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पद्मिनी डॉक्टर बनने का सपना नहीं कर पायीं पूरा, लेकिन नौकरी दिलाकर दस हज़ार युवाओं के सपनों को लगाए पंख

डॉक्टरों के परिवार में जन्मीं थीं इसी वजह से डॉक्टर बनना चाहती थीं ... मेडिकल कॉलेज में जब सीट नहीं हासिल कर पायीं, तब बहुत हताश और निराश हुईं ... माँ-बाप ने हौसला बढ़ाया और जीवन का मक़सद समझाया ... कम्प्यूटर की पढ़ाई की और बनी बड़ी जानकार ... अलग-अलग सॉफ्टवेयर कंपनियों में अलग-अलग ओहदों पर अलग-अलग जगह काम किया ... नौकरी करते हुए भी युवाओं को कम्प्यूटर से जुड़ी टेक्नोलॉजी और टूल्स का दिया प्रशिक्षण ... दस हज़ार से ज्यादा युवाओं को रोज़गार दिलवाने में हुईं कामयाब ... चौदह साल तक वीकडेज़ में हर दिन सोलह घंटे तक किया काम ... महिला-शक्ति की अद्भुत मिसाल हैं पद्मिनी 

पद्मिनी डॉक्टर बनने का सपना नहीं कर पायीं पूरा, लेकिन नौकरी दिलाकर दस हज़ार युवाओं के सपनों को लगाए पंख

Friday June 03, 2016 , 15 min Read

एक मायने में पद्मिनी का जन्म डॉक्टरों के परिवार में हुआ। उनके पिता डॉक्टर थे और दो मामा भी। एक मामा तटीय आंध्र इलाके के पहले सर्जन हुए तो दूसरे मामा लंदन में प्रैक्टिस करने वाले भारत के पहले मनोरोग चिकित्सक यानी साइकाट्रिस्ट बने। एक मामा ने तो मेडिकल कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में फर्स्ट रैंक हासिल किया था। जब पद्मिनी पढ़ रही थीं, तभी उनके दो बड़े भाइयों में से एक ने एमबीबीएस सीट हासिल कर ली थी। प्रवेश परीक्षा में इस भाई का रैंक 52 था। ऐसे में स्वाभाविक है कि पद्मिनी पर भी डॉक्टर बनने का दबाव था। पद्मिनी ने भी डॉक्टर बनने के सपने देखे। इस सपने को साकार करने के लिए ख़ूब मेहनत की, जमकर पढ़ाई भी, लेकिन वे एमबीबीएस सीट हासिल करने में नाकाम रहीं। मेडिकल कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में उनका रैंक 2000 के पार था। 500 से कम रैंक पाने पर ही मेडिकल कॉलेज में दाख़िले की गुंज़ाइश थी। मेडिकल कॉलेज में सीट हासिल न कर पाने से पद्मिनी को गहरा झटका लगा। उन्हें यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि वे नाकाम हुई हैं और डॉक्टर बनने का उनका सपना टूट रहा है। परिवारवालों की उम्मीदों पर खरा न उतरना भी उन्हें ख़ूब खटकने लगा। वे उदास रहने लगी। निराशा में डूब गयीं। हताश पद्मिनी ने भोजन करना भी बंद कर दिया। अन्न-त्याग की वजह से उनकी हालत बिगड़ने लगी। हट्टी-कट्टी और तंदुरस्त पद्मिनी कुछ ही दिनों में दुबली-पतली और दुर्बल हो गयीं। परिवारवालों ने ख़ूब समझाया, लेकिन वे नहीं मानीं। जब माता-पिता और परिवार के दूसरे लोगों ने ये समझाया कि डॉक्टर न बन पाने से ज़िंदगी ख़त्म नहीं हो जाती और बिना डॉक्टर बने भी ख़ूब नाम, शोहरत, धन-दौलत कमाई जा सकती है, तब जाकर कहीं पद्मिनी ने अन्न लेना शुरू किया। परिवारवाले उत्साह बढ़ाने की लगातार कोशिशें करते रहे। इन्हीं कोशिशों के बीच परिवारवालों को ये भी पता चला कि आंध्रा विश्वविद्यालय में पहली बार बीएससी (बॉयो केमिस्ट्री) का कोर्स शुरू किया जा रहा। चूँकि ये कोर्स एमबीबीएस से कुछ हद तक अनुबद्ध था, परिवारवालों को लगा कि पद्मिनी का दाख़िला इस कोर्स में कराया जाना चाहिए। योग्यता परीक्षा में मिले नंबरों के आधार पर पद्मिनी को इस कोर्स में सीट मिल गयी।

एक बार फिर से पद्मिनी मन लगाकर पढ़ने लगी। नए सपने संजोने लगीं। इसी बीच उनकी शादी तय कर दी गयी। जब वे बीएससी (बॉयो केमिस्ट्री) यानी डिग्री फर्स्ट ईयर में थीं तभी उनकी शादी कर दी गयी। शादी के समय पद्मिनी की उम्र 18 साल थी। उनकी शादी बी. नरसिम्हा राव से की गयी, जोकि खुद खूब पढ़े-लिखे थे। उनके पास बीकॉम और एलएलबी की डिग्रियाँ थीं। नरसिम्हा राव के पास खेती के लिए भी बहुत सारी ज़मीन थी। उनका ज्यादा ध्यान खेती में ही रहता था। 

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शादी के बाद पति ने पद्मिनी को पढ़ाई करने से नहीं रोका, लेकिन जब पद्मिनी को लड़का हुआ तब उन्हें अहसास हुआ कि अपने बच्चे संदीप, की देखभाल करते हुए वे बीएससी (बॉयो केमिस्ट्री) जैसे कठिन और गम्भीर विषय पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाएंगी। बच्चे की सही परवरिश की ख़ातिर पद्मिनी ने बीएससी (बॉयो केमिस्ट्री) का कोर्स बीच में ही छोड़ दिया, लेकिन ज्यादा दिन तक वे अपने आप को पढ़ाई से दूर नहीं रख पायीं। ख़ूब पढ़-लिखकर बड़ा काम करने और नाम कमाने की इच्छा मन में फिर से जागी। पति की इजाज़त और मदद से पद्मिनी ने आसान समझे जाने वाले बीकॉम कोर्स में दाख़िला लिया। पत्नी और माँ की ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभाते हुए पद्मिनी ने पढ़ाई जारी रखी। बीकॉम की डिग्री लेने के बाद भी उन्होंने पढ़ाई जारी रखने का फ़ैसला लिया। चूंकि उस समय (90 के दशक में) भारत में आईटी क्रांति ज़ोरों पर थी पद्मिनी ने आईटी में शिक्षा लेने की ठानी। उन्हीं दिनों सीडैक यानी सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ़ एडवांस कंप्यूटिंग के अविभाजित आँध्रप्रदेश में दो केंद्र हुआ करते थे। एक राजधानी हैदराबाद और दूसरा पद्मिनी के शहर एलुरु में। पद्मिनी ने सीडैक के एलुरु केंद्र से पीजी डिप्लोमा इन कम्प्यूटर एप्लीकेशन की पढ़ाई शुरू की। इस कोर्स से दौरान वे कम्प्यूटर की बारीकियों को समझ गयीं। उन्हें अहसास हो गया कि भविष्य कम्प्यूटर और इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी का होगा, लेकिन इस बीच एक ऐसी घटना हुई जिसने पद्मिनी को अपनी अंग्रेज़ी सुधारने और पीजी की डिग्री के लिए पढ़ाई करने के लिए प्रेरित किया। पद्मिनी ने कम्प्यूटर की बारीकियां समझ ली थीं और यही वजह थी कि अमेरिका जाकर काम करना चाहती थीं, लेकिन उन्हें वीसा नहीं मिला। हेच 1 वीसा के लिए उनकी अर्ज़ी ख़ारिज़ कर दी गयी। 


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इस घटना से दुःखी पद्मिनी ने दो बड़े फैसले लिए। पहला-अपनी अंग्रेज़ी सुधारने का और दूसरा-पीजी की डिग्री हासिल करने का। अपने फ़ैसलों को अमलीजामा पहनाते हुए उन्होंने तमिलनाडु के तिरुनेलवेली के एमएस विश्वविद्यालय में मास्टर्स इन कम्प्यूटर एप्लीकेशन कोर्स में दाख़िला ले लिया। 

दिलचस्प बात ये भी है कि पिता डॉक्टर थे, फिर भी पद्मिनी की शुरुआती स्कूली शिक्षा तेलुगु में हुई थी। पिता सरकारी चिकित्सा अधिकारी थे और उनकी पोस्टिंग पश्चिम गोदावरी जिले के टी नरसापुरम गाँव में हुई। यही के सरकारी स्कूल - ज़िला परिषद हाई स्कूल से पद्मिनी ने पहली से सातवीं कक्षा की पढ़ाई की थी, लेकिन माता-पिता ने बेटी का भविष्य संवारने के मक़सद से पद्मिनी का दाख़िला बोर्डिंग स्कूल में करवा दिया। आठवीं से बारहवीं तक की पढ़ाई पद्मिनी ने सेंट टेरेसा हाई स्कूल एन्ड कॉलेज से की। चूँकि पिता, भाई और दो मामा की तरह ही पद्मिनी भी डॉक्टर बनाना चाहती थीं, उन्होंने इंटरमीडिएट में बायोलॉजी, फ़िज़िक्स और केमिस्ट्री यानी बीपीसी को अपने मुख्य विषय बनाए। पद्मिनी की आठवीं से लेकर बारहवीं तक इंग्लिश मीडियम में पढ़ाई तो हुई थी, लेकिन चूँकि प्रारंभिक शिक्षा ग्रामीण परिवेश के तेलुगु माध्यमिक पाठशाला से हुई थी, उनकी अंग्रेज़ी पर पकड़ बहुत ज्यादा मज़बूत नहीं थी। हेच 1 वीसा की अर्ज़ी ख़ारिज होने के बाद पद्मिनी ने अंग्रेज़ी भाषा पर अपनी पकड़ मज़बूत बनने पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया था।

इसी दौरान एक ऐसी घटना हुई, जिसने पद्मिनी की ज़िंदगी बदल दी। घटना दुःखद थी, लेकिन उसने पद्मिनी को एक नया रास्ता दिखाया। इस घटना की वजह से उनके सामने जो उलझने थीं वे दूर हो गयीं। उन्हें कई सवालों का जवाब मिल गया। 1996 में पद्मिनी की माँ की मृत्यु हो गयी। उन्हें फेफड़ों की बीमारी थी। उनका जब इलाज चल रहा था, तब उन्होंने पद्मिनी की नाम एक चिट्ठी लिखी थी। इस चिट्टी में माँ ने पद्मिनी से कहा था - तुम्हें नौकरी करनी चाहिए। अपने सपनों को साकार करना चाहिए। नौकरी करो, आगे बढ़ो और अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जियो। माँ पद्मिनी को बहुत चाहती थीं। वे पद्मिनी के मनोभावों और सपनों के बारे में अच्छी तरह से जानती थीं। पद्मिनी का भी अपनी माँ से बहुत लगाव था। मरने से कुछ ही पहले लिखी गयी माँ की उस चिट्ठी को पद्मिनी ने अपने दिल और दिमाग में उतार लिया। एक ख़ास मुलाक़ात में पद्मिनी ने बताया,

"मैंने अब भी मेरी माँ की वो चिट्ठी संभाल कर रखी है। उस चिट्ठी ने फ़ैसले लेने में मेरी मदद की थी। चिट्ठी ने मुझे कामयाबी का रास्ता दिखाया था।"
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पद्मिनी ने अपनी नौकरीपेशा ज़िंदगी की शुरुआत में अपने बेटे संदीप की पाठशाला सर सीआर रेड्डी पब्लिक स्कूल में बतौर कम्प्यूटर टीचर काम किया। ये नौकरी पार्ट टाइम थी। 1998 में उन्हें पहली बार एक सॉफ्टवेयर कम्पनी में नौकरी मिली। उनके एक भाई के दोस्त एएमआर फ्यूचरिस्टिक्स नाम की कंपनी में सीईओ थे। यहीं पर पद्मिनी को बतौर ट्रेनी - कम्प्यूटर इंजीनियर नौकरी मिल गयी। तनख़्वा थी पाँच हज़ार रुपये महीना।

जनवरी, 2000 से दिसंबर, 2003 तक पद्मिनी ने हैदराबाद में क्लारा नाम की कंपनी में काम किया। जनवरी, 2004 से मई, 2005 तक हैदराबाद में ही माईसिस नाम की कंपनी में नौकरी की। इन दोनों कंपनियों में पद्मिनी 'टेस्ट मैनेजर' थीं। 1998 में नौकरी के लिए पद्मिनी हैदराबाद आयी थीं, लेकिन उनका परिवार पश्चिम गोदावरी ज़िले में ही था। पद्मिनी सोमवार से शुक्रवार तक काम करतीं और फिर शुक्रवार को दफ़्तर का काम ख़त्म होते ही बस से अपने घर चली जातीं। रविवार की रात एलुरु से फिर किसी सरकारी या प्राइवेट सर्विस की बस से हैदराबाद लौट आतीं। 1998 से 2000 तक पद्मिनी को इसी तरह से काम करना पड़ा। वीकडेज़ पर ऑफ़िस का काम और सिर्फ वीकेंड परिवार यानी पति और बेटे के साथ। हैदराबाद में जितने दिन पद्मिनी ने काम किया, वे लेडीज़ हॉस्टल में रहीं, लेकिन जब पद्मिनी का परिवार हैदराबाद आकर बस गया तब भी पद्मिनी अपने परिवार के साथ ज्यादा समय नहीं बिता पायीं। नौकरी के सिलसिले में ही उन्हें बैंगलोर जा कर रहना पड़ा। पद्मिनी के बताया," 2003 में मुझे बड़ा ब्रेक मिला। मुझे आईबीएम में नौकरी मिल गयी। मैंने आईबीएम बैंगलोर में सिर्फ पाँच महीने की काम किया लेकिन यहाँ काम करने का अनुभव आगे चलकर मेरे लिए बहुत काम आया।"

 पद्मिनी ने दो साल बिरला सॉफ्ट के लिए भी काम किया। यहीं उन्हें अमेरिका जाने का मौका मिला। जिसे पद्मिनी अपने नौकरीपेशा जीवन की सबसे बड़ी कामयाबी मानती हैंवह बताती हैं, 

"2005 में जब बिरला सॉफ्ट की शुरुआत हुई थी तो मैं कंपनी की पाँचवीं कर्मचारी थी। यहाँ मुझे नॉएडा में ऑन साइट प्रोजेक्ट मैनेजर बनाया गया था। यहीं पर काम करते हुए मुझे हेच 1 वीसा मिला । मुझे पहली बार अमेरिका जाने का मौका मिला था। मैं कंपनी के एक असाइनमेंट पर अमेरिका गयी। अमेरिका में मैं जीपी मॉर्गन चेस एंड कंपनी से एक मिलियन डॉलर का करार करवाने में कामयाब हुई थी। ये मेरे जैसी कर्मचारी के लिए बड़ी उपलब्धि थी।"

पद्मिनी जब अपनी इस कामयाब अमेरिका-यात्रा के बार में बता रही थीं तब उनके चहरे पर ख़ुशी साफ़ छलक रही थी। रोके नहीं रुकने वाली उस ख़ुशी के साथ पद्मिनी ने कहा,

" उस समय भी मेरी अंग्रेज़ी उतनी अच्छी नहीं थी। मेरी शिक्षा ग्रामीण परिवेश में हुई थी। शुरुआती पढ़ाई में तेलुगु में थी। मैंने पहले कभी इस तरह के बड़े समझौतों के लिए किसी से बात भी नहीं की थी। ऊपर से जेपी मॉर्गन चेस कंपनी बहुत ही मशहूर थी। मेरे ऑफिस में भी कोई इस तरह की बड़ी डील की उम्मीद मुझसे नहीं कर रहा था, लेकिन मैं कामयाब रही। वो दिन मैं कभी भी भूल नहीं सकती। नौकरी करते हुए वो मेरी अब तक की सबसे बड़ी कामयाबी है।"

बिरला सॉफ्ट में काम करने के दौरान ही पद्मिनी को उस समय की मशहूर कंपनी सत्यम ने नौकरी का ऑफर मिला। ऑफर अच्छा था, तनख़्वा तगड़ी थी। पद्मिनी ने नोएडा में बिरला सॉफ्ट की नौकरी छोड़कर बैंगलोर में सत्यम के लिए काम करना शुरू किया, लेकिन जब 2009 में सत्यम में काफ़ी उथल-पुथल हुई तब पद्मिनी ने अपने दूसरे साथियों की तरह यहाँ नौकरी छोड़ दी। सत्यम में पद्मिनी की रुतबा बहुत बड़ा था। बीस क्लाइंट थे। यानी बीस अकाउंट वे खुद हैंडल कर रही थीं। 600 कर्मचारियों की वे लीडर थीं। सत्यम की नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने कुछ महीने नारॉस में काम किया। इसके बाद उन्होंने एक्सेंचर कंपनी ज्वाइन की। यहाँ वे सीनियर डिलीवरी मैनेजर बनीं। यानी कंपनी में उनका ओहदा एसोसिएट वाईस-प्रेजिडेंट का था। तीन साल एक महीने तक एक्सेंचर के लिए बैंगलोर में काम करने के बाद यूएसटी ग्लोबल में पद्मिनी ने शोहरत कमाई। इस कंपनी के लिए पद्मिनी ने केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम जाकर काम किया। पद्मिनी ने ज्यादातर समय नौकरी अपने घर से दूर ही की। उनका ज्यादातर नौकरीपेशा जीवन बैंगलोर में बीता। कुछ साल नॉएडा में एक साल तिरुवनंतपुरम में।

जितने दिन पद्मिनी ने बैंगलोर में काम किया उतने दिन भी वे अपने पति और बेटे से वीकेंड यानी शनिवार और रविवार को ही मिल पायीं। यहाँ भी वे हैदराबाद और बैंगलोर से बीच वीकेंड पर बस से ही सफ़र करतीं। कभी कभार हवाई जहाज़ से आती-जातीं। जब तिरुवनंतपुरम में थीं, तब हवाई जहाज़ से ही आना-जाना संभव हो पाता। 

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1998 से हैदराबाद में शुरू हुआ पद्मिनी का नौकरीपेशा जीवन 2014 तक लगातार चलता रहा। इन 16 सालों में पद्मिनी के कई तकलीफ़ें झेलीं। कई समस्याओं का सामना किया। ज्यादातर समय परिवार से दूर रहीं। लगातार काम करती रहीं। कभी न थकीं और न ही रुकीं। मेहनत, लगन और क़ाबिलियत के बूते लगातार तरक़्क़ी की। ऊँचे ओहदों पर काम किया और ख़ूब नाम कमाया। पद्मिनी ने अपनी कामयाबियों से कई बातें साबित कीं। साबित किया कि महिलाएँ भी नौकरीपेशा जीवन अपना सकती हैं, पुरुषों के सामान दिन-रात एक कर काम कर सकती हैं। आईटी और सॉफ्टवेयर की दुनिया में भी महिलाएँ किसी भी मायने में पुरुषों से पीछे नहीं हैं।

पद्मिनी ने नौकरीपेशा जीवन की एक बहुत बड़ी और महत्वपूर्र्ण बात ये भी उन्होंने नौकरी करते भी कई बेरोज़गारों को नौकरी दिलवाई है। जब पद्मिनी हैदराबाद में काम कर रही थीं तब उन्होंने युवाओं को "टेस्टिंग टूल्स" का ज्ञान दिया। यानी युवाओं को आईटी कंपनियों के इस्तेमाल किये जाने वाले सॉफ्टवेयर प्रोग्रम्स, टेक्नोलॉजी और टूल्स की जानकारी दी। नौकरी करते हुए ही पद्मिनी ने अलग-अलग समय, अलग-अलग जगह आठ शिक्षण संस्थाओं में युवाओं को आईटी कंपनियों में नौकरी के लिए ज़रूरी ट्रेनिंग दी। एक तरफ़ नौकरी तो दूसरी तरफ बेरोज़गार युवाओं को शिक्षण और प्रशिक्षण।

पद्मिनी ने बताया कि जब वे कंपनियों के लिए यूएस टाइम के हिसाब से काम करती थीं तब भारतीय समय के हिसाब से सुबह में उन्हें काम करने का काफी समय मिलता था। वे कंपनी के लिए भारतीय समयानुसार दोपहर 2. 30 से रात 10. 30 काम करती थी। और सुबह 6 बजे से दोपहर एक बजे तक वे अलग-अलग संस्थाओं में युवाओं को प्रशिक्षण देती थी। वे सोमवार से शुक्रवार हर दिन सोलह घंटे काम करती थीं। और जब वीकेंड पर दो दिन की छुट्टी मिलती तब बस का लम्बा सफ़र तय कर परिवार से मिलने चली जातीं। 

पूरे 16 साल पद्मिनी ने इसी तरह दिन-रात मेहनत कर बिताये। इस दौरान उन्होंने दस हज़ार से ज़्यादा युवाओं में ज्ञान बाँटकर उन्हें रोज़गार दिलवाया। पद्मिनी कहती हैं," युवाओं को कम्प्यूटर की भाषा सिखाने में मुझे बड़ा मज़ा आता है। मैंने जो सीखा और समझा वही युवाओं को बताया और सिखाया। मेरे पास जो युवा आते थे, मैं उन्हें उनकी क़ाबिलियत के हिसाब से उन्हें नौकरी के अवसर दिखाती थी। इंटरव्यू कैसे देना है ये भी समझाती थी। मेरे पास ज़्यादातर लोग ऐसे आते थे जो ग्रामीण परिवेश से होते थे। चूँकि मैं भी ग्रामीण परिवेश से ही हूँ मैं उनकी दिक्क़तों को समझती हूँ। मैं कोशिश करती कि उन्हें टेक्नोलॉजी और टूल्स का ज्ञान देने के अलावा उनका उत्साह और हौसला भी बढ़ाऊँ। मुझे लगता है मैं काफ़ी हद तक कामयाब रही हूँ।"

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ख़ास बात तो ये भी है कि पद्मिनी ने जिन-जिन कंपनियों के लिए नौकरी की, वहाँ उनकी ज़िम्मेदारियों में एक ज़िम्मेदारी ये भी थी कि अर्ज़ी देने वाले उम्मीदवारों का इंटरव्यू कर सही लोगों को नौकरी पर रखे। इस तरह से भी उन्होंने कई लोगों को नौकरियाँ दीं।

यहाँ बड़े महत्त्व की बात ये भी है कि पद्मिनी के लिए नौकरी करना ज़रूरी नहीं था। उनके पति अमीर और रसूक़दार हैं। घर-परिवार में धन-दौलत की कोई कमी नहीं है। ख़ूब ज़मीन-जायदाद है। बावजूद इसके पद्मिनी ने नौकरी की। डॉक्टर बनने के अपने सपने को पूरा न कर पाने की वजह से वे निराश तो हुईं थीं, लेकिन माँ-बाप ने उन्हें ज़िंदगी जीने का तरीक़ा बताया था। ख़ासतौर पर माँ की उस चिट्ठी ने पद्मिनी को नया रास्ता दिखाया था, उन्हें उनके जीवन का मक़सद समझाया था। पद्मिनी कहती हैं," मेरे पति और मेरे बेटे ने हमेशा मेरी मदद की। पूरा साथ दिया। मेरा बेटा जब सिर्फ़ आठ साल का था, तभी उसने मुझे कहा था - माँ, तुम नौकरी करो।... परिवार का सहारा न होता तो मैं इतना आगे न बढ़ पाती। युवाओं को रोज़गार नहीं दिला पाती। घर में रहकर घर के कामकाज ही करती।"

सोलह साल तक अलग-अलग कंपनियों के लिए अलग-अलग ओहदों पर अलग-अलग जगह नौकरी करने के बाद पद्मिनी ने अपनी कंपनी खोलने का फ़ैसला लिया था। यूएसटी ग्लोबल कंपनी में वाईस-प्रेजिडेंट के बड़े ओहदे वाली नौकरी छोड़कर पद्मिनी हैदराबाद आ गयीं। उन्होंने संहिता सॉफ्ट नाम से अपनी कंपनी खोली। ये कंपनी युवाओं को ट्रेनिंग देकर उन्हें अच्छी-अच्छी कंपनियों के लिए नौकरियों पर लगवाने का काम कर रही है। इतना ही नहीं ये संहिता सॉफ्ट बड़ी-बड़ी कंपनियों के कई सारे प्रोजेक्ट आउटसोर्स करती है।  कंपनी शुरू करने का कारण भी एक दिलचस्प घटना है। पद्मिनी ने बताया,

" एक दिन राज्य सड़क परिवहन निगम का एक कर्मचारी मेरे पास आया। उसने मुझे अपनी सैलरी बुक दिखायी और साथ ही अपने लड़के की पे-स्लिप भी। उसने मुझसे कहा कि सालों काम करने के बाद भी मेरी तनख़्वा पाँच से आठ हज़ार हैं और आपने मेरे बेटे को उसकी पहली नौकरी में ही पचपन हज़ार की नौकरी दिलवा दी। उस कर्मचारी ने सलाह दी कि मुझे अपना पूरा समय युवाओं को नौकरी दिलाने में ही लगाना चाहिए। मुझे उसकी ये सलाह अच्छी लगी और मैंने अपनी खुद की कंपनी शुरू कर ली।"

एक सवाल के जवाब में पद्मिनी ने कहा," अब मैं पॉजिटिव पर्सन हूँ। बचपन में मैं क्लास लीडर थी। स्कूल लीडर भी नहीं। मैं शुरू से ही लीडर थी, लेकिन डॉक्टर न बन पाना मेरे लिए कुछ दिन तक परेशानी और मायूसी का कारण था। माता-पिता की वजह से मैं संभल गयी। और आगे अपने पति और बेटे की मदद से अपने सपने साकार किये। मुझे इसी बात की सबसे ज्यादा ख़ुशी है कि मैं दस हज़ार से ज़्यादा लोगों को सॉफ्टवेयर के फ़ील्ड में नौकरी दिलवाने में कामयाब हुई।" 

पद्मिनी ने ये भी बताया कि स्वामी विवेकानंद के विचारों से उन्हें प्रेरणा मिलती है। जब कभी वे उदास या निराश होती हैं तो स्वामी विवेकानंद की किताबों को पढ़ती हैं। इन किताबों से उन्हें ऊर्जा मिलती है।

 पद्मिनी के बेटे संदीप भी अब एक उद्यमी हैं। माँ फक़्र के साथ कहती हैं," मेरे बेटे ने भी अपनी अलग राह चुनी हैं। उसने फ़ूड इंडस्ट्री में कदम रखा हैं। उसने कई रेस्तरां और कॉफ़ी शॉप खोले हैं। अब मैं उसकी कामयाबी देखती हूँ।"