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‘गंगा-वापसी’ : एक और भगीरथ प्रयास

“पर्यावरण को होने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति अब संभव नहीं है लेकिन फिर भी हम इस दुर्दशा को जनता के सामने लाकर उनमें जागरूकता पैदा कर सकते हैं, जिससे कम से कम भविष्य में होने वाले नुकसान से बचा जा सके।”-नसीरुद्दीन शाह

‘गंगा-वापसी’ : एक और भगीरथ प्रयास

Friday July 17, 2015 , 6 min Read

गंगा! भारत की सबसे लंबी और हिंदू संप्रदाय के लिए सबसे पवित्र नदी, लाखों-करोड़ों की जीवनरेखा एक जमाने में शरीर और आत्मा की सभी अशुद्धियों को परिष्कृत करने वाली नदी मानी जाती थी। गंगा नदी पर स्थापित असंख्य जल-विद्युत परियोजनाओं के चलते अब यही शुद्ध करने वाला पवित्र गंगाजल सूखने लगा है। यहाँ तक कि जब गंगा को विश्व की पाँच सबसे अधिक प्रदूषित नदियों की श्रेणी में रखा गया तब भी हम न चेते। गंगा की दुर्दशा पर किए जाने वाले शोधपत्र, रिपोर्टें और समाचार-सूचनाएँ एवं उनसे प्रेरित होकर गंगा को बचाने के लिए किए जाने वाले बचाव कार्य आज समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बन रहे हैं, महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ उन पर विशेषांक निकाल रही हैं और टीवी पर उनसे संबंधित कार्यक्रम प्राइम टाइम स्लॉट (शाम के सबसे उपयुक्त प्रसारण समय) में प्रदर्शित किए जा रहे हैं। 

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नदी किनारे रहने वाले लोग, विकास-उत्साही, राजनेता, ऊर्जा कंपनियाँ और उनकी लॉबियाँ, धार्मिक समूह, पर्यावरणविद, भूवैज्ञानिक, भूकंप-विशेषज्ञ-सभी गंगा को लेकर अपनी अलग-अलग परिकल्पनाएँ और विचार रखते हैं, जो गंगा की व्यथा को और अधिक जटिल बना देते हैं। गंगा पर बने बांधो की कोई गिनती नहीं है, नदी को प्रदूषित करने वाले अनगिनत रसायन नदी में बहा दिए जाते हैं, दोहन करने वाले निहित स्वार्थ अनेकों हैं और इन सभी पर किए जाने वाले सुधारात्मक उपाय भी संदेहास्पद हैं। और फिर इन उपायों के क्रियान्वयन से पहले ही भ्रष्टाचार के समाचार! यह सब हमें बहुत व्याकुल करता है।

मार्तण्ड बिंदाना

मार्तण्ड बिंदाना


'गंगा के प्रेम में पागल' भाई-बहन, मार्तण्ड बिंदाना और वल्ली बिंदाना ने अपनी गंगा परियोजना (Ganga Project) के ज़रिए नदी को बचाने के संभव उपायों के बारे में लोगों को जागरूक करने का बीड़ा उठाया है। नगण्य अनुभव और बहुत कम धनराशि लेकर शुरू की गई इस परियोजना पर, जिसमें लाभ की छोड़िए, धन वापसी की सम्भावना का भी अता-पता नहीं है, बात करने पर वल्ली ने बताया, “गंगा की वापसी एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म है, जिसके 3 हिस्से हैं और जो धरती, पानी और मानव संसाधनों के दोहन और उनके संरक्षण के बीच चलने वाले अत्यंत अराजक और तनावपूर्ण विवाद को दर्शाती है। गंगा नदी पर निर्मित अनगिनत बांधों के चलते उसका सूखते जाना फ़िल्म के कथ्य के मूल में है। नदी पर कार्यान्वित हो रही 600 से अधिक बिजली परियोजनाओं से गंगा को बचाने के विकल्पों को इस फिल्म में विस्तार से दिखाया गया है। व्यापक रूप से हो रहे वैश्विक परिवर्तनों के बरक्स उपलब्ध विकल्पों का जायज़ा भी इस फिल्म में लिया गया है कि किस प्रकार सुनियोजित तरीके से इस काम में जुटकर हम इस विपत्ति से बाहर निकल सकते हैं और मानव अस्तित्व की लगातार सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं।”

वल्ली बिंदाना

वल्ली बिंदाना


मार्तंड और वल्ली की सितंबर 2012 में शुरू हुई यह यात्रा अत्यंत रोमांचक, नाटकीय और मनोरंजक रही। सिर्फ दो सदस्यों की इस टीम ने शोध किए, स्क्रिप्ट लिखी और आज भी फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में कठिन यात्राएँ करते हैं, जिसमें फिल्म का संपादन और प्रचार कार्य भी शामिल है। धन की कमी के चलते फिल्म निर्माण में कई बार व्यवधान उपस्थित होता रहा। जब हम देखते हैं कि इस समस्या के हल के लिए सैकड़ों परियोजनाएँ बनी पर उनका कोई ठोस प्रभाव अब तक दिखाई नहीं दिया तो हम निराश होकर सोचते हैं कि लोग इस बारे में गंभीर नहीं हैं और समस्या के हल की दिशा में कोई काम नहीं करना चाहते लेकिन वल्ली का अनुभव कुछ दूसरी बात कहता है।

‘गंगा की वापसी’ को इस दौरान भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय संरक्षणवादियों की ओर से ज़बरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ है। हालांकि “विद्युत, पर्यावरण एवं ग्रामीण विकास मंत्रालय हिचकिचा रहे हैं, हम वाकई चाहते हैं कि वे सामने आकर अपने विचार और अपना दृष्टिकोण रखें। परंतु हमारी भरपूर कोशिशों के बाद भी अब तक ऐसा नही हो पाया,” वल्ली कहती है।

धन जुटाना अपने आप में एक और चुनौती थी। इसके लिए पर्याप्त समय की दरकार थी और वे चाहते थे कि किसी तरह फिल्म मानसून के दौरान या उसके तुरंत बाद लोकार्पित हो जाए, क्योंकि श्रीनगर घाटी डूब जाने वाली थी। समय कि कमी और पर्याप्त धन की व्यवस्था न हो पाने की वजह से, आधे मन से और सामान्य लोगों से प्राप्त चंदे की मदद से वे शोध में लग गए, समस्या की गहराई में जाने का भरसक प्रयास किया, इस विषय पर दशकों से काम कर रहे लोगों के विचार जाने, उपकरण प्राप्त किए और उन्हें चलाना सीखा। “अभी भी शूटिंग का कुछ काम बचा रह गया है और हमारे पास एक लाख से भी कम रकम बची है,” वल्ली ने हँसते हुए बताया।

शूटिंग के अलावा भी मार्तंड और वल्ली कि यात्रा भावनात्मक रोमांच से भरी हुई थी। एक तरफ ऐसे लोग थे, जो उनके कार्य को निरर्थक बता रहे थे, उसे समय कि बर्बादी कह रहे थे और मज़ाक उड़ा रहे थे कि इससे कुछ होने-जाने वाला नहीं है। दूसरी तरफ जाने-माने अभिनेता, नसीरुद्दीन शाह जैसे लोग थे, जो इस परियोजना को बिना-शर्त सक्रिय समर्थन देने के लिए तैयार थे। नसीरुद्दीन शाह कहते हैं, “गंगा परियोजना को दिए जा रहे मेरे समर्थन और सहयोग जैसे मामूली योगदान को इतना तूल नहीं दिया जाना चाहिए। हमें इस साल उत्तराखण्ड में आई भीषण तबाही और लगभग हर साल आने वाली उन प्राकृतिक आपदाओं को ध्यान में रखना चाहिए और समझना चाहिए कि यह हमारा सम्मिलित उत्तरदायित्व है कि हम अपनी प्राकृतिक सम्पदाओं को उन पिशाचों और दुष्ट लुटेरों से बचाने की कोशिश करें या उन्हें रोकें या कम से कम उनका निषेध करें, जो जंगल की गैरकानूनी कटाई करते हैं, खनिजों के लालच में पहाड़ों की नैसर्गिक सम्पदा का अनैतिक दोहन कर रहे हैं और जो वैकल्पिक योजनाओं की अनदेखी करते हुए बड़े-बड़े अनावश्यक बांधों का निर्माण किए चले जा रहे हैं। इनमें से ज़्यादातर क्षतियाँ अपरिवर्तनीय है और उनकी क्षतिपूर्ति अब संभव नहीं है लेकिन फिर भी हम इस दुर्दशा को जनता के सामने लाकर उनमें जागरूकता पैदा कर सकते हैं, जिससे कम से कम भविष्य में होने वाले नुकसान से बचा जा सके। शायद बहुत देर हो चुकी है मगर ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’! कम से कम हमें संतोष होगा कि हमने कोशिश तो की!”

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व्यापक पैमाने पर देखा जाए तो सिर्फ गंगा की नहीं, किसी भी बड़ी नदी की तबाही की कहानी लगभग एक जैसी होती है। “हमने गंगा को इसलिए चुना कि हमारे विचार में अगर हम सब मिलकर गंगा को बचा सके तो भारत की दूसरी नदियों को सुरक्षित रख पाने की उम्मीद बची रहेगी,” वल्ली कहती हैं।

उन सभी के लिए इस सहोदर जोड़ी का मन सराहना से ओतप्रोत है, जिन्होंने इस परियोजना को किसी भी प्रकार का समर्थन और सहयोग प्रदान किया। अब वे नीति-निर्धारकों के सामने अपनी फिल्म का प्रदर्शन करने की आशा रखते हैं और चाहते हैं कि सरकार में ऐसे जाँबाज पैदा हों, जो पर्यावरण के गंभीर मामलों में सकारात्मक हस्तक्षेप कर सकें। उनकी यह भी कोशिश है कि पर्यावरण लोगों की दैनिक चर्चा और कार्यवाही का हिस्सा बने। इस हेतु वे शहरी जनता को ग्रामीण परिवेश और वहाँ की समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाने और इस बात का एहसास कराने के काम में जुटे हुए हैं कि बेहतर विकल्प मौजूद हैं और हमें परिवर्तन की मांग करनी चाहिए।

यदि आप “गंगा की वापसी” परियोजना को अपना सहयोग प्रदान करना चाहते हैं तो यहाँ संपर्क कर सकते हैं