74 वर्षीय स्नेहलता पेंशन के पैसों से चलाती हैं गरीब बच्चों का एक अनोखा स्कूल
अच्छा सोचिए कि आप जब 60-70 की उम्र के हो जाएंगे, नौकरी-पेशे वाली जिंदगी से मुक्त हो जाएंगे तो क्या करेंगे? कभी सोचा भी है, कि नहीं?अधिकतर लोग यही सोचते होंगे, कि अभी सेव किए गए पैसों से ऐश की जिंदगी जिएंगे और पुराने दिनों को याद करेंगे। काफी लोग तो पैसे भी इसीलिए इन्वेस्ट करते हैं, ताकि उस पड़ाव में पहुंचने के बाद उन्हें कोई तकलीफ न हो। लेकिन 74 साल की एक महिला की कहानी सुनकर शायद आप भी अपना प्लान बदल लें...
74 वर्षीय स्नेहलता अपने एनजीओ के बच्चों के साथ: फोटो साभार connectcolony.coma12bc34de56fgmedium"/>
स्नेहलता को लोग गौरव मां के नाम से भी जानते हैं। 74 वर्षीय स्नेहलता खुद गरीबों की बस्ती में जाती हैं और लोगों को समझाती हैं कि बच्चों को काम पर भेजने के बजाय पढ़ने के लिए भेजो।
2005 में स्नेहलता ने 'गौरव फाउंडेशन फॉर ह्यूमन ऐंड सोशल डेवलेपमेंट' नाम से एनजीओ बनाया। गुड़गांव के सेक्टर 43 में स्थित उनके स्कूल में दिहाड़ी मजदूर और रिक्शा चलाने वाले जैसे गरीब लोगों के बच्चे पढ़ने आते हैं। ये स्कूल जब शुरू हुआ था, तो स्कूल में सिर्फ 20 बच्चे थे और की तारीख में यहां करीब 200 के आसपास बच्चे अपना भविष्य संवार रहे हैं।
74 वर्षीय स्नेहलता हुड्डा पहले दिल्ली के सरकारी स्कूल में पढ़ाती थीं। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने गरीब बच्चों के लिए काम करना शुरू कर दिया। उनके लिए स्कूल खोल दिया। स्नेहलता ने 'गौरव फाउंडेशन फॉर ह्यूमन ऐंड सोशल डेवलेपमेंट' नाम से एक एनजीओ बनाया। गुड़गांव के सेक्टर 43 में स्थित उनके स्कूल में दिहाड़ी मजदूर और रिक्शा चलाने वाले जैसे गरीब लोगों के बच्चे पढ़ने आते हैं। वर्ष 2005 में जब उन्होंने स्कूल की शुरुआत की थी, तो स्कूल में सिर्फ 20 बच्चे थे। आज लगभग 200 बच्चे इस स्कूल में पढ़ते हैं। स्नेहलता को लोग गौरव मां के नाम से भी जानते हैं। वे खुद गरीबों की बस्ती में जाती हैं और लोगों को समझाती हैं कि बच्चों को काम पर भेजने के बजाय पढ़ने के लिए भेजो। बच्चों को काम के लिए भेजना माता-पिता के लिए आसान होता है और उससे उन्हें अतिरिक्त पैसे भी मिलते हैं, लेकिन गौरव मां के समझाने पर उस इलाके के लोग अब समझदार हो रहे हैं।
"गौरव मां अपने दौर को याद करते हुए बताती हैं, कि उस वक्त लड़कियों को स्कूल पढ़ने के लिए नहीं भेजा जाता था। उन्हें घर के काम करने और बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी पकड़ा दी जाती थी। वह कहती हैं, 'उस दौर में तो लड़कियों को अपना सर भी ढंक के रखना पड़ता था। उन्हें मर्दों के सामने बोलने की भी इजाजत नहीं होती थी।' हालांकि ये उनका सौभाग्य था कि उनके माता-पिता की सोच ऊंची थी इसलिए उन्हें स्कूल पढ़ने के लिए भेजा गया।"
गौरव मां का स्कूल उनके पेंशन से चलता है। इसके अलावा उन्हें थोड़ी बहुत मदद कुछ अच्छे लोगों से मिल जाती है। समय-समय पर लोग बच्चों के लिए कॉपी-किताबें और बाकी सामान दान करते रहते हैं। उन्होंने कहा, कि पैसे कम होने की वजह से थोड़ी मुश्किल तो होती है, लेकिन अगर सच्चा दिल हो तो पहाड़ भी हिलाए जा सकते हैं। वह कहती हैं, कि गरीब बच्चों को शिक्षित करना हमारा कर्तव्य है। बच्चों को फ्री में पढ़ाने के अलावा वे यूनिफॉर्म, किताबें और खाना भी उपलब्ध कराती हैं। स्कूल में अंग्रेजी मीडियम में पढ़ाई होती है और गौरव मां इस बात पर गर्व करती हैं। क्योंकि उनका मानना है कि आगे की पढ़ाई के लिए अंग्रेजी बहुत जरूरी है और इन बच्चों को वहां तक पहुंचना है।
गर्मी की छुट्टियों में गौरव मां कुछ वॉलेन्टियर्स को अपने स्कूल में बुलाती हैं और बच्चों को पढ़ाने का काम देती हैं। कोई भी इस स्कूल में आकर बच्चों की मदद कर सकता है। उन्हें नई चीजें सिखा सकता है। रबींद्र नाथ टैगोर द्वारा स्थापित प्रसिद्ध संस्थान शांतिनिकेतन गौरव मां का प्रेरणास्त्रोत है। वे चाहती हैं, कि गौरव निकेतन के बच्चे भी बड़े सपने देखें और सफलता के शिखर तक पहुंचें।