'यायावर' रमेश कुंतल मेघ को हिंदी का साहित्य अकादमी सम्मान
वह कार्ल मार्क्स के ध्यान-शिष्य और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अकिंचन शिष्य माने जाते हैं। सौन्दर्यबोध शास्त्र, देहभाषा, मिथक आलेखकार, समाजवैज्ञानिक वैश्विक दृष्टिकोण के विनायक-अनुगामी, आलोचिन्तक मेघ की 'विश्वमिथकसरित्सागर' कृति को इस बार अकादमी ने सम्मान के लिए चुना है...
उक्त रचना का आकार ग्रीक महाकाव्यद्वय ‘इलियेड’ तथा ‘ओडिसी’ से बड़ा है। इनके अनुकीर्तन से ही लेखक ने इस उक्त विषय की इस पहली संहिता का नामकरण ‘विश्वमिथकसरित्सागर’ किया है।
इसमें भूमंडल के लगभग पैंतीस देशों तथा नौ संस्कृतियों के मिथकयानों एवं लोकयानों की एकान्वित मिथक-आलेखकारी है। साथ में मिथक-चित्र-आलेखकारी भी।
विविधता भरे भारत के बहुल भाषी साहित्य को राष्ट्रीय चेहरा प्रदान करने वाली संस्था साहित्य अकादमी ने इस बार हिन्दी के वयोवृद्ध आलोचक एवं सुप्रसिद्ध विद्वान रमेश कुंतल मेघ की कृति 'विश्वमिथकसरित्सागर' को पुरस्कार के लिए चुना है। अपने ढंग के निराले साहित्यकार मेघ जाति-धर्म-प्रान्त से मुक्त, देश-विदेश के तमाम शहरों के वसनीक यायावर रहे हैं। भौतिक-गणित-रसायन शास्त्र त्रयी में बी.एससी और साहित्य में पीएच. डी. करने के बाद उन्होंने बिहार की आरा यूनिवर्सिटी, पंजाब की चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी, जालंधर के रीजनल सेंटर एसडी कॉलेज, अमृतसर की गुरुनानकदेव यूनिवर्सिटी, अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ आरकंसास पाइनब्लक आदि में अध्यापन किया।
वह कार्ल मार्क्स के ध्यान-शिष्य और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अकिंचन शिष्य माने जाते हैं। सौन्दर्यबोध शास्त्र, देहभाषा, मिथक आलेखकार, समाजवैज्ञानिक वैश्विक दृष्टिकोण के विनायक-अनुगामी, आलोचिन्तक मेघ की 'विश्वमिथकसरित्सागर' कृति को इस बार अकादमी ने सम्मान के लिए चुना है। मेघ की मुख्य कृतियाँ मिथक और स्वप्न, आधुनिकता बोध और आधुनिकीकरण, तुलसी: आधुनिक वातायन से, मध्ययुगीन रस दर्शन और समकालीन सौन्दर्य बोध, क्योंकि समय एक शब्द है, कला शास्त्र और मध्ययुगीन भाषिकी क्रांतियां, सौन्दर्य-मूल्य और मूल्यांकन, अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा, साक्षी है सौन्दर्य प्राश्निक, वाग्मी हो लो!, मन खंजन किनके? कामायनी पर नई किताब, खिड़कियों पर आकाशदीप आदि हैं।
ग्यारहवीं शताब्दी में काश्मीर के सोमदेव भट्ट ने ‘कथासरित्सागर’ की रचना की थी। उनका उद्देश्य रानी को प्रसन्न करना था। उक्त रचना का आकार ग्रीक महाकाव्यद्वय ‘इलियेड’ तथा ‘ओडिसी’ से बड़ा है। इनके अनुकीर्तन से ही लेखक ने इस उक्त विषय की इस पहली संहिता का नामकरण ‘विश्वमिथकसरित्सागर’ किया है। इसमें भूमंडल के लगभग पैंतीस देशों तथा नौ संस्कृतियों के मिथकयानों एवं लोकयानों की एकान्वित मिथक-आलेखकारी है। साथ में मिथक-चित्र-आलेखकारी भी।
विश्व-सभ्यताओं के ऐतिहसिक आँचल : यह पहला अध्याय विश्व की प्राचीन सभ्यताओं के एतिहासिक और भौगोलिक परिदृश्य पर केन्द्रित है। इसमें मिथकी अध्ययन के लोक पक्षों को शामिल किया गया है जहाँ मिथक-कथा के अलावा परीकथा,पशुकथा, लोककथा और निजंधरी कथाओं के अंतर्सूत्रों को तलाशने की कोशिश की गयी है। होगी जय, होगी जय पुरुषोत्तम नवीन : यह दूसरा ध्याय है जिसे ब्रह्माण्ड की व्युत्पत्ति और मानव जाति की निर्मितियों पर फोकस किया गया है। सृष्टि और सृष्टि सम्बन्धी मिथकों के अलावा समूची दुनिया में मानव कबीलों की जातियों-उपजातियों का, उनकी मान्यताओं का वैज्ञानिक विवेचन किया गया है।
सभ्यता का अवसान : मिथकों की उन्नति : इतिहास इस बात की गवाही देता है कि विश्व की विभिन्न प्राचीन सभ्यताएँ एक चरम पर जाकर ह्रासशील होने लगती हैं। प्रश्न उठता है कि उन सभ्यताओं से जुड़े मिथकों के साथ भी क्या ऐसा ही घटित होता है? यह एक रोचक प्रश्न है इसके उत्तर की खोज उससे भी अधिक रोचक। इस पूरे अध्याय को पढ़ने का आनन्द एक लम्बी और रोमांचक यात्रा के आनन्द की तरह है।
सभ्यताओं का ‘सोशल चार्टर’: यहाँ हमें अलग अलग मिथकीय प्रतीकों के पीछे प्रचलित सामाजिक थीम की जानकारी मिलती है। उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के अलावा अफ्रीका, जापान, कोरिया और मंगोलिया के विशेष संदर्भ में अनेकानेक मिथकों के सामजिक पैटर्न्स का अध्ययन किया गया है। मिथक आदि मिथकानि अनन्ता : यहाँ मिथक, मिथकीय मानस और मिथकीय विश्व की अवधारणा पर केन्द्रित अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । मिथक क्या है—सपना, कि जादू, कि धर्म, कि अनुष्ठान, कि कथा, कि सामाजिक पंचांग ?आखिर वह है कैसी ? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर के सिलसिले में प्रस्तुत अध्याय की बुनावट की गई है।
मूल प्रकृति की सृष्टि तथा महाशक्ति : यहाँ मिथकीय भूगोल से आरम्भ करके सृष्टि की उत्पत्ति के आद्य प्रारूपों का विवेचन किया गया है। आद्य पुरुष, आद्य स्त्री और आद्य पशु तथा अन्य जातियों-प्रजातियों के समानान्तर सृष्टि सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं पर भी विशिष्ट और शोधपूर्ण सामग्री मिलगी। विश्वदेवता, विश्वदेवियाँ और दानव : सातवां अध्याय विभिन्न सभ्यताओं में देवी-देवताओं के मिथकों का व्युत्पत्तिपरक और तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करता है। धरती पर उनके कायांतरण तथा मानवाय जीवन शैली और संघर्ष की रोमांचक दास्तानों को भी दर्ज किया गया है।
या देवी सर्वभूतेषु : आठवें अध्याय में सभ्यताओं की इतिहास-धारा में निरन्तर प्रवाहित होने वाली मातृदेवियों, देवरमणियों और सौन्दर्य-शालिनी शक्तियों की मिथकीय पृष्ठभूमि की अभिनव व्याख्या है। यह अध्याय सौन्दर्य और शक्ति, दिव्य और मानव, रूप और काम, प्रेम और वासना, मान्यता और यथार्थ जैसे युग्मकों के आलोक में नारीत्व के बदलते अभिप्रायों पर विचारोत्तेजक सामग्री प्रस्तुत करने के कारण समकालीन नारी विमर्श की दृष्टि से भी अत्यन्त उपयोगी बन गया है।
'महाजनो येन गतः स पन्थाः' : यहाँ मानव कल्याण के लिए अथक परिश्रम करने वाले सांस्कृतिक अधिनेता और अधिनेत्रियों के बारे में ढेरों जानकारियाँ हैं। सुमेरिया के गिलगामेष और देवी ईश्तर, इटली तटीय द्वीप की समुद्री जलपरियाँ साइरन, अमेजन की नाग-युवतियाँ, चीन के वानर देवता सुन होउत्जू, ईजिप्टी मिथक का राष्ट्रीय देवता होरस, मर्यादापुरुषोत्तम राम, मारुतिनन्दन हनुमान, चतुर देवर्षि नारद मुनि के अलावा डिडो, क्लिओपेट्रा,नेफ्रेरती, सेडेना, द्रौपदी आदि दिव्य नारियों के विविध प्रसंग वर्णित हैं
नयन का इन्द्रजाल अभिराम : कलाशास्त्र या सौन्दर्यशास्त्र की दृष्टि से इस अध्याय का विशिष्ट महत्त्व है। यहाँ शैल चित्रकारी में मिथकीय कलाओं की खूबसूरती के साथ प्राचीन मानव समुदायों के सौन्दर्यतात्विक रुझान भी विवेचन की परिधि में हैं। आगे कला के मिथकीय आयामों के साथ-साथ एतिहासिक आयामों का भी समावेश किया गया है।
मिथकीय दृश्यगोपनता: जन्म और मृत्यु के मिथकीय रहस्य या पहली क्या हैं ? विभिन्न दैवीय और मानवीय जन्म-प्रसंगों में रतिक्रिया के मिथकीय अभिप्राय क्या हैं ? क्या मनुष्य ने मिथकीय देवी-देवताओं को गढ़ा है, अथवा इसका उल्टा घटित हुआ है ? ग्यारहवें अध्याय में इन प्रश्नों के साथ-साथ काम तथा रति, कायान्तरण एवं छलावरण, नारी की नग्नता का टैबू, मानवीय और पाशविक काम-क्रियाओं में सादृश्य और विसादृश्य जैसे विषयों का विवेचन है।
मिथक और यथार्थ: मूल अध्याय का शीर्षक है ‘समय की शिला पर मधुर चित्र कितने किसी ने बनाये किसी ने मिटाये’। इसमें प्राक्तन मिथक में यथार्थता, मिथकीय मानस में समाजविज्ञानों तथा आदिम टैक्नालॉजी के झिलमिले, धार्मिक मिथक-विश्वास एवं रहस्य से अन्धविश्वास तथा आस्था में प्रस्थान, आनन्दातिरेक तथा रहस्यवादिता, वास्तु-चित्ररेखा हैं मिथकें, मिथक आधारित कला की गुप्त भाषा : ‘वीनस तथा मार्स’आदि उपशीर्षकों का संयोजन किया गया है।
मिथकस्य यात्रा चालू आहे!: अन्तिम अध्याय में मिथक की समकालीन व्याख्या को फोकस किया गया है। आधुनिक विश्वमिथक के रूप में रोमांटिक तथा विश्व-क्रांतिकारी चिन्तक ‘चे’ ग्वेवारा पर बहुत अच्छी सामग्री है। आधुनिक विज्ञान और मैट्रिक्स के हवाले से मिथकों के नव-रूपांतरणों के भी कई प्रसंग यहाँ हैं।
रमेश कुंतल मेघ के लिए आलोचना एक वैश्विक चिंतन है। उनका जन्म 1 जून 1931 को हुआ। मेघ आलोचकों और विचारकों की उस परम्परा से आते हैं जिन्होंने कभी भी अपने आप को किसी विचारधारा या वाद में समेटकर नहीं रखा। चाहे सैद्धांतिकी हो, चाहे सौन्दर्यशास्त्र हो या फिर मिथकशास्त्र—इन सभी विषयों को उन्होंने अपनी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक और समाजवैज्ञानिक दृष्टि से एक वैश्विक ऊँचाई प्रदान की है। वह स्वयं को ‘आलोचिन्तक’ कहते हैं यानी आलोचक और चिन्तक का समेकित रूप। उनके व्यक्तित्व में एक और संश्लिष्टता है। वे अपने आप को कार्ल मार्क्स का ध्यान शिष्य और आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का अकिंचन शिष्य मानते हैं। कहना न होगा कि हिन्दी साहित्य में यह अपनी तरह का बिलकुल अकेला और निराला संयोग है। मेघ की एक चर्चित कविता - 'रायपुर में मुक्तिबोध के घर जाने पर'.....
सूरज का सोंधा भुना लालारुख कछुवा
बिंधा भिलाई की चिमनियों से
जलते-पकते कत्थई
हो जाएगा अभी आगे
राजनंदगाँव पर ।
पता नहीं लापता चाँद कब उगेगा
हमारे सो जाने पर ?...पर ??
जादुई महल ? मुक्तिबोध का ?
यह सब यूँ घट गया
मानों नीले बिच्छुओं की सुरंग से लिपट
काला साँप
भरी दोपहर
फन तान तन गया ।
लो, मैं आ गया
तुम्हारी दहलीज पर
गौरेया-सा दुबक कर
अनंत कालयात्रा की दहशत से
ठिठककर !
तुम्हारा अहसास (कई गुना आदमक़द)
गले मिला
शनिनील चंद्रमाओं में
नागात्मक कविताओं-सा
मचलकर ।
घर में वही
हँसमुख शान्ता भाभी,
वही चाय, वही पोहा,
वैसी ही आवभगत
मानो तुम कहीं-वहीं-यहीं हो ।
लेकिन नहीं । ...पार्टनर ।
पालिटिक्स अब मती पूछो
अब तुम्हारे घर बीड़ी । नहीं
मेरे पास माचिस...?,
महा एक अगरबत्ती जलती है ।
दिवाकर है । गिरीश है ।
सृजनकन्या उषा है ।
तुम्हारे काव्य-पुरुष के इर्द-गिर्द
दर्जनों मिथकीय बुनकर जैसे
तुम्हारे जीवंत संगी-संघाती हैं ।
अकेलापन नहीं है, ख़ामोशी है,
ख़ामोशी है, मुर्दापन नहीं है,
मुर्दापन नहीं, जवाँमर्दी है ।
रायपुर की जेठ दोपहरी में कोई
छत्तीसगढ़ी लोकगीत नहीं है ।
राजनांदगाँव में कोई भी
क्राँति गरुड़
उतरा नहीं है
हमारी रेल भी 'क्रास' पर ठहरी नहीं है ।
अँधेरे में बेहद गंदगी है चारों ओर
साफ करने एक और काबिल मेहतर नहीं है ।
क्यों नहीं, कल तलक
लोकपुरुष आया
नहीं है ?
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