जान की धमकी मिलने के बाद भी मछुआरों के हक की लड़ाई लड़ रहा है एक युवा
कई आंदोलन के रहे अगुआ...
कई बार मिली धमकियां...
सरकार को बदलनी पड़ी नीतियां....
वो पीएचडी डिग्री धारक हैं लेकिन अपने को आंदोलनकारी कहलाना पसंद करते हैं। वो चाहते तो अच्छी खासी नौकरी भी कर सकते थे लेकिन वो लड़ाई लड़ रहे हैं उन मछुआरों की जिनकी सुनवाई कहीं नहीं होती। ये उनके आंदोलन का ही असर है कि सरकार को समुद्र किनारे रहने वाले मछुआरों के लिए कई नीतियों में बदलाव लाना पड़ा। आज गुजरात के कच्छ इलाके में रहने वाले भरत पटेल ना सिर्फ पर्यावरण के लिए, बल्कि मछुआरों के हितों की लड़ाई लड़ उनके विकास में भी मददगार साबित हो रहे हैं।
गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद से भरत पटेल ने पीएचडी तक की पढ़ाई की है। इसके बाद उन्होने कच्छ नवनिर्वाण अभियान में कुछ वक्त तक नौकरी की। इस दौरान इन्होने देखा कि कच्छ का तटीय इलाका औद्योगिक इलाके में बदल रहा था। खासतौर से कच्छ का भद्रेसर इलाका। जहां पर मछुआरों का एक बड़ा समुदाय रहता है। जब वो यहां गए तो उन्होने देखा कि मछुआरों का ये समुदाय समाज के दूसरे समुदाय से एकदम कटा हुआ है। वहां पर उन मछुआरों के पास किसी तरह की कोई बुनियादी सुविधाएं नहीं थी। ये लोग शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क जैसी सुविधाओं से काफी दूर थे। दूसरी बड़ी बात ये थी कि जो मछुआरे वहां पर काफी समय से रह रहे थे लेकिन सरकारी दस्तावेजों में उनकी मौजूदगी कहीं भी दर्ज नहीं थी। ऐसे में कोई भी इंडस्ट्री यहां पर आकर मछुआरों को हटा देती थी।
इतना ही नहीं केंद्र सरकार ने साल 2002 में घोषणा की कि मुंदरा से लेकर कंधला तक के तटीय इलाके के इंडस्ट्रियल बेल्ट के तौर पर घोषित किया जाएगा। सरकार की इस घोषणा से मछुआरों में घबराहट फैल गई, क्योंकि जिस इलाके में मछुआरे रह कर अपना गुजारा कर रहे थे वो जगह सरकारी दस्तावेजों में खाली थी इतना ही नहीं इस इलाके में इंडस्ट्री लगने का मतलब था पर्यावरण को नुकसान। इससे उन पर दोहरी मार पड़ती। इसको देखते हुए भरत पटेल ने मछुआरों को इकट्ठा करना शुरू किया और सरकार तक अपनी बात पहुंचाने की कई बार कोशिश की। लेकिन उनको ज्यादा सफलता नहीं मिली। इसके बाद एक बड़े औद्योगिक घराने ने कच्छ के उसी इलाके में करीब 2 किलोमीटर लंबे तटीय इलाके में अपना पावर संयंत्र स्थापित किया। इस वजह से यहां का एक गांव जिसका नाम शेखरिया है उसका रास्ता बंद हो गया था। इस वजह से इन लोगों ने लगातार 32 दिन तक ब्लॉक मैजिस्ट्रेट के सामने प्रदर्शन किया। इसके अलावा दो बड़ी रैलियां निकालीं। इसके बाद स्थानीय प्रशासन हरकत में आया और आश्वासन दिया कि उनकी समस्या को दूर किया जाएगा।
इस बीच यहां पर वॉटर फ्रंट डेवलवमेंट प्रोजेक्ट के तहत करीब 60 किलोमीटर तटीय इलाके में विभिन्न प्रोजेक्ट लाने की परियोजना पर काम शुरू होने लगा। इसका स्थानीय स्तर पर काफी विरोध भी हुआ। इस प्रोजेक्ट के खिलाफ लोगों ने कोर्ट में भी लड़ाई लड़ी। जिसके बाद इस परियोजना में बड़ा बदलाव किया गया और कंपनी को इस बात के लिए तैयार होना पड़ा कि वो समुंद्र के पानी का इस्तेमाल नहीं करेगी। इससे ना सिर्फ पर्यावरण सुरक्षित रहेगा बल्कि मछुआरों के सामने रोजी रोटी का संकट भी पैदा नहीं होगा। भरत पटेल और इनके आंदोलन की वजह से सरकार को कई नीतिगत नीतियों में भी बदलाव करने पड़े। जैसे किसी पॉवर प्रोजेक्ट को अपने विस्तार के लिए नये सिरे से मंजूरी लेनी होगी, जबकि इससे पहले तक कोई भी पुराना पॉवर प्रोजेक्ट कुछ संशोधनों के साथ अपना विस्तार कर सकता था।
इसी तरह एक और बड़े औद्योगिक घराने को मुंदरा में एक पॉवर प्रोजेक्ट के लिए पर्यावरण संबंधी मंजूरी मिली। लेकिन उसके सामने ये शर्त रखी गई की वो संमुद्र के जितने पानी का इस्तेमाल उस पॉवर प्रोजेक्ट के लिए करेगा उसमें से बचे हुए पानी को समुंद्र में छोड़ने की जगह दोबारा इस्तेमाल करना होगा, लेकिन ऐसा नहीं किया गया इससे संमुद्र के किनारे के पर्यावरण को नुकसान पहुंचने लगा। इसके अलावा ये लोग ओपन साइकिल कूलिंग सिस्टम का इस्तेमाल कर रहे थे जिसमें ना सिर्फ पानी की खपत 10 गुणा ज्यादा हो रही थी बल्कि पर्यावरण पर भी नुकसान हो रहा था। ओपन साइकिल कूलिंग सिस्टम वो होता है जिसके तहत पानी का इस्तेमाल बायलर को ठंडा करने के लिए किया जाता है। इस तरह उस पानी का तापमान 60 डिग्री तक बढ़ जाता है और उसे फिर समुद्र में छोड़ दिया जाता है। जबकि समुद्र का पानी अगर 30 डिग्री भी बढ़ जाये तो वहां से समुद्री जीव या तो मर जाते हैं या फिर वो जगह छोड़ देते हैं। इतना ही नहीं ओपन साइकिल कूलिंग सिस्टम के लिए हर घंटे 6000 लाख लीटर पानी की जरूरत होती है। इसके बाद इन लोगों ने वर्ल्ड बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक से इनकी शिकायत की। जिसकी जांच हुई तो सच्चाई सामने आई कि इससे ना सिर्फ पर्यावरण बल्कि इस इलाके में रहने वाले मछुआरे भी प्रभावित हो रहे हैं। जिसके बाद इनका संघर्ष अब तक जारी है।
कच्छ के तटीय इलाके में रहने वाले मछुआरों को एकजुट करने के लिए भरत पटेल ने मच्छीमार अधिकार संघर्ष संगठन ट्रेड यूनियन बनाई है। इस यूनियन में करीब चार सौ किलोमीटर लंबे कच्छ के समुंद्री किनारे में रहने वाले मछुआरे शामिल हैं। भरत को उनके काम की वजह से कई बार जान से मारने की धमकियां भी मिलती रही हैं। उन पर मछुआरों को भड़काने का आरोप भी अक्सर लगता है। बावजूद इसके भरत बताते हैं कि कच्छ के तटीय इलाके में रहने वाले ज्यादातर मछुआरे अब अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख गये हैं। ये मछुआरों को ना सिर्फ कानूनी बारिकियां समझाते हैं बल्कि उनकी कानूनी मदद भी करते हैं। ये उनको बताते हैं कि कैसे आरटीआई का इस्तेमाल कर वो जानकारी निकाल सकते हैं। आज उन्होने मछुआरों तक इतनी जानकारी पहुंचा दी है कि उनका कहना है कि “अगर मैं कल यहां से चला भी जाऊं तो इस इलाके में रहने वाले लोग ये जानते हैं कि अपनी लड़ाई कैसे लड़ी जाती है।”