जब 'राम की शक्ति पूजा' में लीन हुए महाप्राण निराला
हिंदी साहित्य में 'राम की शक्ति-पूजा' कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की एक अमूल्य धरोहर है। यह नवरात्र मास है और 15 अक्तूबर को महाप्राण की पुण्यतिथि भी। इस अवसर पर आधुनिक युद्ध-विभीषिका के दृष्टिगत 'राम की शक्ति-पूजा' अनिर्वचनीय मानसिक संबल देती है।
निराला ने 'राम की शक्ति पूजा' का सृजन 23 अक्टूबर 1936 को संपूर्ण किया था। कहा जाता है कि पहली बार 26 अक्टूबर 1936 को इलाहाबाद से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र 'भारत' में उसका प्रकाशन हुआ था।
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की 15 अक्तूबर को पुण्यतिथि होती है। निराला को 'महाप्राण' भी कहा जाता है। उनकी लोकप्रिय लंबी कविता 'राम की शक्ति-पूजा' हिंदी साहित्य की एक अमूल्य धरोहर भी और आज नवरात्र के समय में उल्लेखनीय भी। भगवान राम के आख्यानों में, राम को चाहे विष्णु के अवतार के रूप मे प्रतिष्ठित किया गया हो या उन्हें सामान्य मानव दर्शाया गया हो, दोनों ही स्थितियों में राम–रावण युद्ध के दौरान उन्हें कदाचित पराभव की सम्भावना से कहीं भी उद्विग्न नहीं दर्शाया गया है। मानस में तो राम इतने आश्वस्त हैं कि वे सुग्रीव से कह उठते है – ‘जग मंहि सखा निसाचर जेते। लछिमन हतहिं निमिष मह तेते।’ ऐसा दुर्धर्ष अनुज यदि साथ हैं तो बड़े भाई को क्या फ़िक्र। जब रावण का सिर कटने पर फिर उनका अभ्युदय होने लगा, तब राम चिंतित तो हुए पर भयाक्रांत नहीं। लक्ष्मण को जब शक्ति लगी, तब राम चिंतित भी हुए और शोकाकुल भी, पर भय की भावना उनके मन में कभी नहीं आयी।
राम की यही अप्रतिहत मानसिक स्थिति और उनका संकल्प–कान्त मुख सदैव उनकी विलक्षण सेना के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा किन्तु ‘राम की शक्ति पूजा’ में महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने राम को तो पराजय के भय से शंकित और आक्रांत दर्शाया ही, उनकी सेना के बड़े-बड़े वीर भी उतने ही घबराये और चिंतित दिखे-लिखे गए। सायं युद्ध समाप्त होने पर जहाँ राक्षसों की सेना में उत्साह व्याप्त है, वही भालु-वानर की सेना में खिन्नता है। वे ऐसे मंद और थके-हारे चल रहे हैं मानो बौद्ध स्थविर ध्यान-स्थल की ओर प्रवृत्त हों -
रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र पर लिखा
अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर।
आज का तीक्ष्ण शरविधृतक्षिप्रकर, वेगप्रखर,
शतशेल सम्वरणशील, नील नभगर्जित स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह भेद कौशल समूह
राक्षस विरुद्ध प्रत्यूह, क्रुद्ध कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि राजीवनयन हतलक्ष्य बाण,
लोहित लोचन रावण मदमोचन महीयान,
राघव लाघव रावण वारणगत युग्म प्रहर,
उद्धत लंकापति मर्दित कपि दलबल विस्तर,
अनिमेष राम विश्वजिद्दिव्य शरभंग भाव,
विद्धांगबद्ध कोदण्ड मुष्टि खर रुधिर स्राव,
रावण प्रहार दुर्वार विकल वानर दलबल,
मुर्छित सुग्रीवांगद भीषण गवाक्ष गय नल,
वारित सौमित्र भल्लपति अगणित मल्ल रोध,
गर्जित प्रलयाब्धि क्षुब्ध हनुमत् केवल प्रबोध,
उद्गीरित वह्नि भीम पर्वत कपि चतुःप्रहर,
जानकी भीरू उर आशा भर, रावण सम्वर।
लौटे युग दल। राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज पति चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।
निराला ने 'राम की शक्ति पूजा' का सृजन 23 अक्टूबर 1936 को संपूर्ण किया था। कहा जाता है कि पहली बार 26 अक्टूबर 1936 को इलाहाबाद से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र 'भारत' में उसका प्रकाशन हुआ था। इसका मूल निराला के कविता संग्रह 'अनामिका' के प्रथम संस्करण में छपा। अपनी पुत्री सरोज के असामयिक निधन से विचलित कवि निराला ने जिस तरह उसकी स्मृति में 'सरोज-स्मृति' का सृजन किया, उसी तरह उसे 'निराला रचनावली' में महत्व मिला। इसे संयोग ही कहेंगे कि 'राम की शक्ति पूजा' में भी उतने ही अनुच्छेद हैं, जितने 'सरोज-स्मृति' में। इन अनुच्छेदों की कुल संख्या 11 है और ये प्रसंग के अनुकूल ही अकार में छोटे-बड़े हैं। यह कविता 312 पंक्तियों की एक ऐसी लम्बी कविता है, जिसमें निराला जी के स्वरचित छंद 'शक्ति पूजा' का प्रयोग किया गया है। चूँकि यह एक कथात्मक कविता है, इसलिए संश्लिष्ट होने के बावजूद इसकी सरचना अपेक्षाकृत सरल है। इस कविता का कथानक प्राचीन काल से सर्वविख्यात रामकथा के एक अंश से है। इस कविता पर वाल्मीकि रामायण और तुलसी के रामचरितमानस से ज्यादा बांग्ला कृति कृतिवास का प्रभाव देखा जाता है -
प्रशमित हैं वातावरण, नमित मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीतचरण,
श्लध धनुगुण है, कटिबन्ध त्रस्त तूणीरधरण,
दृढ़ जटा मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वृक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।
आये सब शिविर सानु पर पर्वत के, मन्थर
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर
सेनापति दल विशेष के, अंगद, हनुमान
नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।
बैठे रघुकुलमणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल
ले आये कर पद क्षालनार्थ पटु हनुमान
अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या विधान
वन्दना ईश की करने को लौटे सत्वर,
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण भल्ल्धीर,
सुग्रीव, प्रान्त पर पदपद्य के महावीर,
यथुपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम को जितसरोजमुख श्याम देश।
‘राम की शक्ति-पूजा’ में निराला की मौलिक साहित्य साधना उद्भूत हुई है। इसमें उन्होंने पौराणिक प्रसंग द्वारा धर्म और अधर्म के शाश्वत संघर्ष का चित्रण आधुनिक परिस्थितियों में किया है। इसमें उन्होंने मौलिक कल्पना के बल पर प्राचीन सांस्कृतिक आदर्शों का युग के अनुरूप संशोधन अनिवार्य माना है। यही कारण है कि महाप्राण की यह कविता कालजयी बन गयी है। इस लंबी कविता में निराला ने राम को उनकी परंपरागत दिव्यता के महाकाश से उतार कर एक साधारण मानव के धरातल पर खड़ा कर दिया है, जो थकता भी है, टूटता भी है और जिसके मन में जय एवं पराजय का भीषण द्वन्द्व भी चलता है। वानरी सेना की जो दशा है, वह तो है ही, स्वयं राम की स्थिति दयनीय है। वे एक ऐसे विशाल पर्वत की भांति हैं, जिनपर छितराए हुए केश जाल के रूप में रात्रि का सघन अंधकार छाया हुआ है और प्रतीक योजना से यह अंधकार उस पराजय-संकट को भी रूपायित करता है, जो राम के हृदय में किसी प्रचंड झंझावात की भांति उमड़ रहा है और तारक रूपी आशा की किरणें वहां से बहुत दूर नीले आकाश से आ रही हैं-
है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द को हिला रहा फिर फिर संशय
रह रह उठता जग जीवन में रावण जय भय,
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपुदम्य श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार बार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार हार।
ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का नयनों से गोपन प्रिय सम्भाषण
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन,
काँपते हुए किसलय, झरते पराग समुदय,
गाते खग नवजीवन परिचय, तरू मलय वलय,
ज्योतिः प्रपात स्वर्गीय, ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।
सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
फूटी स्मिति सीता ध्यानलीन राम के अधर,
फिर विश्व विजय भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर।
समालोचक विद्वानों का मत है कि 'कृतिवास' और 'राम की शक्ति पूजा' में पर्याप्त भेद है। पहला तो यह कि, एक ओर जहां कृतिवास में कथा पौराणिकता से युक्त होकर अर्थ की भूमि पर सपाटता रखती है तो वही दूसरी ओर राम की शक्ति पूजा नामक कविता में कथा आधुनिकता से युक्त होकर अर्थ की कई भूमियों को स्पर्श करती है। इसके साथ-साथ निराला ने इसमें युगीन चेतना और आत्मसंघर्ष का मनोवैज्ञानिक धरातल पर बड़ा ही प्रभावशाली चित्र प्रस्तुत किया है। निराला यदि कविता के कथानक की प्रकृति को आधुनिक परिवेश और अपने नवीन दृष्टिकोण के अनुसार नहीं बदलते तो यह केवल अनुकरण मात्र रह जाती लेकिन उन्होंने अपनी मौलिकता का प्रमाण देने के लिए ही इस रामकथा के अंश में कई मौलिक प्रयोग किये, जिससे यह रचना कालजयी सिद्ध हुई। 'राम की शक्ति पूजा' की दृश्य-समग्रता एक युद्धस्थल है। संकट की ऐसी घड़ियों में प्रायः आगामी रणनीति पर चर्चा के लिए सभाएं की जाती हैं। राम श्वेत शिला पर आरूढ़ हैं। सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान, नल–नील, गवाक्ष सभी उपस्थित हैं। लक्ष्मण राम के पीछे हैं। हनुमान कर-पद प्रक्षालन के लिए जल लेकर उपस्थित हैं। सेना को विश्राम का आदेश दे दिया गया है। निराला यहाँ फिर प्रतीकों का सहारा लेते हैं और आसन्न पराजय-संकट का एक डरावना चित्र उभरता है –
फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन,
लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,
खिच गये दृगों में सीता के राममय नयन,
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।
बैठे मारुति देखते रामचरणारविन्द,
युग 'अस्ति नास्ति' के एक रूप, गुणगण अनिन्द्य,
साधना मध्य भी साम्य वामा कर दक्षिणपद,
दक्षिण करतल पर वाम चरण, कपिवर, गद् गद्
पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,
देखा कवि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल।
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ,
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल लोचन, पर सजल नयन,
व्याकुल, व्याकुल कुछ चिर प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
ये अश्रु राम के आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति खेल सागर अपार,
हो श्वसित पवन उनचास पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग भंग, उठते पहाड़,
जलराशि राशिजल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत वायु वेगबल, डूबा अतल में देश भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद क्षुब्ध कर अट्टहास।
इस कविता का मुख्य विषय सीता की मुक्ति है राम - रावण का युद्ध नहीं, इसलिए निराला युद्ध का वर्णन समाप्त कर यथाशीघ्र सीता की मुक्ति की समस्या पर आ जाते हैं। यह समस्या चूँकि युद्ध से उत्पन हुई थी और उसमें भी आज मिली निराशा से, इसलिए इसका वर्णन करना जरूरी था। कहा जा सकता है कि सीता की मुक्ति की पृष्ठभूमि है युद्ध, इसलिए कवि उसे छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकता था। यहां मुक्ति की समस्या विकटता युद्ध की विकटता की ही देन थी। इस कारण युद्ध की विकटता को निराला ने अधिक से अधिक मूर्त बनाने की कोशिश की है। यह कोई साधारण स्थिति नहीं थी। राम के शर उठाते ही पूरा ब्रह्माण्ड काँप उठा और विद्युत् वेग से तत्क्षण देवी का वहां पर अभ्युदय हुआ। उन्होंने तुरंत राम का हाथ थाम लिया। राम ने विथकित होकर देखा। सामने माँ दुर्गा अपने पूरे स्वरूप-श्रृंगार में भास्वर थीं। उन्होंने राम को आशीर्वाद दिया – ‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!’ इतना कहकर देवी राम के ही मुख में लीन हो गईं। यहाँ पर निराला की योजना के व्यापक अर्थ हैं और विद्वान बड़े कयास लगाते हैं। वह विचार एवं शोध का एक पृथक बिंदु है पर सरल व्यंजना यह है कि देवी ने रावण को अपने अंक में स्थान दिया था पर यहाँ वह स्वयं राम के ह्रदयांक में जाकर अवस्थित हो जाती हैं -
'साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!'
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वरवन्दन कर-
'होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।'
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।
हिंदी के ख्यात आलोचक बच्चन सिंह के शब्दों में 'राम की शक्ति पूजा' के कथानक की अपनी स्वतंत्र सत्ता तो होती है, किंतु उसकी सुनिर्दिष्ट प्रकृति नहीं मानी जा सकती। रामचरितमानस की स्वतंत्र सत्ता है लेकिन वाल्मीकीय रामायण में उसकी एक प्रकृति है। रामचरितमानस में दूसरी और साकेत में तीसरी। इस प्रकार निराला ने कथानक तो रामचरित ही लिया है किन्तु उसको अपने परिवेश की प्रकृति में ढाला है। यह कथानक अपरोक्ष रूप से अपने समय के विश्व युद्ध पर दृष्टिपात कराता है, जहाँ घनघोर निराशा में कवि साधारणजन के हृदय में आशा की लौ जगाने की कोशिश करता है।
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