सुर के बिना जीवन सूना
संगीत जीवन जीने की कला है-सुभद्रा देसाईक्लासिकल गायकी में अहम स्थान पाने वाली सुभद्रा देसाईसंगीत के लिए दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में शिक्षक पद से इस्तीफा
प्रसिद्ध हिन्दुस्तानी क्लासिकल गायिका सुभद्रा देसाई कहती हैं-"संगीत उनके माता-पिता का प्यार था इसलिए मैंने इसे सीखना शुरू किया। सीखते-सीखते यह मेरी जिंदगी का प्रेरणास्रोत बन गया और यह सब अचानक हुआ। वक्त बीतने के साथ संगीत सीखना, गाना गाना, संगीत के पुराधाओं को सुनना, रियाज करते देखना, उनसे संगीत की बारीकियां सीखना, शोध करना और प्रस्तुति देना आदि मेरे दिलोदिमाग पर हावी हो गया। मैंने अपने मन की पुकार को सुना। यह संगीत के प्रति आकर्षित थी। इसलिए मैंने दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में शिक्षक पद से इस्तीफा दे दिया।"
शुभद्रा का जन्म दक्षिण बंगाल स्थित कल्याणी में हुआ। वह जब दो साल की थीं तब उनका परिवार दिल्ली में आ गया। सुभद्रा याद करते हुए कहती हैं कि जहां तक मुझे याद है- "मेरे परिवार वाले हमेशा पठन-पाठन, संगीत और आध्यात्म में पूरी तरह डूबे रहते थे। पेशे से लेक्चरर होने के बावजूद मेरी मां बेहतरीन गायिका हैं। वहीं मेरे पिता इंजीनियर होने के बावजूद अपने जवानी के दिनों में वाद्य यंत्र इसराज बजाने में माहिर थे। मेरे कई करीबी अंकल व आंटी दिनभर इसराज, वॉयलन व अन्य वाद्य यंत्रों को बजाने में मशगूल रहते थे। उन दिनों संगीत के प्रति हमारे पूरे परिवार में जुनून था लेकिन तब किसी को इस बात का भान नहीं था कि यही संगीत एक दिन पेशा भी बन सकता है।"
संगीत का सफरनामा...
सुभद्रा ने संगीत क्षेत्र में अपने करियर की शुरुआत तब की जब वह महज पांच वर्ष की थीं। वह बताती हैं कि सांस्कृतिक रूप से इच्छुक किसी बंगाली परिवार की तरह उन्होंने भी एक स्थानीय संगीत शिक्षक के नेतृत्व में सीखना शुरू किया। समय बीतने के साथ जब वह परिपक्व होती गईं तब उन्हें अहसास हुआ कि संगीत ही उनका सच्चा प्यार है। सुभद्रा खुद को सौभाग्यशाली मानते हुए कहती हैं कि संगीत के क्षेत्र में शुरुआती दिनों में उन्हें दिल्ली स्थित गांधर्व महाविद्यालय के स्थापक प्रिंसिपल पंडित विनय चंद्र मौदगाल्य व श्रीमती पद्मा देवी के कुशल नेतृत्व मे सीखने का मौका मिला।
इसके बाद जल्द ही उन्होंने गुरू पंडित मधूप मुद्गल के नेतृत्व में संगीत की शिक्षा ली और धीरे-धीरे संगीत के प्रति उनका प्यार गहराता गया। अपने अनुभवों को साझा करते हुए सुभद्रा कहती हैं कि मधुप जी संगीत के प्रति निष्ठावान और नियमबद्ध थे। संगीत की बारीकियां बताते वक्त वह केवल और केवल संगीत पर ही फोकस्ड रहते थे। वह बताती हैं कि आठ सालों में उन्होंने संस्थागत प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया था। उसके बाद कई बरस तक उन्होंने मधुप जी से गुरू-शिष्य पद्धति आधारित पेशेवर बनने को संगीत शिक्षा ली और आज भी उनसे संगीत की बारिकियां सीखती हैं। कुछ समय के लिए सुभद्रा ने नेशनल फेलोशिप के तहत विदुषी मालिनी रजूरकार के कुशल नेतृत्व में भी संगीत सीखा।
संगीत सीखते-सीखते सुभद्रा को यह पता ही नहीं चला कि वह एक नौसिखिये से कब आत्मविश्वास से लबरेज प्रस्तुतकर्ता बन गईं। वह बताती हैं कि यह बदलाव स्वत: हुआ या फिर ऐसा कोई बदलाव हकीकत में हुआ ही नहीं। यह एक प्रक्रिया है जिससे हर एक कलाकार होकर गुजरता है। संगीत का सफर उतना ही आसान है जितना कि कठिन। संगीत का सफरनामा इसलिए खूबसूरत है क्योंकि यह सीधे आत्मा से जुड़ी चीज है। संगीत की बारीकियां सीखने की प्रक्रिया के दौरान स्वर और राग का संगम अंतरात्मा को खुशगवार बना देता है। यह कठिन इसलिए है क्योंकि संगीत सीखने से लेकर एक मुकाम तक पहुंचने में आप इकलौते होते हैं।
संगीत क्षेत्र में कुछ मुकाम...
हिंदुस्तानी क्लासिकल वोकल म्यूजिक के क्षेत्र में मणि मन फेलोशिप अवॉर्डसे सम्मानित होने वाली पहली शख्स सुभद्रा ने अपने जीवन में अब तक तमाम ऊंचाइयों को छुआ है।अपने संगीत के सफर का जिक्र करते हुए सुभद्रा खुद को गौरवान्वित महसूस करती हैं और खुद को खुशनसीब मानती हैं। उन्होंने अब तक तमाम प्रतिष्ठित त्योहारों व इवेंट्स के मौके पर प्रस्तुति दी हैं। दिल्ली में विष्णु दिगम्ब जयंती व तीन मूर्ति भवन में राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और देश के अन्य शीर्षस्थ लोगों के समक्ष प्रस्तुति देना उनकी सबसे प्रमुख उपलब्धियों में शुमार हैं। इसके अलावा उन्होंने दिल्ली के नेहरू पार्क में भक्ति उत्सव में दलाई लामा के समक्ष परफॉर्म किया है। तिरुपति व द्वारका के मंदिरों में, जर्मनी की बर्लिन यूनिवर्सिटी, वॉशिंगटन डीसी और यूएस के रोड आईलैंड में भी सुभद्रा ने परफॉर्म किया है। उनकी पहली किताब 'म्यूजिक इन वाल्मीकीज रामायण' को हॉवर्ड यूनिवर्सिटी ने अपनी लोएब लाइब्रेरी में जगह दी है। इसका विमोचन कश्मीर के प्रतिष्ठित राजा, विद्वान और राजनीतिज्ञ रह चुके डॉ. करण सिंह ने किया था।
करियर व पारिवारिक जीवन...
सुभद्रा अपने करियर के दौरान परिजनों की ओर से मिले साथ के लिए खुद को भाग्यशाली मानती हैं। वह कहती हैं कि "मेरे पति ने कदम-कदम पर संगीत को करियर बनाने के लिए सहयोग किया। मुझे जब कभी प्रस्तुति देने या शोध संबंधी काम के लिए यात्रा करनी होती थी तब मेरे पति व ससुराल वालों ने हमेशा साथ दिया। इसी की बदौलत मैं संगीत में करियर बनाकर पेशेवर संगीतकार बनने व भारत की ऐतिहासिक धरोहरों पर शोध के कामों में संतुलन बना पाई।" सुभद्रा ने 'सॉन्ग्स ऑफ सीयर्स एण्ड संत ऑफ इण्डिया' पर भी शोध किया है। इस काम को उन्होंने इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स की छत्रछाया में अंजाम दिया। शोध परक उन्होंने किताब लिखी जो प्रकाशनाधीन है। किताब के बारे में बताते हुए सुभद्रा कहती हैं कि "मुझे उन औरतों के जीवन से हमेशा प्रेरणा मिलती है जो अपनी अंतरात्मा की आवाज को आध्यात्मिक तौर-तरीकों से गानों के माध्यम से दुनिया के सामने लाती हैं। मैं ऐसी लेडी सिंगर्स के गाने गाकर भी खुद को गौरवान्वित महसूस करती हूं जो वैदिक संस्कृत, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मराठी, गुजराती, हिंदी, मारवाड़ी, ओडिय़ा, कश्मीरी या किसी अन्य मातृभाषा में गाती हैं।"
क्लासिकल संगीत की शुरुआत को लेकर सुभद्रा का मानना है कि इन दिनों यह बहुत प्रचलित है। इसे सिखाने वाले तमाम शिक्षक और समर्पित स्टूडेंट्स मिल जाएंगे। जबकि पहले ऐसा नहीं था। उनका कहना है कि पहले संगीत में परिवारवाद का अक्स नजर आता था। यह पीढिय़ों दर पीढिय़ों तक चलता था। लेकिन आज जिस किसी को भी इस क्षेत्र में खुद को काबिल बनाना है वह सीख सकता है। संगीत सीखने-सिखाने के पुराने तौर-तरीकों में केवल वही लोग मुकाम हासिल कर पाते थे जिनका ताल्लुक किसी म्यूजिकत घराने से हो। उस दौर में पारंपरिक तरीके से गुरू-शिष्य पद्धति प्रचलन में थी। हालांकि, अब यह सब धीरे-धीरे कम हो रहा है।
सुभद्रा कहती हैं- "आज तमाम नौसिखिए क्लासिकल म्यूजिक क्षेत्र में करियर बनाने में रुचि दिखा रहे हैं। लोग इसके जरिए खुद को किसी पेशेवर संगीतकार की तरह बनने की कल्पनाएं संजो रहे हैं। यहां तक कि तमाम औद्योगिक घरानों ने भी म्यूजिकल कंसर्ट्स को वित्तीय सहायता मुहैया कराना शुरू कर दिया है। यह शुभ संकेत है। खास बात तो यह है कि कई लोग संगीत को अपना पेशा बनाने को करियर की मुख्यधारा से खुद को अलग कर रहे हैं।
हालांकि, सुभद्रा का मानना है कि संगीत से जुड़े लोगों को पहले से ज्यादा इंटरैक्टिव होना पड़ेगा। उन्हें लगता है काम के एवज में संगीतकारों को मिलने वाली रकम पर्याप्त नहीं होती। युवा संगीतकारों को खुद के हालात पर नहीं छोड़ देना चाहिए। संगीतकारों के लिए उचित मंच व जॉब के अवसर मुहैया कराने होंगे ताकि उन युवा कलाकारों को इस क्षेत्र में आने का अफसोस न हो जिनका बड़े घराने से कोई ताल्लुकात नहीं। युवा संगीतकारों को प्रोत्साहित करते हुए सुभद्रा कहती हैं कि किसी भी कला का क, ख, ग सीखने के लिए दृढ़ता, अनुशासन व कड़ी मेहनत जरूरी हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो यही सफलता की कुंजियां हैं।