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कोई भूखा न सोये इसलिए ‘भूख के खिलाफ जंग’ छेड़ी और बनाया 'महोबा रोटी बैंक'

कोई भूखा न सोये इसलिए ‘भूख के खिलाफ जंग’ छेड़ी और बनाया 'महोबा रोटी बैंक'

Thursday November 26, 2015 , 8 min Read

‘‘ना मस्जिद को जानते हैं, न शिवाले को जानते हैं।

जिनके पेट खाली हैं, वो सिर्फ निवाले को जानते हैं।।


किसानों की दुर्दशा के अपने किस्सों के चलते देश और दुनिया की नजरों में आने वाले बुंदेलखंड के अति पिछड़े हुए इलाकों में से एक महोबा में स्थानीय युवा और कुछ बुजुर्ग ऐसा अनोखा बैंक संचालित कर रहे हैं जिसका सिर्फ एक ही मकसद है कि ‘‘भूख से किसी की जान न जाए’’। महोबा का बुंदेली समाज अपनी अनोखी पहल ‘महोबा रोटी बैंक‘ के माध्यम से यह सुनिश्चित कर रहा है कि क्षेत्र में कोई भी व्यक्ति गरीबी के चलते भूखा न सोए और इस प्रकार से यह लोग ‘‘भूख के खिलाफ जंग’’ का आगाज किये हुए हैं। महोबा का यह रोटी बैंक प्रतिदिन जरूरतमंदों और भूखों को घर की पकी हुई रोटी और सब्जी के स्वाद से रूबरू करवाता है।

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इस बैंक के मुखिया और महोबा बुंदेली समाज के अध्यक्ष हाजी परवेज़ अहमद यारस्टोरी को बताते हैं, ‘‘आज के समय में देश और दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूखे पेट सोने के मजबूर है। मुझे अपने आसपास के गरीब और लाचार लोगों की टीस काफी दिनों से कचोट रही थी। हमारे आसपास का कोई की बाशिंदा गरीबी या लाचारी के कारण भूखे पेट न सोने को मजबूर हो यही इरादा बनाकर मैंने अपने आसपास के 10-12 युवाओं को अपने साथ जोड़कर हजरल अली के जन्मदिन 15 अप्रैल से रोटी बैंक की शुरुआत की।’’ प्रारंभ में करीब दर्जन भर युवाओं को जोड़कर शुरू की गई यह सकारात्मक पहल जल्द ही पूरे इलाके के लोगों के बीच अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रही और वर्तमान में 60 से भी अधिक युवा उनके इस रोटी बैंक के सदस्य हैं।

महोबा रोटी बैंक से जुड़े करीब 60 से भी अधिक युवा अपने 5 बुजुर्ग अलम्बरदारों की रहनुमाई में प्रतिदिन शाम के समय महोबा के विभिन्न इलाकों में निकलते हैं और दो रोटी और थोड़ी सी सब्जी की आस में 700 से 800 घरों का दरवाजा खटखटाते हैं। इस प्रकार ये युवा कुछ घंटो की मेहनत करते हैं और फिर जमा की हुई रोटी और सब्जी को भाटीपुरा के अपने बैंक पर ले आते हैं जहां इनके पैकेट तैयार किये जाते हैं। रोटी बैंक से जुड़े एक सदस्य ओम नारायाण बताते हैं, ‘‘सबसे रोचक बात यह है कि हम किसी से भी रखी हुई या बासी रोट और सब्जी नहीं लेते हैं। जो भी व्यक्ति अपनी खुशी से गरीबों के लिये रोटी या सब्जी दान देना चाहता है वह अपने घर पर ताजी बनी हुई रोटी और सब्जी ही देता है।’’

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इस बैंक के प्रारंभिक दिनों के बारे में बताते हुए हाजी परवेज़ कहते हैं, ‘‘एक दिन मैं अपने कुछ साथियों के साथ बस अड्डे पर खड़ा था कि तभी कुछ बच्चे भीख मांगने हमारे पास आए। हमनें उन्हें कहा कि हम तुम्हें भीख में पैसे तो नहीं देंगे लेकिन अगर खाना खाओ तो पेटभर खिलाएंगे। जब वे बच्चे खाना खाने की बात मान गए और उन्होंने दो वक्त की रोटी का इंतजाम होने पर भीख मांगना छोड़ने का वायदा किया तो हमारे मन में ख्याल आया कि क्यों न भूखे पेट रहने वालों की सहायता की जाए और फिर हमनें अपना रोटी बैंक प्रारंभ करने की सोची।’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘शुरुआत में हमारे साथ सिर्फ दर्जन भर युवा थे और पहले दिन हमारे पास दो मोहल्लों से सिर्फ इतनी रोटी और सब्जी ही इकट्ठी हुई जो मात्र 50 लोगों का पेट करने लायक थी। हमनें अपने आसपास के निःशक्त लोगों तलाशा और उन्हें खाना खिलाया। धीरे-धीरे हमारा यह अभियान लोगों के बीच अपनी पैठ बनाने में सफल हुआ और आज की तारीख में मात्र दो मोहल्लों से प्रारंभ हुआ यह अभियान आसपास के इलाकों में भी फैल गया है। अब तो लोग खुद ही इस बैंक से जुड़़े लोगों केा अपने यहां बुलाते हैं और रोटी और सब्जी देते हैं।’’

भाटीपुरा में इन रोटियों और सब्जियों के पैकेट तैयार होने के बाद युवाओं की यह टोली इन्हें लेकर शहर के विभिन्न इलाकों में बेबस, लाचार और भूखे लोगों की तलाश में निकल पड़ती है। ओम बताते हैं, ‘‘हमनें पूरे शहर को आठ विभिन्न सेक्टरों में बांटा है। भाटीपुरा में भोजन के पैकेट तैयार होने के बाद वितरण के काम में लगा स्वयंसेवक खाने को एक निर्धारित स्थान पर लाता है और फिर शुरू होता है जमा किये हुए खाने को भूखे लोगों तक पहुंचाने का काम। हम प्रतिदिन पूरे क्षेत्र में करीब 400 से 450 लोगों का पेट भरने में कामयाब हो रहे हैं।’’

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ओम आगे बताते हैं, ‘‘आठों क्षेत्रों के वितरण केंद्र पर पैकेट पहुंचने के बाद हम लोग आसपास के रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, इत्यादि पर रहकर जीवन गुजारने वालों और भीख मांगकर गुजारा करने वालों को तलाशते हैं जो विभिन्न कारणों के चलते भूखे पेट सोने को मजबूर होते हैं। हमारे स्वयंसेवक इन लोगों को रोटी और सब्जी के पैकेट देते हैं और प्रयास करते हैं कि अपने सामने ही इनमें से अधिकतर को खाना खिलाएं। अपने इस बैंक के जरिये हमारा प्रयास है कि कोई भी भूखा न सोने पाए और हम अपने इस अभियान के माध्यम से यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि वास्तव में ऐसा ही हो।’’

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इस काम में लगे युवा घर-घर जाकर खाना इकट्ठा करने और फिर उसे जरूरतमंदों तक पहुंचाने के सारे काम खुद ही अपने खर्चे पर करते हें और किसी से भी कैसी भी कोई मदद नहीं लेते हैं। ओम बताते हैं, ‘‘इस बैंक के लिये खाना जमा करने का काम करने वाले अधिकतर युवा अभी पढ़ ही रहे हैं या फिर पढ़ाई खत्म करके विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में लगे हुए हैं। इस बेंक के माध्यम से हमारा इरादा सिर्फ इतना ही है कि कोई भूखे न सोने पाए और भूख से किसी की जान न जाए।’’

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ओम और इनके जैसे अन्य युवाओं का इस अभियान का एक भाग बनने के भी बड़े रोचक कारण हैं। इस बारे में बात करते हुए ओम कहते हैं, ‘‘अधिकतर होता यह था कि हम लोग शाम का समय ऐसे ही दोस्तों के साथ गप्पे लड़ाने में और फालतू घूमने-फिरने में गंवा रहे थे। ऐसे में जब हमनें इन लोगों को एक सकारात्मक काम में अपना समय लगाते हुए देखा तो हमारे मन में भी इनका साथ देने का इरादा आया और अब हममें से अधिकतर को लगता हैं कि हमारा यह फैसला बिल्कुल ठीक था। अगर हमारे थोड़े से प्रयास से किसी भूखे का पेट भरता है तो इससे बड़े पुण्य का कोई काम नहीं है।’’

इसके अलावा इनका यह पूरा अभियान पूरी तरह से अपने खुद के पैसों से संचालित किया जा रहा है और इन्होंने किसी भी सरकारी विभाग से या फिर निजी क्षेत्र से कैसी भी मदद नहीं ली है। साथ ही बहुत ही कम समय में इनका यह अभियान दूर-दूर तक अपनी पहचान बनाने में सफल रहा है और इनसे प्रेरित होकर उरई, उत्तराखंड और दिल्ली में भी ऐसे ही रोटी बैंक स्थापित किये गए हैं। ओम बताते हैं, ‘‘हमारे इस बैंक को प्रारंभ करने के कुछ दिनों बाद ही इसकी प्रसिद्धी फैली और उत्तराखंड के कुछ इलाकों के अलावा दिल्ली से भी कुछ लोगों ने अपने क्षेत्र में ऐसे ही बैंक को स्थापित करने के बारे में पूछताछ की और अपने-अपने क्षेत्रों में इस अभियान को प्रारंभ किया।’’

अंत में हाजी परवेज़ कहते हैं, ‘‘रोटी बैंक महोबा, न तो सरकारी और न गैर सरकारी संस्थान है, यह तो महोबा के कुछ लोगों के द्वारा चलाया जा रहा एक अभियान है, एक पहल है, एक सोच है ताकि महोबा का वो गरीब तबका खाली पेट न सोये। उन 400 गरीब परिवारों को खाना मिल सके जिनके पास खाने के लिए दो वक्त की रोटी भी नहीं। वो रोटी जो इंसान को कुछ भी करने पर मजबूर कर देती है, वो रोटी जिसके लिए इंसान दर दर भटकता फिरता है, वो रोटी जो इंसान को इंसानियत तक छोड़ने में मजबूर कर देती है। हमारा रोटी बैंक न तो किसी धर्म विशेष के लोगों का काम है और न ही किसी धार्मिक गुरुओं का। यह बेडा उठाया है महोबा के उन लोगों ने जिन्हे सिर्फ इंसानियत और सिर्फ इंसानियत से मतलब है। वो रोटी (खाना) देते वक्त ये नहीं देखते के लेने वाले ने सर पर टोपी पहन रखी है या गले में माला, उस औरत के माथे पर सिन्दूर था या उसके सर पर दुपट्टा, उस बच्चे के हाथ में भगवान कृष्ण की मूरत है या हरा झंडा! वो देखते हैं तो सिर्फ इतना की उस इंसान ने कितने दिनों से कुछ नहीं खाया, उस औरत ने जो कमाया अपने बच्चों को खिलाया और खुद खाली पेट रह गयी, उस बच्चे ने बिलख-बिलख कर अपनी माँ से खाना माँगा लेकिन वो माँ कहाँ से उसे लेकर कुछ दे जिसके घर में एक वक्त की रोटी तक नहीं।’’


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