जिस बीमारी ने छीन लिया बेटा, उसी बीमारी से लड़ने का रास्ता दिखा रहे हैं ये मां-बाप
गंभीर बीमारी सी स्टोरेज के बारे में जगाई जागरूकता, 'विदआर्य' नाम से संगठन बना किया काम
इस दुनिया में अपनो को खोने से बड़ा दूसरा दर्द कोई नहीं है और किसी भी माता-पिता के लिए उनके बच्चों का छिन जाना कितना दुखदाई होता होगा, शायद इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन इन दुखों से खुद को बदलकर दूसरों की जिंदगी सुधारने का जिम्मा उठाने वाले कम ही लोग होते हैं। विक्रांत और शीतल की कहानी कुछ ऐसी ही है...
2011 में, दंपति ने 90 टैबलेट के बैच के लिए 5 लाख रुपये खर्च किय जिससे आर्य की बिगड़ते स्वास्थ्य को बहाल करने में मदद मिली। हालांकि शीतल ने ये जरूर सोचा कि आर्य ठीक तो नहीं हो पाएगा लेकिन कम से कम वह अपना बच्चा तो नहीं खोएंगी।
शीतल ने कभी नहीं सोचा था कि वे एक कामकाजी महिला बनेंगी। वह खुद को किसी ऐसी औरत के रूप में ढाल रहीं थी जो कि एक अच्छी पत्नी और मां बन सके और एक सुंदर, आरामदायक घर को अच्छे से संभाल ले। शीतल ने अपने पहले बच्चे प्रचित्ति के जन्म होने के बाद इंडसइंड बैंक में अपनी नौकरी छोड़ दी थी।
इस दुनिया में अपनो को खोने से बड़ा दूसरा दर्द कोई नहीं है और किसी भी माता-पिता के लिए उनके बच्चों का छिन जाना कितना दुखदाई होता होगा, शायद इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन इन दुखों से खुद को बदलकर दूसरों की जिंदगी सुधारने का जिम्मा उठाने वाले कम ही लोग होते हैं। विक्रांत और शीतल की कहानी कुछ ऐसी ही है। उनके सात साल के बेटे आर्य को सी स्टोरेज डिसॉर्डर नाम की एक गंभीर बीमारी हो गई थी। ये एक स्टोरेज डिसऑर्डर है, जो आमतौर पर 1,000,000 लोगों में से एक को प्रभावित करता है। उन्होंने अपने मासूम बेटे को बचानी की काफी कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो पाए।
बीमारी कितनी घातक है इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि इस डिसऑर्डर के विश्व स्तर पर केवल 500 मामले सामने आए हैं। हालांकि इस बीमारी से पीड़ित की मदद करने के लिए दोनों ने साथ में एक संगठन शुरू किया जो उन परिवारों और माता-पिता के लिए भावनात्मक और वित्तीय सहायता प्रदान करता है जिनके बच्चों को आर्य जैसे बीमारी है। शीतल ने कभी नहीं सोचा था कि वे एक कामकाजी महिला बनेंगी। वह खुद को किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में ढाल रहीं थी जो कि एक अच्छी पत्नी और मां बन सके। जो एक सुंदर, आरामदायक घर को अच्छे से संभाल ले। शीतल ने अपने पहले बच्चे प्रचित्ति के जन्म होने के बाद इंडसइंड बैंक में अपनी नौकरी छोड़ दी थी। उनकी जिंदगी परिवार और पति के इर्द-गिर्द घूमती रही। चार साल बाद वह फिर से गर्भवती हुईं।
कुछ समय बाद आर्य का जन्म एक सामान्य बच्चे के रूप में हुआ। लेकिन 18 महीनों के भीतर, उसके माता-पिता ने देखा कि वह अन्य बच्चों के विपरीत अभी भी चल या ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था। तब उन्होंने बाल न्यूरोलॉजिस्ट से संपर्क किया। चिकित्सक ने ये पुष्टि कर दी कि उसे 'स्टोरेज डिसऑर्डर' है लेकिन वह बीमारी की प्रकृति की पुष्टि करने में असफल रहे। मूलतः आर्य का शरीर सामान्य मानव शरीर के रूप में वसा और कोलेस्ट्रॉल जैसे लिपिड को तोड़ने में असमर्थ था। इससे शरीर के विभिन्न ऊतकों के भीतर इन पदार्थों के असामान्य संचय का खतरा बढ़ जाता है, जिसमें मस्तिष्क के ऊतक भी शामिल होते हैं। इसके परिणामस्वरूप पूरा शरीर काम करना बंद कर देता है।
शीतल बताती हैं कि "मुंबई में प्रयोगशाला की पहचान करना हमारे लिए एक बड़ा काम था, जहां हम ये टेस्ट करा सकें और जान सकें कि ये क्या बीमारी है।" हमें स्पष्ट रूप से बताया गया था कि इस बीमारी के लिए कोई दवा नहीं थी। भारत में केवल कुछ मामले सामने आए हैं। ज्यादातर डॉक्टरों को इलाज के बारे में जीरो या तो बहुत कम जानकारी थी। मां-बाप ने पूरे देश के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों से संपर्क किया, फिर भी निदान आसान नहीं था। नीदरलैंड में आर्य की त्वचा के एक पैच को दुनिया के एकमात्र परीक्षण केंद्र में भेजा जाना था। केंद्र में पहले से ही कई कई मामले लाइन में थे जिससे प्रयोगशाला में पहुंचने से पहले ही स्किन-पैच खराब हो गया।
मां-बाप ने फिर से दो साल के आर्य से त्वचा के एक और पैच को निकाला और एक साल बाद, उन्हें एन्डोस्कोपिक गैस्ट्रोस्टोमी सर्जरी मिली जिससे उन्हें भोजन निगलने में मदद मिली। हालांकि कुछ समय बाद जब चिकित्सक दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों की देख-रेख करने में पर्याप्त सहायता प्रदान करने में विफल रहे, तो शीतल ने ऑनलाइन सहायता प्राप्त की और समान परिस्थितियों में माता-पिता से जुड़ीं।
2011 में, दंपति ने 90 टैबलेट के बैच के लिए 5 लाख रुपये खर्च किया जिससे आर्य की बिगड़ते स्वास्थ्य को बहाल करने में मदद मिली। हालांकि शीतल ने ये जरूर सोचा कि आर्य ठीक तो नहीं हो पाएगा लेकिन कम से कम वह अपना बच्चा तो नहीं खोएंगी। प्रयासों के बावजूद, आर्य ने जीवित रहने के लिए अपना संघर्ष जारी रखा और दिन धुंध में गुज़र गए। लेकिन आर्य के सातवें जन्मदिन से तीन महीने पहले 20 फरवरी, 2015 को उन्होंने अपना बेटा खो दिया।
निराशा के समय जागीं उद्यमी भावनाएं
अपने बच्चे की देखभाल करने के लिए अपने संघर्ष के दौरान, विक्रांत और शितल ने महसूस किया कि निमेंन पिक सी के बारे में जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता थी। उन्हें एहसास हुआ कि उनके जैसे तमाम लोगों के पास टेक्नोलॉजी की पहुंच और सपोर्ट सिस्टम नहीं है। इसी बात ने उन्हें 2011 में 'विदआर्य' शुरू करने के लिए प्रेरित किया। 'विदआर्य' एक संगठन है जिसका उद्देश्य उन रोगियों और उनके परिवारों को मार्गदर्शन प्रदान करना है जो ऐसे टर्मिनल विकारों से पीड़ित हैं।
'विदआर्य' की शुरूआत तब हुई जब उनका बेटा आर्य परीक्षण के दौर से गुजर रहा था। विक्रांत कहते हैं कि "इस दौरान हमने पाया कि कई प्रभावित मरीज ग्रामीण इलाकों से या उन परिवारों से आ रहे थे जो इन महंगे परीक्षणों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। इसलिए, हमने कुछ दान करने वालों की मदद से इन लोगों का समर्थन करना शुरू किया।" संगठन दवाइयां, उपकरण, जरूरतमंदों को सहायता प्रदान करता है। चूंकि ज्यादातर स्टोरेज विकारों का इलाज नहीं है, केवल माता-पिता और रिश्तेदार ही एकमात्र ऐसा काम कर सकते हैं जो सहायक देखभाल प्रदान करें जिससे जीवन को थोड़ा बेहतर बनाया जा सके।
मेक माय विश फाउंडेशन के लिए स्वयंसेवा करते हुए शीतन उन मरीजों के कई रिश्तेदारों की दयनीय स्थिति देखकर काफी भावुक हुईं थीं जो किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में भर्ती थे। शीतल बताती हैं कि उनके पास कोई दवा खरीदने के लिए कोई पैसे नहीं थे। अकेले खुद के लिए भोजन खरीदने के लिए छोड़ दिया गया था। कुछ लोग थे जो फुटपाथ पर किसी भी आश्रय/ भोजन के बिना महीनों तक रह रहे थे।
इस दृश्य ने शीतल को झकझोर कर रख दिया। इसलिए, उन्होंने 'विदआर्य' के साथ-साथ पिछले वर्ष अक्टूबर में भोजन के लिए एक मराठी शब्द 'दोन घास' नामक एक पहल की शुरुआत की। इसके तहत वे प्रति दिन उन 50 लोगों के लिए भोजन उपलब्ध कराते थे जो अस्पताल के बाहर खड़े होते थे। इसमें प्रति पैकेट 10 रूपये की लागत आती थी। एक खाद्य पैकेट में चपाती, सब्जी, खिचड़ी और केला होता था।
आज 'विदआर्य' दोस्तों और परिवारों से वित्तीय सहायता के साथ हर दिन 100 भोजन पैकेट वितरित करते हैं। अब उन्हें आपसी मित्रों और संगठनों से भी वित्तीय सहायता मिलती है। विक्रांत बताते हैं कि ऐसे कई और मरीज हैं जो भोजन के लिए लाइन में लगे होते हैं लेकिन उन्हें कभी-कभी वापस जाना पड़ता है खाली हाथ। कुछ लोग अपनी अस्पताल की जरूरतों के लिए पैसे मांगते हैं, और रहने के लिए एक जगह का इंतजाम करने के लिए भी बोलते हैं।
अस्पतालों में अक्सर मरीजों और उनके रिश्तेदारों के बीच उत्सव की भावना होती है। इसलिए, इस साल (2017) रक्षा बंधन पर, 'विदआर्य' ने इस त्यौहार को एक अनोखा तरीके से मनाया। स्वयंसेवकों ने असाधारण स्थानों पर राखी की तलाश की और ब्लाइंड स्कूल में उनकी खोज समाप्त हुई। शीतल बताती हैं कि "हमने सोचा कि यह किसी जगह से कुछ खरीदने के लिए बहुत अच्छा होगा, जहां हम किसी को किसी न किसी रूप में समर्थन दे सकते हैं।"
पिछले साल 'दोन घास' ने विकास किया है और वर्तमान में परिवारों को विभिन्न खतरनाक बीमारियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने और डॉक्टरों और परिवारों के बीच समन्वय करने में सहायता कर रहा है। उन्होंने मित्रों से दान के माध्यम से चिकित्सा परीक्षणों तक पहुंच प्राप्त करने के लिए वंचित लोगों का समर्थन करना शुरू कर दिया है। वर्तमान में, वे मरीजों और उनके रिश्तेदारों को भोजन कराते हैं जो टाटा, केईएम और वाडिया अस्पताल में इलाज करा रहे हैं। पंद्रह स्थायी स्वयंसेवक अस्पताल परिसर के सामने सोमवार से शनिवार के बीच सुबह 11.30 से लेकर दोपहर 12.30 तक खड़े रहते हैं।
सोशल मीडिया के माध्यम से, दंपति ने जेएम फाइनेंशियल कॉरपोरेशन जैसी फर्मों से समर्थन हासिल करने में कामयाबी हासिल की है। अगर आप भी किसी जरूरतमंद को शीतल और उनके संगठन के जरिए मदद पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें मेल कर सकते हैं। शीतल की मेल आईडी- [email protected]
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