टी, पत्थर ढोने वाले एक मज़दूर से करोड़ों का कारोबार करने वाली कंस्ट्रक्शन कंपनी बनाने की तेनजिन की कहानी कामयाबी की अनोखी कहानी है। प्रेरणा देने वाली इस कहानी की शुरुआत हिमाचल प्रदेश से होती है, जहाँ एक शरणार्थी तिब्बती परिवार में उनका जन्म हुआ। तेनजिन का जन्म हिमाचल प्रदेश के खोरखाई गाँव में हुआ था। उनके माता-पिता तिब्बत के रहने वाले थे, लेकिन वहाँ पर बौद्ध-धर्म के अनुयायियों के लिए हालात कुछ इस तरह से बिगड़े कि उन्हें भी दूसरे तिब्बतियों की तरह भारत में आकर शरण लेनी पड़ी थी। तेनजिन के माता-पिता दोनों दिहाड़ी मज़दूर थे। दोनों ने घर-परिवार चलाने और बच्चों की परवरिश करने के लिए हिमाचल प्रदेश में कई दिनों तक सड़क-निर्माण से जुड़े कामकाज में मज़दूरों के तौर पर काम किया था। उन दिनों तेनजिन के परिवार के पास रहने को मकान भी नहीं था। सारा परिवार टेंट में रहता था। चूँकि मजदूरी के लिए अलग-अलग जगह जाना होता था, टेंट की जगह भी अक्सर बदलती जाती थी। जहाँ काम होता, वहीं टेंट खड़ा कर दिया जाता। टेंट में न बिजली होती और न ही पीने का पानी। मूसलाधार बारिश हो या बर्फ़बारी तेनजिन के परिवार को टेंट में ही अपना गुज़र-बसर करना पड़ता था। खराब मौसम में टेंट के उखड़ जाने या फिर उड़ जाने का ख़तरा हमेशा बना रहता। हर काम में जोखिम था। हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में सड़कें बिछाना भी काफी जोखिम भरा काम था। उन दिनों आज के जैसे उपकरण भी नहीं थे। पहाड़ों के बीच रास्ता बनाकर सड़कें बिछाने के दौरान अक्सर मज़दूर दुर्घटना का शिकार हो जाते थे। रोज़ी-रोटी जुटाने की मजबूरी थी इसी वजह से तेनजिन के माता-पिता ख़तरों से भरा काम किया करते थे। तेनजिन बताते हैं, “उन दिनों रोज़ी-रोटी जुटाना भी मुश्किल था। जिस दिन हमारे माँ-बाप को काम नहीं मिलता उस दिन ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पाती थी।”
तेनजिन के परिवार को उस समय राहत मिली जब भारत सरकार ने तिब्बतियों के लिए शरणार्थी शिविर बनाने शुरू किये। तेनजिन के परिवार को मध्यप्रदेश के सरगुजा में जगह मिली। यहाँ पर दूसरे तिब्बतियों की तरह की तेनजिन के माता-पिता को खेती-बाड़ी करने के लिए ज़मीन दी गयी। रहने के लिए मकान भी बनवाये गए। सरगुजा में ही तेनजिन स्कूल जाने लगे। उनका दाख़िला सरकारी स्कूल में करवाया गया। वे अपने बड़े भाई और दो छोटी बहनों के साथ स्कूल जाते थे। उनके माता-पिता खेतों से होने वाली कमाई से घर-परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने लगे थे। लेकिन तिब्बत और हिमाचल के ठंडे मौसम में रहने के आदि हो चुके तेनजिन के माता-पिता को सरगुजा की गर्मी रास नहीं आयी। किसी तरह से परिवार ने सरगुजा में आठ साल वजह गुज़ारे थे। हर साल पड़ने वाली भीषण गर्मी से तंग आकर तेनजिन का परिवार वापस हिमाचल आ गया। इस बार उनके परिवार ने शिमला में अपना डेरा जमाया। एक बार फिर से माता-पिता ने मज़दूरी का काम शुरू किया। चूँकि तेनजिन अब बड़े हो चुके थे उन्होंने भी अपने माता-पिता के साथ काम पर जाना शुरू कर दिया। उन दिनों की यादें ताज़ा करते हुए तेनजिन ने बताया, “मेरी उम्र उस समय 16 साल की थी। मैंने भी मज़दूरी करना शुरू कर दिया था, लेकिन मुझे बड़े लोगों की तरह दिहाड़ी की पूरी रकम नहीं दी जाती थी। मुझे बच्चा करार देकर आधी रकम ही दी जाती। मुझे 3 रुपये रोज़ाना दिए जाते थे।” इन तीन रुपयों के लिए तेनजिन को भी अपने माता-पिता की तरह दिन भर मेहनत करनी पड़ती थी। वे भी दूसरे मज़दूरों की तरह की सड़कें बिछाने का काम करने लगे। सड़क के रास्ते को समतल करना, मिट्टी और पत्थर ढोकर लाना और फिर उन्हें बिछाना, बाद में इन्हीं बिछे हुए पत्थरों पर तार/डाम्बर डालना, जैसे काम करने पड़ते थे तेनजिन को। कई बार सडकों पर हुए गड्ढों को भरने का काम भी सौंपा जाता था।
जैसे-जैसे हिमाचल प्रदेश में सड़कों को बिछाने का काम बढ़ता गया वैसे-वैसे मजदूरी का काम भी बढ़ता गया। सालों की मज़दूरी के बाद तेनजिन को उनकी ईमानदारी और मेहनत की वजह से कुछ शिमला म्युनिसिपल कारपोरेशन से “सुपरवाइज़र’ का काम मिल गया। बतौर ‘सुपरवाइजर’ उनकी ज़िम्मेदारी होती 10 से 15 मज़दूरों के कामकाज की निगरानी करना। अपने ग्रुप के मज़दूरी की हाज़िरी लेना, अलग-अलग कामों की ज़िम्मेदारी अलग-अलग मजदूरों को सौंपना, मज़दूरों के कामकाज का निरीक्षण करना जैसे काम तेनजिन की ड्यूटी का हिस्सा बन गए। ‘सुपरवाइजर’ की ड्यूटी करते हुए तेनजिन के ठेकेदारों के कामकाज का अध्ययन करना शुरू किया। तेनजिन को जल्द ही अहसास हो गया कि वे भी ठेकेदार बन सकते हैं। उन्हें ये भी लगा कि मज़दूरी और सुपरवैज़री से उनके परिवार की ग़रीबी और मुसीबतें दूर नहीं होंगी। उन्होंने ठेकेदार बनने का फैसला कर लिया।
तेनजिन को पहला ठेका 600 रुपये का मिला। ठेका था एक सड़क की ‘ड्रेसिंग’ का काम करने का। इस काम को तेनजिन ने बखूबी निभाया। तेनजिन का भरोसा और भी बढ़ गया। उन्होंने अब ठेकेदारी पर ही पूरा ध्यान देना शुरू किया। चूँकि सरकारी विभागों में उनका पंजीकरण नहीं हुआ था, तेनजिन ठेकेदारों से ही ठेका लेने लगे, यानी वे उप-ठेकेदार बन गए, लेकिन ठेकेदार से काम की रकम सही समय पर न मिलने से तेनजिन को बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा। तेनजिन ने बताया, “ठेकेदारों को तो सरकार से चेक मिल जाते थे, लेकिन वे हमारे रुपये देने में आना-कानी करते थे। मैं लोगों से उधार लेकर उनके काम करवाता था और वो मेरी पेमेंट में देरी करते थे। इससे मुझे नुकसान होने लगा।”
ठेकेदारों के रवैया से तंग आकर तेनजिन ने बतौर ठेकेदार अपना पंजीकरण करवाने का मन बना लिया। उन्होंने स्नोडेनअस्पताल, जोकि इस समय इंदिरा गाँधी मेडिकल कॉलेज के नाम से जाना-जाता था, वहाँ के ठेकों के लिए अपना पंजीकरण करवा लिया। ठेकेदार बन जाने के बाद तेनजिन के रात दुगुनी-दिन चौगुनी तरक्की की। ईमानदारी और समय-सीमा के भीतर शानदार काम करने के लिए तेनजिन हिमाचल प्रदेश के सभी सरकारी विभागों में मशहूर होते चले गए। नए उत्साह से भरे तेनजिन ने हिमाचल सरकार के ठेकों के लिए ‘डी’ श्रेणी में अपना पंजीकरण करवा लिया। इस श्रेणी में ठेकेदारों को पच्चीस हज़ार रुपये तक के काम दिए जाते थे। जैसे-जैसे काम का अनुभव बढ़ता गया, तेनजिन ‘सी’ श्रेणी के ठेकेदार बनने के भी हकदार बन गए। ‘सी’ श्रेणी में पंजीकरण करवाने के बाद तेनजिन सरकार के लिए एक लाख रुपयों तक के काम करने लगे। फिर उन्होंने अपना पंजीकरण ‘बी’ श्रेणी में करवाया और बीस लाख के ठेकों के हकदार बनकर अपने काम और नाम को आगे बढ़ाया। ये सभी ठेके निविदाओं/टेंडर के आधार पर दिए जाते थे। कुछ सालों में ही तेनजिन ‘ए’ श्रेणी के ठेकेदार भी बन गए। अब वे बड़ी-से बड़ी रकम वाले बड़े-बड़े कामों की ज़िम्मेदारी लेने के हकदार बन गए। इसी दौरान तेनजिन ने अपनी खुद की कंस्ट्रक्शन कंपनी भी खोल ली थी, जोब बाद में तेनजिन कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड कहलायी।
बड़ी बात ये रही कि तेनजिन ने अपनी कंपनी के ज़रिये हिमाचल सरकार में बिजली, भवन निर्माण, लोक-निर्माण, शिक्षा, स्वास्थ व चिकित्सा जैसे अलग-अलग विभागों के लिए काम किये। सरकारी ठेके लेने के साथ-साथ तेनजिन ने कई सारी निजी परियोजनाओं का काम भी बखूबी पूरा करवाया। उन्होंने लोगों के मकान, भवन, दुकानें भी बनवाईं। हिमाचल में तेनजिन की कंपनी ने कई सारे होटल, अस्पताल, शिक्षा संस्थान के भवन भी बनवाये हैं। निर्माण-उद्योग में तेनजिन की कंपनी ने खूब धन-दौलत और शोहरत कमाई है। उनकी कंपनी हिमाचल प्रदेश की सबसे बड़ी और मशहूर कंस्ट्रक्शन कंपनियों में एक बन गयी है। कंस्ट्रक्शन कामों के ज़रिए अब तेनजिन सालाना करोड़ों का कारोबार कर रहे हैं।
एक दिहाड़ी मज़दूर से करोड़ों के कारोबारी बन जाने के बावजूद तेनजिन में किसी भी बात को लेकर ज़रा-सा भी घमंड नहीं है। सादगी और सद्व्यवहार उनके आभूषण हैं। वे आज भी ज़मीन से जुड़े हुए हैं। समाज-सेवा उनकी आदत हैं। वे ज़रूरतमंदों के लिए फिक्रमंद रहते हैं। अपने से जितना कुछ हो सकता हैं, वे लोगों की मदद करते हैं। एक कारोबारी के साथ-साथ परोपकारी इंसान के तौर पर भी उनकी पहचान है।
समाज-सेवा के मकसद से ही उन्होंने शिमला में एक बड़ा अस्पताल बनाया है। 50 बिस्तरों वाले इस अस्पताल में वाजिब शुल्क पर चिकित्सा सुविधायें मुहैय्या कराई जाती हैं। अस्पताल बनने का सुझाव उन्हें एक समाज-सेवी ने दिया था। तेनजिन अलग-अलग सेवा-कार्यों के लिए अलग-अलग संस्थाओं को दान दिया करते थे। रक्त-दान लगाने वाले एक समाज-सेवी ने दान की रकम लेते हुए तेनजिन को अपना खुद का अस्पताल शुरू करने का सुझाव दिया था। तेनजिन को ये सुझाव अच्छा लगा और उन्होंने अपने एक डॉक्टर मित्र मारवा से सलाह-मशवरा किया। हिमाचल प्रदेश में एक सर्जन के रूप में काफी शोहरत हासिल कर चुके डॉ. मारवा ने तेनजिन को बिना समय गँवाए अस्पताल शुरू करने की हिदायत दी। अपने दोस्त की बात को मानते हुए तेनजिन ने अस्पताल बनवाने का काम शुरू कर दिया। उसी दौरान शिमला में उनका एक भवन बन रहा था और तेनजिन को अस्पताल बनवाने की जल्दी थी, इसी वजह से उस भवन के तैयार होते ही तेनजिन ने उसे अस्पताल में तब्दील कर दिया। तेनजिन बताते हैं, “मैंने सोचा था कि अस्पताल शुरू करना आसान होगा, लेकिन काम शुरू करने के बाद मुझे पता चला कि अस्पताल बनाना और उसे चलाना आसान नहीं है। भवन के तैयार होते ही मैंने डॉ. पराशर और उनकी पत्नी डॉ नीलम पराशर से मेरा अस्पताल ज्वाइन करने की विनती की। दोनों मान गए और इन्हीं दोनों से हमारा अस्पताल शुरू हुआ। डॉ पराशर मशहूर डॉक्टर हैं और उनकी पत्नी नीलम पैथोलोजिस्ट हैं।”तेनजिन इस बात का ख़ास ख्याल रखते हैं कि अस्पताल में मरीज़ों की हर मायने में सही देख-भाल की जाय। वे डाक्टरों को भी सख्त हिदायत दे चुके हैं कि मरीज़ों के ग़ैर-ज़रूरी टेस्ट और ऑपरेशन न करवाए जाएँ। किसी भी सेवा के लिए वाजिब शुल्क ही लिया जाय। इलाज के लिए अस्पताल आने वाले मरीज़ों का हाल-चाल पूछने तेनजिन खुद उनसे मिलने जाते हैं। मरीज़ों के परिवारवालों से भी मिलकर वे उनकी भी तकलीफ़ें जानते हैं। ग़रीब लोगों को मुफ्त में इलाज करने के निर्देश भी तेनजिन ने अस्पतालवालों को दे रखे हैं। तेनजिन कहते हैं, “मैंने समाज-सेवा के मकसद से अस्पताल खोला है। कंस्ट्रक्शन के काम से जो मुनाफ़ा होता है उसी का एक बड़ा हिस्सा मैं अस्पताल में लगा देता हूँ। अस्पताल से मैं मुनाफ़ा नहीं कमाना चाहता और मुझे ये काम आता भी नहीं है।”
अस्पताल के अलावा तेनजिन ने दिल्ली में एक होटल भी खोला है। उन्होंने शिमला में अपनी एक इंडस्ट्री भी शुरू की है, जिसमें लोहे और लकड़ी का काम होता है। इस कारखाने में मशीनों की मरम्मत का काम भी किया जाता है। मूल रूप से ये कारखाना कंस्ट्रक्शन से जुड़े कामों में मदद के लिए बनाया गया है।
कारोबारी के तौर तेनजिन की एक अलग पहचान हैं। अलग पहचान की वजह उनकी पारदर्शिता है। वे दूसरे कई कारोबारियों के उलट अपने साथियों को ये बता देते हैं कि उन्हें किस काम से कितनी कमाई हो रही है। वे छुपाकर कारोबार करने में विश्वास नहीं रखते। तेनजिन की एक और बड़ी ख़ूबी ये भी है कि वे दिन में 14 से 16 घंटे काम करते हैं। काम चाहे कंस्ट्रक्शन का हो या अस्पताल का, तेनजिन सभी जगह ज़रूरत के हिसाब से समय देते हैं। वे कहते हैं, “मुझे काम करने में मज़ा आता है। मैंने कभी थकावट महसूस नहीं की। मैं लोगों से भी यही कहता हूँ भगवान से जो तुम्हें काम दिया है उसे अच्छे से करो। ये मत सोचो कि दूसरे को क्या काम मिला है। जो तुम्हारा काम है उसे एन्जॉय करो।”
तेनजिन की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है कि वे ख़तरों से नहीं घबराते हैं। जहाँ कहीं कोई ख़तरे वाला काम होता है वे सबसे आगे होते हैं। कंस्ट्रक्शन के काम में बारिश पड़ने या फिर बर्फ़बारी होने से काम जब जोखिम भरा हो जाता है, तब तेनजिन खुद साईट पार जाकर मज़दूरों की मदद करते हैं। भगवान और दलाई लामा पर अटूट आस्था और विश्वास रखने वाले तेनजिन कहते हैं, “मुझे डर नहीं लगता है। मुझे ऊपरवाले पर विश्वास है। जब तक उनका आशीर्वाद है मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं होगी।” एक सवाल के जवाब में तेनजिन के कहा,“मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं यहाँ तक पहुँचूँगा । मैं बस मेहनत करता गया। मैं शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ हिमाचल प्रदेश की सरकार का और यहाँ की जनता का, जिन्होंने मुझपर भरोसा किया और मुझे काम दिया। मैं आज जो भी हूँ इन्हीं लोगों की वजह से हूँ।”
तेनजिन के परिवार में उनकी पत्नी दो बेटे और दो बेटियाँ हैं। वे कहते हैं कि उनके साथ काम करने वाला हर मज़दूर, डाक्टर, हर कर्मचारी उनके परिवार का हिस्सा है। कामयाबी की बेहद शानदार कहानी के नायक होने के बावजूद उन्हें घमंड छू तक नहीं पाया है। वे सादगी और विनम्रता की प्रतिमूर्ति बने हुए हैं। वे कहते हैं, “मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूँ। मैं छोटा आदमी हूँ। ईमानदारी से काम करता हूँ। लोगों की सेवा करता रहूँ यही मैं चाहता हूँ।”
अस्पताल में हुई एक बेहद ख़ास मुलाकात के दौरान तेनजिन ने हमें एक ऐसा किस्सा भी सुनाया, जोकि उनके मुताबिक उन्होंने अभी तक किसी को भी नहीं बताया है। तेनजिन का परिवार जब हिमाचल प्रदेश में मज़दूरी का काम किया करता था तब सर्दी के मौसम में सारा परिवार दिल्ली चला जाता था। हिमाचल में सर्दी के दौरान कड़ाके की ठंड होती थी और कई दिनों तक आसमान से बर्फ भी गिरती थी। सर्दी में अक्सर कंस्ट्रक्शन का काम बंद हो जाता था और रोज़ी-रोटी की तलाश में परिवार दिल्ली का रुख करता था। दिल्ली में तेनजिन के माता-पिता और भाई-बहन एक कारोबारी से हर सुबह होज़री कपड़े खरीदकर लोगों में बेचते थे। इससे से घर-परिवार चलता था। कई सालों तक तेनजिन के परिवार को रोज़ी-रोटी के लिए शिमला और दिल्ली के बीच आना-जाना पड़ता था।
तेनजिन को बचपन से ही सुबह उठकर दौड़ने की आदत थी। दिल्ली-प्रवास के दौरान भी वे हर दिन सुबह उठकर दौड़ते थे। एक दिन सर्दी वाली सुबह दिल्ली में कोहरा छाया हुआ था। कोहरे और ठंड की परवाह किये बिना तेनजिन अपनी आदत के मुताबिक सुबह-सुबह ही दौड़ पर निकल पड़े। कुछ किलोमीटर तक तो कोई भी शख्स उन्हें नज़र ही नहीं आया, लेकिन तेनजिन को अचानक कुछ दूरी पर एक बहुत ही विशालकाय कुछ चीज़ नज़र आयी। कोहरे की वजह से वे जान नहीं पा रहे थे कि वो क्या चीज़ है, लेकिन तेनजिन नहीं रुके और दौड़ते रहे। जैसे-जैसे तेनजिन उस चीज़ के करीब पहुँच रहे थे, वो चीज़ उन्हें और भी विशाल और भयवाह दिखाई देने लगी थी। किशोर तेनजिन को लगा कि वो कोई भूत है। इस शंका के बावजूद तेनजिन ने दौड़ नहीं रोकी और आगे बढ़ते गए, लेकिन जैसे-जैसे वो आगे बढ़ रहे थे उनके दिल की धड़कनें तेज़ होती जा रही थीं। तेनजिन जैसे-जैसे उसे चीज़ के नज़दीक बढ़ रहे थे, उनके लिए नज़ारा और भी डरावना होता जा रहा था। तेनजिन मानने लगे थे कि वो भूत ही है, लेकिन दौड़ते हुए ही तेनजिन ने फैसला कर लिया कि वे भूत से नहीं डरेंगे और उसके सामने से ही गुज़रेंगे। इसी फैसले के साथ उनकी दौड़ और भी तेज़ हुई और तब वे उस चीज़ के पास पहुंचे तो उन्हें अहसास हुआ एक वो एक महिला थी और उसकी ऊंची कद-काटी की वजह से वो कोहरे में भयावह लग रही थी। उस महिला से पास से गुज़रते समय तेनजिन को ये भी अहसास हुआ कि वो महिला भी कोहरे में उनको देखकर घबरा गयी थी, जैसे ही वे दौड़कर उसके पार चले गए उसने भी राहत की सांस ली थी। अब तक रहस्य रही इस घटना को बताने के बाद तेनजिन के कहा, “उस दिन से मैं फिर कभी नहीं डरा। उसी दिन मेरा सारा डर भाग गया। अगर मैं उस दिन डरकर पीछे मुड़ जाता तो शायाद हमेशा डरता ही रहता। उस महिला को पार करने के बाद मुझे पता चला कि आखिर वो भी मुझे देखकर डर रही थी। मुझे यकीन हो गया कि अगर आप डर से डरोगे तो वो आपको डराएगा और उससे नहीं डरोगे तो वो डर जाएगा।”