टॉयलट बनवाने के लिए लोन देता है यह संगठन, बदल रहा गावों की तस्वीर
यह लोन घर में शौचालय बनवाने, स्नानगृह बनवाने या फिर पानी की लाइन डलवाने जैसे कामों के लिए मिलता है। लोन की राशि से होने वाला निर्माण कार्य भी 'ग्रामालय' की निगरानी में होता है।
पहले शौच के लिए उन्हें जल्दी सुबह, सूरज उगने से पहले खुले मैदान में जाना पड़ता था। अगर दिन के वक्त उन्हें शौच की जरूरत महसूस होती तो उनके पास कोई विकल्प नहीं होता था।
आपने छोटे स्तर पर बिजनेस आदि शुरू करने के लिए माइक्रो-फाइनैंस के बारे में सुना होगा, लेकिन क्या आप जानते हैं कि टॉयलट बनवाने के लिए भी मिलता है लोन। हम बात करने जा रहे हैं, 'ग्रामालय' नाम के एक संगठन की। इसकी शुरूआत तीन दशक पहले हुई थी और इतने लंबे वक्त से यह संगठन भारत के ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता और वहां के रहवासियों का अच्छा स्वास्थ्य सुनिश्चित करने की दिशा में काम कर रहा है। खुले में शौच की गंभीर समस्या से निजात पाने के लिए 2004 में संगठन ने माइक्रोलोन प्रोग्राम (छोटे स्तर पर कर्ज की व्यवस्था) भी शुरू किया, जिससे बड़े स्तर पर बदवाल को दिशा मिल सकी।
पहले नहीं थी ऐसी व्यवस्था
'ग्रामालय', महिला स्वयं-सहायता समूहों (वुमन सेल्फ हेल्प ग्रुप्स) को लोन देता है। समूह के सदस्य जरूरतमंदों के बीच लोन की राशि वितरित कर देते हैं। मुख्य रूप से यह लोन 2 साल की अवधि के लिए दिया जाता है और इसकी ब्याज दर भी कम रहती है। यह लोन घर में शौचालय बनवाने, स्नानगृह बनवाने या फिर पानी की लाइन डलवाने जैसे कामों के लिए मिलता है। लोन की राशि से होने वाला निर्माण कार्य भी 'ग्रामालय' की निगरानी में होता है। इस प्रोग्राम के पहले तक औपचारिक रूप से इस तरह के कामों के लिए लोन नहीं मिलता था। अनौपचारिक रूप से जो लोन मिलता था, उसकी ब्याज दर अधिक हुआ करती थी। इस वजह से सामान्य और जरूरतमंद लोग कर्ज लेने से कतराते थे।
महिलाओं को मिली बड़ी राहत
तमिलनाडु के उतंडपुरम की रहवासी असमा ने, शौचालय बनने के बाद अपने रोजमर्रा के जीवन में आए बदवालों के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि पहले शौच के लिए उन्हें जल्दी सुबह, सूरज उगने से पहले खुले मैदान में जाना पड़ता था। अगर दिन के वक्त उन्हें शौच की जरूरत महसूस होती तो उनके पास कोई विकल्प नहीं होता था। ऐसे में महिलाओं को कई अंदरूनी बीमारियों से जूझना पड़ता था।
कर्नाटक के रायचुर जिले की एक प्राइमरी स्कूल टीचर महादेवी ने बताया कि कुछ समय पहले तक गांव की महिलाओं को लगभग एक किलोमीटर दूर खुले में शौच के लिए जाना पड़ता था। ऐसे में सबसे ज्यादा तकलीफ बुजुर्ग, विकलांग और गर्भवती महिलाओं को होती थी। अब घरों में शौचालय बनने के बाद बहुत राहत मिली है।
समस्या सिर्फ शौचालय नहीं, सोच की भी
'ग्रामालय' के संस्थापक और निदेशक एस. दामोदरन से बात करने पर पता चला कि गांवों में या घरों में शौचालय बनवाने की बात को ग्रामीणों ने सहजता से स्वीकार नहीं किया, जबकि समस्या वे खुद ही जूझ रहे थे। दिनाकरन बताते हैं कि ग्रामीणों के साथ इस दिशा में कई चरणों में काम होता है। उन्होंने बताया कि पहले तो लोगों को शौचलय न होने के चलते पनपने वाली समस्याओं के बारे में जागरूक किया जाता है। इसके बाद उन्हें इस बात का अहसास कराया जाता है कि इन समस्याओं को दूर करने के लिए कौन से कदम उठाए जा सकते हैं। तीसरे चरण में गांव वालों के साथ मिलकर एक पूरा सहयोगी तंत्र तैयार किया जाता है। तब कहीं जाकर चौथे चरण में शौचालय आदि के निर्माण का काम शुरू होता है।
हर साल मर रहे लाखों बच्चे
रिपोर्ट्स के मुताबिक, हर साल एचआईवी, मलेरिया और टीबी की अपेक्षा डाइरिया से संबंधित बीमारियों से अधिक बच्चों की मौत होती है। भारत में हर साल 2,75,000 बच्चे, जो 5 साल की उम्र से कम हैं; उनकी मौत डाइरिया से होती है। ये बीमारियां गंदे पानी आदि के संक्रमण से होती हैं। 2015 में हुए नैशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की स्वच्छता स्टेटस रिपोर्ट के मुताबिक, देश की ग्रामीण आबादी का लगभग आधा हिस्सा (52.1 प्रतिशत) खुले में शौच करता है।
घर में शौचालय नहीं, कोर्ट ने बताया शारीरिक क्रूरता
राजस्थान में पारिवारिक मामलों की अदालत के एक जज ने एक मामले में सुनवाई के दौरान तय किया महिलाओं को शौच या स्नान के लिए उपयुक्त स्थान न उपलब्ध कराया जाना भी तलाक का आधार हो सकता है। महिलाओं को खुले में शौच के लिए मजबूर करना, उनके साथ न सिर्फ शारीरिक क्रूरता है, बल्कि उनकी अस्मिता को भी ठेस पहुंचाना है।
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