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खलील अहमद, जिन्होंने उद्यमी बनने के लिए छोड़ी मर्सेडीज़ कार और छोड़ा आलिशान बंग्ला

उद्यमी बनने के लिए छोड़ी आराम वाली ज़िंदगी ... ओमान में नौकरी से हुई कमाई की मोटी रक़म लगा दी कंपनी में ... जोखिम उठाया और बहुत कुछ दांव पर लगाया ... परिस्थितियां थीं बिलकुल विपरीत और हर कदम पर थी चुनौती ... अपमान सहा, धक्के खाये, लोगों ने किया हतोत्साहित ... लेकिन जी छोटा नहीं किया और कोशिशें जारी रखीं ... खलील अहमद ने शांता बॉयोटेक्निक्स को कामयाब बनने में निभाया बड़ा किरदार ... बतौर उद्यमी और कारोबारी लिखी कामयाबी की नयी कहानी ... धन-दौलत और शोहरत कमा लेने के बाद अब समाज-सेवा में किया है खुद को समर्पित 

खलील अहमद, जिन्होंने उद्यमी बनने के लिए छोड़ी मर्सेडीज़ कार और छोड़ा आलिशान बंग्ला

Saturday May 28, 2016 , 15 min Read

सभी जानकार मानते और कहते हैं कि भारत में बॉयो-टेक्नोलॉजी की कहानी शांता बॉयोटेक्निक्स से शुरू होती है। हैदराबाद की इस कंपनी ने जो शानदार काम किया उससे भारत में नयी और सकारात्मक क्रांति आयी। देश ही नहीं बल्कि दुनिया-भर में करोड़ों गरीब और ज़रूरतमंद लोगों को शांता बॉयोटेक्निक्स के टीकों से लाभ हुआ। शांता बॉयोटेक्निक्स की वजह से ही खतरनाक और जानलेवा बीमारियों से बचाने वाले टीके आम आदमी की पहुँच में आ पाए थे। इस हैदराबादी कंपनी के बाज़ार में उतरने से पहले ये टीके बहुत महंगे बिकते थे और सिर्फ अमीर लोग ही इसे खरीदने की क्षमता रखते थे। शांता बॉयोटेक्निक्स ने करोड़ों बच्चों को खतनाक बीमारियों का शिकार होने से बचाया है। 

शांता बॉयोटेक्निक्स की ऐतिहासिक कामयाबी में बड़ी भूमिका खलील अहमद की भी है। खलील अहमद ने उस समय तक कि बचत की अपनी सारी रकम शांता बॉयोटेक्निक्स में लगा दी थी। वे कंपनी के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर बनाए गए थे। बड़े मुश्किल-भरे हालात में उन्होंने कंपनी को खड़ा करने और उसे कामयाबी की राह पर ले जाने में अपना अनमोल योगदान दिया था। इसी कंपनी से ही वे उद्यमी भी बने थे। बतौर उद्यमी उन्होंने जो कामयाबी हासिल की वो एक गज़ब की मिसाल है। खलील अहमद की कामयाबी की कहानी में लोगों के लिए कई सारे संदेश छुपे हुए हैं। एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्म लेने के बाद भी किस तरह से खलील अहमद ने उद्यमिता दिखाई और कारोबार किया वो प्रेरणा लेने का एक शानदार जरिया है। 

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खलील अहमद की कामयाबी की कहानी मुंबई से शुरू होती है। वैसे तो परिवार मूल रूप से कर्नाटक के मंगलौर का रहने वाला था , लेकिन पिता की सरकारी नौकरी की वजह से परिवार मुंबई आ गया था। पिता भारतीय रेलवे में काम करते थे। घर-परिवार चलाने में पिता की मदद करने के मकसद से माँ दूसरों के कपड़े भी सिलती थीं। साधारण मध्यम-वर्गीय परिवार था। परिवार पिता को रेलवे द्वारा अलॉट किये गए फ्लैट में रहता। 

पिता की सोच अलग थी। वे नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे भी सरकारी नौकरी करें। उन्हें लगता था कि समय पर मिलने वाली तनख्वा, रहने के लिए दिए जाने वाले मकान और रिटायरमेंट पर मिलने वाली पेंशन को देखकर उनके बच्चे भी सरकारी मुलाज़िम बनने की ही सोचेंगे। इसी वजह से पिता हमेशा अपने बच्चों को सरकारी नौकरी के पीछे न पड़ने और इससे बाहर की दुनिया में बड़ा काम करने की हिदायत देते थे। पिता की बातों का असर खलील अहमद पर भी पड़ा। स्कूल - कालेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने मुंबई में एक कंसल्टंसी कंपनी में काम करना शुरू किया। यहीं पर काम करते हुए उन्हें ओमान जाने का मौका मिला। ओमान में उन्हें वहां के विदेश मंत्री के सहायक के सहायक की नौकरी मिली थी। ओमान में खलील अहमद ने खूब मन लगाकर काम दिया। अपनी काबिलियत से सभी को प्रभावित किया। उनकी तरक्की होती चली गयी। वे विदेश मंत्री के सहायक बने और फिर आगे चलकर बिज़नेस मैनेजर। एक समय ऐसा आया जब विदेश मंत्री के सारे कारोबार को देखने-संभालने की ज़िम्मेदारी खलील अहमद के कंधों पर आ गयी। इस ज़िम्मेदारी को भी वे बखूबी निभाने लगे। इसी दौरान 1993 में खलील अहमद कारोबार के सिलसिले में भारत आये। वे उस समय ओमान के विदेश मंत्री के बिज़नेस मैनेजर थे। इरादा निजी हवाई जहाज़ सेवा शुरू करने का था। 


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हवाई यात्राओं के कारोबार की बारीकियाँ समझने वे मुंबई पहुंचे थे। मुंबई में कुछ दोस्तों ने खलील अहमद को हैदराबाद में बॉयो-टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में शुरू किये जा रहे एक प्रोजेक्ट के बारे में बताया। उन्हें ये प्रॉजेक्ट पसंद आया। इसके बाद वे हैदराबाद आये और उन्होंने इस प्रोजेक्ट को शुरू करने वाले वरप्रसाद रेड्डी से मुलाकात की। ये मुलाक़ात एक ऐतिहासिक यात्रा की शुरुआत थी। ऐसी यात्रा जिससे क्रांति आयी। ऐसी क्रांति जिसकी वजह से भारत में खतरनाक और जानलेवा बीमारियों से बचाने वाले टीके बनने लगे। भारत में इस तरह की टीके बनना एक बड़ी कामयाबी तो थी ही इन टीकों को आम आदमी की पहुँच में लाना सबसे बड़ी कामयाबी थी। एक बेहद ख़ास मुलाकात में वरप्रसाद रेड्डी से पहली मुलाकात की यादें ताज़ा करते हुए खलील अहमद ने कहा," मुझे वरप्रसाद रेड्डी बहुत पसंद आये। उनकी बातें पसंद आईं। इस गज़ब का जूनून था उनमें। काम के प्रति जोश था।"

वरप्रसाद रेड्डी से मिलने के बाद खलील अहमद वापस ओमान चले गए। वहाँ उन्होंने विदेश मंत्री को अपनी भारत-यात्रा के अनुभव बताये। वरप्रसाद रेड्डी के बॉयोटेक्नोलॉजी प्रोजेक्ट के बारे में भी बताया। मंत्री को भी प्रोजेक्ट बहुत पसंद आया। मंत्री ने फैसला कर लिया कि वे भी इस प्रोजेक्ट से जुड़ेंगे। ओमान के विदेश मंत्री की इस प्रोजेक्ट में दिलचस्पी की एक ख़ास वजह थी। मंत्री के कुछ रिश्तेदार और जान-पहचान के कई लोग हेपेटाइटिस-बी का शिकार थे। बीमारी के इलाज के लिए उन्हें अमेरिका जाना पड़ता था। मंत्री जानते थे कि बीमारी का इलाज बहुत खर्चीला है। उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि अगर भारत में हेपेटाइटिस-बी से बचाने वाला टीका बन गया तो लोगों की बहुत बड़ी मुश्किल दूर हो जाएगी। लोगों को आसानी से और वो भी वाजिब दाम पर टीका मिलेगा।

ओमान के विदेश मंत्री हैदराबाद आये। खलील अहमद उनके साथ थे। वरप्रसाद रेड्डी से उनकी मुलाक़ात हुई। मंत्री को भी भरोसा हुआ कि वरप्रसाद रेड्डी बहुत अच्छे आदमी हैं। उनकी टीम भी अच्छी है। वे जान गए कि अगर प्रोजेक्ट कामयाब हुआ तो इसका समाज पर बहुत ही अच्छा असर पडेगा। गरीब लोगों को बहुत फायदा पहुंचेगा। विदेश मंत्री ने ठान ली कि वे भी इस सामजिक क्रांति में अपना योगदान देंगे। नतीजा ये हुआ कि मंत्री ने इस बॉयोटेक्नोलॉजी प्रोजेक्ट में निवेश किया। 


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खलील अहमद ने बताया कि उन दिनों वे अपने वतन यानी भारत वापस आना चाहते थे। उन्हें बॉयोटेक्नोलॉजी के इस प्रोजेक्ट में उम्मीद नज़र आयी। खलील अहमद के मन में ये इच्छा भी जगी कि वे खुद भी अपनी कमाई इस प्रोजेक्ट में लगाएँ। वे कहते हैं,"मुझमें एंटरप्रेन्योर बनने का कीड़ा था। मुझे लगा कि इस प्रोजेक्ट के ज़रिये मैं भी एंटरप्रेन्योर बन सकता हूँ। मुझे इसमें बहुत संभावनाएं नज़र आईं थीं।" इसके बाद उन्होंने मंत्री को अपनी ख्वाहिश भी बताई। इस पर मंत्री हस पड़े थे। खलील अहमद ने बताया,"मंत्री ने मुझसे पूछा था - आप क्यों रिस्क लेना चाहते हैं। आपकी उम्र भी नहीं रिस्क लेने की। सब कुछ ठीक चल रहा है, फिर जोखिम उठाने का क्या फायदा।" मंत्री की ये बात सही थी। ओमान में खलील अहमद को कोई तकलीफ नहीं थी। तरक्कीयाफ्ता ज़िंदगी थी। ऐशो-आराम थे। रहने को आलिशान बंगला था। घूमने-फिरने ने लिए मर्सेडीज़ की कार थी। बिज़नेस क्लास में हवाई सफर हुआ करते थे। लेकिन, खलील अहमद का मन बेताब था वतन लौटने को। इतना ही नहीं दिल-दिमाग दोनों -धकेल रहे थे उद्यमी बनने को। ओमान के विदेश मंत्री भी खलील अहमद के मन की बात को समझ गए थे। उन्होंने खलील अहमद को भारत वापस जाने की इज़ाज़त दे दी। इज़ाज़त मिलने पर खलील अहमद की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। नए सपने लिए, नयी उम्मीदों को संजोए, मन में विश्वास के साथ खलील अहमद भारत लौटे। 

लेकिन, चुनौतियाँ और कठिनाइयाँ अपनी बाहें पसारे भारत में उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थीं। भारत पहुँचते ही खलील अहमद की ज़िंदगी फिर से बदल गयी। मर्सेडीज़ कार की जगह फ़िएट पद्मिनी कार ने ली। बिज़नेस क्लास की यात्राएं बंद हुईं। मकान भी ओमान जितना बड़ा और आलिशान नहीं रहा। सबसे बड़ी तबदीली दफ्तर की थी। ओमान के विदेश मंत्री के भव्य और सभी सुविधाओं से लैस दफ्तर से खलील अहमद सीधे एक छोटे से दफ्तर में आ गए थे। उन दिनों की यादें ताज़ा करते हुए खलील अहमद ने बताया,

" हमने एक छोटा-सा दफ़्तर लिया था। दफ्तर के नाम पर बस एक कमरा था। हैदराबाद में जुबिली हिल्स के रोड नंबर 10 पर हमारा ये दफ्तर था। वरप्रसाद रेड्डी, हमारे फाइनेंसियल एडवाइजर और मैं एक ही कमरे में बैठकर काम करते थे।"


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खलील अहमद ने अपनी अब तक की कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा बॉयोटेक्नोलॉजी प्रोजेक्ट में लगा दिया था। उन्हें शांता बॉयोटेक्निक्स में एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर बनाया गया था। वे कंपनी के फुलटाइम डायरेक्टर थे। बतौर कार्यकारी निदेशक जब खलील अहमद ने शांता बॉयोटेक्निक्स के लिए काम करना शुरू किया, उन्हें अहसास हो गया कि परिस्थितियां विपरीत हैं। सामने चुनौतियां बहुत ही बड़ी हैं। रास्ता आसान नहीं बल्कि बहुत ही मुश्किल है, लेकिन इरादे नेक थे, हौसले भी बुलंद थे और जोखिम भी उठा लिया था, कोशिशें जारी रहीं। खलील अहमद ने बताया, "शांता बॉयोटेक्निक्स की पहली प्रयोगशाला उस्मानिया विश्वविद्यालय के सूक्ष्म-जीव विज्ञान विभाग यानी माइक्रोबायोलॉजी डिपार्टमेंट में बनी थी। विभाग की हालत बहुत खराब थी। प्रयोगशाला 'लीकिंग टॉयलेट' के बगल में थी। शुरुआत गीता शर्मा के नेतृत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम ने की थी। करीब एक साल तक 'लीकिंग टॉयलेट' के बगल में काम करने के बाद शांता बॉयोटेक्निक्स के वैज्ञानिकों को काम करने के लिए एक बहुत बढ़िया जगह मिली थी। शांता बॉयोटेक्निक्स का सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी) से करार हो गया। उस समय सीसीएमबी की गिनती भारत के सबसे अच्छे और मशहूर अनुसंधान केंद्रों में होती थी। सुविधायें यहाँ बहुत ही अच्छी थीं। सीसीएमबी में डेढ़ साल काम करने के बाद शांता बॉयोटेक्निक्स के कर्मचारियों को अपनी खुद की जगह और प्रयोगशाला मिल गयी। कंपनी ने अपना खुद का शोध-केंद्र बना लिया था। हैदराबाद से कुछ दूर मेडचल इलाके में शांता बॉयोटेक्निक्स का ये अनुसंधान केंद्र बनाया गया था।"

ऐसा भी नहीं था कि सिर्फ अनुसंधान के लिए अच्छी-सी जगह पाने में ही दिक्कतें आयी थीं। मुसीबतें और भी थीं। शांता बॉयोटेक्निक्स में जो निवेश हुआ था उसमें से बड़ी रकम अनुसंधान पर ही लगाई गयी थी। फिर भी अनुसंधान के लिए और भी तगड़ी रकम की ज़रुरत थी। कंपनी के दूसरे कामों के लिए भी रुपयों की ज़रुरत महसूस की जाने लगी थी। अनुसंधान को अंजाम तक पहुँचाने के लिए कंपनी के संस्थापक वरप्रसाद रेड्डी और कार्यकारी निदेशक खलील अहमद ने बैंकों का दरवाज़ा खटखटाना शुरू किया, लेकिन बैंकों के कर्ज़ा लेने की सारी कोशिशें नाकाम रहीं। बैंकों के चक्कर काटने में बीते उन दिनों में हुई पीड़ा और दर्द को हमारे साथ साझा करते हुए खलील अहमद ने कहा,"हैदराबाद में ऐसा कोई बैंक नहीं था जहाँ हम नहीं गए थे। हर बैंक ने हमारे एप्लीकेशन को रिजेक्ट कर दिया था। हमें अपमानित भी किया गया। कई जगह हमें धक्के मारकर बाहर निकाला गया।" खलील अहमद ने आगे बताया,"वरप्रसाद रेड्डी इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर थे। मैंने मैनेजमेंट और मार्केटिंग का काम किया था। बैंकवालों का यही सवाल होता कि एक इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर और एक मार्केटिंग का आदमी बॉयोटेक्नोलॉजी में कैसे काम करेगा।"

खलील अहमद इसे खुदा की इनायत ही मानते है कि अनुसंधान और दूसरे ज़रूरी कामों के लिए शांता बॉयोटेक्निक्स को रुपये मिल गए थे। इस बार भी मदद ओमान से ही आयी थी। विदेश मंत्री ने अपनी निजी गारंटी देकर ओमान से शांता बॉयोटेक्निक्स को कर्ज़ा दिलवाया था। 

मेहनत नहीं रुकी थी। कोशिशें लगातार जारी थी। अनुसंधान ज़ोरों पर था। शांता बॉयोटेक्निक्स के हर कर्मचारी और वैज्ञानिक ने खुद को 'टीका बनने के मिशन' में समर्पित कर दिया था। यही वजह थी कि नतीजा अच्छा निकला। वरप्रसाद रेड्डी का सपना सच हुआ। खलील अहमद का मकसद कामयाब हुआ। शांता बॉयोटेक्निक्स ने हेपेटाइटिस-बी से बचाने वाला टीका भारत में बना लिया। ये एक बहुत बड़ी जीत थी। भारत में नयी क्रांति की शुरुआत थी। भारत में बॉयोटेक्नोलॉजी और जेनेटिक इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अपना धमाकेदार कदम रखा था। इन सबसे से बड़ी बात एक और थी। जानलेवा और खतरनाक बीमारी हेपेटाइटिस-बी से बचने के लिए ज़रूरी टीका अब आम आदमी की पहुँच में आ गया था। इस कामयाबी से पहले भारत में विदेशी कंपनियां ने एक टीके की कीमत आठ सौ रुपये से ज्यादा तय की थी। शांता बॉयोटेक्निक्स ने इसी टीके को डेढ़ सौ रुपये में बेचना शुरू किया था। खलील अहमद ने बताया कि इस कामयाबी के बाद भी तकलीफें जारी रहीं। उनके शब्दों में,"कामयाबी आसान नहीं थी। लेकिन इसके बाद भी दिक्कतें आईं। टीका बना लेने के बाद भी बैंकों ने हमें कर्ज़ा नहीं दिया। बैंकवालों को लगता था कि हमने 'फ्लूक' में टीका बना लिया है। बैंकवाले कहते थे कि हमने टीका बनाने में कामयाबी तो हासिल कर ली है, लेकिन हम मार्केटिंग में फेल हो जाएँगे। एक शख्स ने तो ये कहा कि - यू विल बी किल्ड इन मार्केटिंग"।निराश करने वाले इन शब्दों का कुछ असर तो ज़रूर पड़ा था, लेकिन खलील अहमद ने हिम्मत नहीं हारी। वरप्रसाद रेड्डी, खलील अहमद और उनकी सारी टीम ने वही पुराने जोश और इरादों के साथ काम जारी रखा।

इसी बीच मार्केटिंग में आ रही चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए वरप्रसाद रेड्डी और खलील अहमद ने मशहूर फार्मा कम्पनी डॉ रेड्डीज़ लैब से समझौता करने की सोची। बातचीत शुरू हुई। करार होने की कगार पर पहुँचा, जिस मीटिंग में समझौता तय हो जाना था उस बैठक में ऐसा कुछ हुआ कि वरप्रसाद रेड्डी और खलील अहमद ने वॉक-आउट कर दिया। उस घटना का ज़िक्र करते हुए खलील अहमद ने बताया,

"करार लगभग हो गया, लेकिन कुछ ऐसी शर्तें थी जिसकी वजह से हमने उस मीटिंग से वाक-आउट कर दिया था। रात के करीब साढ़े ग्यारह बजे अमीरपेट में एक चोराहे पर वरप्रसाद रेड्डी और मैंने ये फैसला लिया था कि हम शांता बॉयोटेक्निक्स को इंडिपेंडेंट ही रखेंगे।" अपने उस फैसले पर खलील अहमद फूले नहीं समाते। खुशी और फक्र से भरी आवाज़ और अपने ख़ास अंदाज़ में उन्होंने कहा,"अगर वो करार हो जाता तो हमारा नामोनिशान नहीं होता। हमारी हस्ती शायद मीट गयी होती। हम अनजान होते।"

अमीरपेट के एक चोराहे पर लिया गया वो फैसला आगे चलकर ऐतिहासिक साबित हुआ। डॉ रेड्डीज़ लैब से करार की संभावनाओं को ख़त्म करने के बाद वरप्रसाद रेड्डी और खलील अहमद ने अपनी टीम के साथ नए सिरे से काम शुरू किया। इस टीम ने कुछ डॉक्टरों की मदद से लोगों में हेपेटाइटिस-बी से बचने के उपायों के बारे में जागरूकता लाना शुरू किया। लायंस क्लब, रोटरी क्लब और दूसरे गैर-सरकारी संस्थाओं की मदद ली। सामूहिक टीकाकरण कार्यक्रम किये। सेल्स और मार्केटिंग के लिए नयी-नयी तरकीबें अपनाई। इन सब की वजह से जल्द शांता बॉयोटेक्निक्स का टीका लोकप्रिय हो गया। लोगों अपने बच्चों को हेपेटाइटिस-बी से बचाने के वरप्रसाद रेड्डी और खलील अहमद की टीम द्वारा बनाए टीके लगवाने लगे। 

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खलील अहमद ने बताया,"शुरू में तो हमें डाक्टरों ने नज़रअंदाज़ किया, लेकिन जैसे-जैसे हमारी लोकप्रियता बढ़ती गयी, उन्होंने भी हमारे उत्पादों को प्रिस्क्राइब करना शुरू किया। कुछ ही दिनों में शांता बॉयोटेक्निक्स का मार्केट शेयर चालीस फीसदी हो गया। इसके बाद हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा।"

शांता बॉयोटेक्निक्स ने जो किया वो देश और दुनिया में बड़ी मिसाल बनी। हेपेटाइटिस-बी के बाद शांता बायोटेक ने दूसरी जानलेवा और भयानक बीमारियों से बचाने वाले टीके बनाये। दुनिया के अलग-अलग देशों ने ये टीके मंगवाए और अपने यहाँ ज़रूरतमंद लोगों को लगवाए। शांता बॉयोटेक्निक्स को यूनीसेफ से भी आर्डर मिले। कम्पनी ने खूब शोहरत हासिल की। खूब मुनाफा भी कमाया। कंपनी में निवेश करने वाले ही नहीं, बल्कि सभी कर्मचारी भी मालामाल हो गए। आगे चलकर सनोफी नाम की एक मशहूर कंपनी ने शांता बॉयोटेक्निक्स के शेयरधारकों को भारी कीमत देकर उनके शेयर खरीदे थे। खास बात ये थी कि कंपनी के संस्थापकों ने सभी कर्मचारियों को शेयर दिए थे और सभी अपने शेयर सनोफी को बेचकर तगड़ी रकम के मालिक बन गए। एक सवाल के जवाब में खलील अहमद ने कहा,"शोहरत, धन-दौलत मिली, ये तो अच्छी बात थी। लेकिन शांता बॉयोटेक्निक्स में काम करते हुए जो तस्सली और खुशी मिली ज़िंदगी में वही सब कुछ है मेरे लिए। वैसी तस्सली मुझे कहीं नहीं मिली। "

अप्रैल 2009 में खलील अहमद ने शांता बॉयोटेक्निक्स को छोड़ दिया। सनोफी के कंपनी को अपने हाथों में लेने के बाद कामकाज के कुछ तौर-तरीके बदले थे। खलील अहमद ने बताया,"मुझे भी लगा कि हर काम मैनेजमेंट इनफार्मेशन सिस्टम के तहत हो रहा है। मुझे एमईएस रिपोर्ट बनाने में मज़ा नहीं आ रहा था। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी जिस तरह से काम करती थी, उस तरह से शांता बॉयोटेक्निक्स में भी काम होने लगा था। मैंने कंपनी छोड़ दी।" चूँकि कंपनी छोड़ते वक़्त खलील अहमद ने नॉन-कॉम्पिटिटिव एग्रीमेंट किया था वे कंपनी के कामकाज से जुड़े किसी भी क्षेत्र में काम नहीं कर सकते थे। ये करार पांच साल का था। और इस नॉन-कॉम्पिटिटिव एग्रीमेंट के लिए भी सनोफी ने खलील अहमद को मोटी रकम दी थी। 

शांता बॉयोटेक्निक्स छोड़ने के बाद खलील अहमद ने बिजली उत्पादन के क्षेत्र में अपने कदम बढ़ाये। उन्होंने अपने दोस्तों - किशोर और शास्त्री की कंपनी केएसके एनर्जी वेंचर्स में निवेश किया। आगे चलकर उन्होंने "हैदराबाद हॉउस" को ख़रीदा और फ़ूड बिज़नेस में अपने पाँव जमाने शुरू किया। खलील अहमद ने फ़ूड क्राफ्टर्स एंड सर्विसेज कंपनी बनाई और इसी के ज़रिये पकवानों का कारोबार कर रहे हैं। उन्होंने मशहूर शेफ़ प्रदीप खोसला को कम्पनी का सीईओ बनाया है। प्रदीप खोसला ने कई सालों तक ताज ग्रुप को अपनी सेवाएँ दी हैं।

खलील अहमद ने बतौर उद्यमी, निवेशक और कारोबारी खूब नाम कमाया है, लेकिन इन दिनों वे बतौर समाज-सेवी के रूप में बेहद लोकप्रिय हैं। वे अपना ज्यादा समय समाज-सेवा में लगा रहे हैं। अलग-अलग समाज सेवी और गैर-सरकारी संस्थाओं से वे जुड़े हुए हैं। शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ जैसे कई क्षेत्रों में वे अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। एक सवाल के जवाब में खलील अहमद ने कहा,"समाज से मुझे बहुत कुछ मिला। अब मेरी ज़िम्मेदारी समाज को देने की है। मैं मानता हूँ कि सबका विकास होना चाहिए। देश में बहुत लोग गरीब और बेरोज़गार हैं। सभी लोगों को शिक्षा का अवसर भी मिलना चाहिए। इसी वजह से मैं गरीब बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम करना चाहता हूँ। मुझसे से जो कुछ होगा मैं करूंगा।"

ये पूछे जाने पर कि उन्हें प्रेरणा कहाँ से मिलती है, खलील अहमद ने अपनी ज़िंदगी के सबसे मुश्किल-भरे दिनों के बारे में बताया। उन्होंने कहा,"मेरा बेटा हीमोफीलिया का शिकार था। ये जेनेटिक बीमारी मानी जाती है। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि जब माँ-बाप दोनों को कोई परेशानी नहीं तब बेटे को ये कैसे हो गया। मैं बहुत परेशान रहने लगा था। एक दिन मेरे बेटे को ब्रेन हैमरेज हो गया। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसकी हालत देखकर डर लगने लगा था कि वो हमारा साथ छोड़ देगा, लेकिन खुदा की मेहरबानी थी कि वो बच गया। आज वो डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा है। मैं उसे जब भी देखता हूँ , मुझे हिम्मत मिलती है। उसी को देखकर खुशी भी मिलती और काम करने की ताकत भी।"