महिलाओं का दूर तक साथ निभाए, 'साथी'
- महिलाओ के लिए सस्ते दामों में अच्छी क्वालिटी के सैनिट्री नैपकिन तैयार करता है 'साथी '-'साथी' की शुरूआत क्रिस्टीन कागेस्तु, अमृता सहगल , ग्रेस काने, आशुतोष कुमार, और ज़ाचरी रोज ने की।-'साथी पैड्स ' का मकसद ग्रामीण महिलाओं के लिए कम दाम में अच्छे सैनिट्री नैपकिन तैयार करना है
भारत के गांवों में महिलाओं की स्थिति आज भी काफी अच्छी नहीं हैं। पुरूषों व महिलाओं के बीच आज भी काफी अंतर समझा जाता है हालाकि सरकारी और विभिन्न संगठनों के अथक प्रयासों से महिला और पुरुषों के बीच का ये अंतर काफी कम हुआ है लेकिन अभी भी इस क्षेत्र में काम करने की काफी जरूरत है। महिलाएं काफी मेहनती होती हैं और अपने परिवार की मदद करने के लिए वे हर संभव प्रयास भी करती हैं लेकिन गांव में महिलाओं के लिए सुविधाओं और जानकारियों का बेहद अाभाव है जिसके कारण वे कई दिक्कतों का सामना करती हैं। प्रसव के दौरान महिलाओं का अभी भी गांवों में सही इलाज नहीं होता जिसके कारण उन्हें ताउम्र कई दिक्कतों का सामना करना पड़ जाता है इसके अलावा माहवारी के दौरान भी ग्रामीण महिलाओं को काफी दिक्कतें आती हैं। गांवों में सेनिट्री पैड न होने के कारण महिलाएं उस समय काम पर नहीं जाती और उस दौरान काफी कठिनाई भरी जिंदगी जीती हैं। स्कूल की छात्राएं भी उस दौरान घर में रहना ठीक समझती हैं। इसी के चलते प्रतिमाह 5 दिन और सालाना लगभग 50 दिन वे घर में ही रहती हैं जिससे उन्हें पढ़ाई का भी काफी नुक्सान होता है। एक रिसर्च के मुताबिक गांव की 23 प्रतिशत लड़कियां माहवारी के कारण स्कूल जाना ही छोड़ देती हैं ये किसी भी देश के लिए काफी परेशान करने वाले आंकडे़ हैं। इसके अालावा सामाजिक दिक्कतों का भी महिलाओं को सामना करना पड़ता है।
गांवो देहातों में सेनीट्री पैड्स का न मिलना या काफी ज्यादा कीमत पर मिलना इस दिक्कत की मुख्य वजह है। महिलाओं को इस दिक्कत से मुक्ति दिलाने और उनकी जिंदगी सामन्य करने के मकसद से सोशल एंटरप्राइज साथी की शुरूआत हुई। साथी की शुरूआत क्रिस्टीन कागेस्तु, अमृता सहगल , ग्रेस काने, आशुतोष कुमार, और ज़ाचरी रोज ने की। साथी का मकसद ग्रामीण महिलाओं के लिए कम दाम में अच्छे सैनिट्री नैपकिन तैयार करना था 'साथी' बेकार हो चुके केले के तने से बने सस्ते सैनिटरी पैड को भारत के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को उपलब्ध कराती है।
क्रिस्टीन हमेशा से ही महिलाओं से जुड़े काम करना चाहती थीं साथ ही वे अपने प्रयास से सामाज में बदलाव लाना चाहती थीं। वे भारत एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में आईं उन्होंने यहां अवंती नाम की एनजीओ के साथ काम करना शुरू किया यहां काम करने के दौरान उनके अंदर सामाजिक क्षेत्र में काम करने की इच्छा और मजबूत हो गई। उसके बाद वे अमेरिका चली गईं और ओरेकल में काम करने लगीं लेकिन उनका वहां मन नहीं लग रहा था। वे अब लोगों के लिए और लोगों के बीच रहकर काम करना चाहती थीं। क्रिस्टीन और अमृता दोनों ने मेसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। अमृता उस दौरान गांव की महिलाओं के लिए सस्ती दरों पर सेनीटरी पैड बनाने का विचार कर रहीं थी। उसी दौरान दोनों की एक बार मुलाकात हुई और दोनों ने एक सोशल एंटरप्राइज खोलने का निर्णय लिया लेकिन अमृता चाहती थी कि टीम में और भी लोग हों ताकि काम अच्छे से हो पाए और फिर भारत आकर दोनों ने एक बेहतरीन टीम खड़ी की और साथी की नींव रखी। अपने बेहतरीन काम के लिए सन 2014 में अमृता को हार्वर्ड बिजनेस पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हार्वर्ड बिजनेस स्कूल की एक प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में नवीनतम और सामाजिक असर डालने वाले उद्यमों को पुरस्कृत किया जाता है।
क्रिस्टीन ने तय किया कि वे सेनिटरी पैड को बनाएंगे लेकिन उस पैड का मकसद केवल सस्ता होना नहीं होगा। भारत में केवल 12 प्रतिशत महिलाएं ही पैड्स का प्रयोग करती हैं लेकिन फिर भी हर महीने 9 हजार टन सैनिटरी पैड्स का कूडा इकट्ठा होता है जो एक चिंता का विषय है वे चाहती थीं कि उनके प्रोडक्ट से किसी भी प्रकार का नुक्सान न हो न तो महिलाओं को और न ही उनका प्रोडक्ट कूडे में इजाफा करे आम तौर पर पैड्स को बनाने में कैमिकल का भी प्रयोग होता है तो वे ऐसे प्रोडक्ट का निर्माण करना चाहती थीं जो एनवायरमेंट फेंडली भी हो। अब रिसर्च शुरू हुई कि आखिर वो किस तरह से इन्वाइरन्मन्ट फेंडली पैड बनाएं जो सस्ता भी हो। काफी रिसर्च के बाद उन्होंने ' बेकार हो चुके केले के तने से बने सस्ते सैनिटरी पैड बनाने शुरू किये ये पैड सस्ते तो थे ही साथ ही पर्यावरण को भी कोई नुक्सान नहीं पहुंचा रहे थे। यानि सौ प्रतिशत एनवायरमेंट फेंडली थे।
साथी का टार्गेट ग्रामीण महिलाओं के अलावा शहरी महिलाएं भी हैं। भारत में केले का अच्छा उत्पादन होता है इसलिए पैड्स के लिए कच्चे माल की जरूरत आसानी से पूरी हो जाती है। साथी के जरिए किसानों को भी फायदा हो रहा है अब उनको केले के तने के बदले पैसा मिल रहा है जो पहले उन्हें फेंकना पड़ता था और उनके किसी काम का नहीं होता था। इसके आलावा वे ग्रामीण महिलाओं को पैड्स बनाने की ट्रेनिंग देते हैं और उन महिलाओं को रोजगार भी मिलता है। इन सस्ते पैड्स की वजह से लड़कियां अब स्कूल जाना नहीं छोड़ती जिससे साक्षरता का ग्राफ भी बढ़ रहा है। संक्षेप में कहा जाए तो यह प्रयास साथी टीम के लिए ही नहीं बल्की पूरे समाज औऱ देश के लिए काफी अच्छा है।