मनुष्य होने की बुनियादी शर्त है कविता
आज कई कवि अपनी निष्ठा से किनारा कर पुरस्कृत हो रहे हैं, बड़े घरानों से प्रकाशित हो रहे हैं और तमाम तरह की सुविधाओं के आकांक्षी बनकर मुलायम बने हुए हैं- जीवन में भी और कविता में भी।
ऐसे कठिन दौर में जो कवि ईमानदारी से कविता कर रहे हैं या आलोचक और संपादक की घालमेल वाली ठकुरसुहाती से दूर कविता रच रहे हैं– उन्हें खारिज किया जा रहा है। क्या सुविधा और साधनों की ललक कवियों को बड़ा बना सकती है?
रचना का सिर चढ़ कर बोलना यानी शमशेर की मुहावरेदारी के अंदाज में अपनी बात कहना। उसी अंदाज में हमारे समय के विश्वकवि पाब्लो नेरूदा के शब्द भी बोलते हैं, भेद खोलते हैं- 'कविता में अवतरित मनुष्य बोलता है कि वह अब भी बचा हुआ एक अन्तिम रहस्य है।'
शमशेर बहादुर सिंह की एक बड़ी मशहूर कविता है - 'बात बोलेगी, हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही। सत्य का मुख, झूठ की आँखें क्या-देखें!' जब ये पंक्तियां लिखी गईं, जमाने ने इसे कहावत की तरह मन में बैठा लिया। बाकी बातों पर तो शमशेर की ये 'बात' बैठी ही, कविताओं के मानक, कथ्य और शिल्प के विश्लेषणों में भी काम आती रहती है। कुछ कविताएं ऐसी होती हैं, जो स्वतः शब्दशः बोलती जाती हैं और उनसे कई तरह के अर्थ के खिड़की-दरवाजे अपनेआप खुलते चले जाते हैं। प्रो. सूरज पालीवाल संभवतः ऐसे ही मानकों को ध्यान में रखते हुए लिखते हैं- 'कविता और उनके कवियों के लिए यह समय कठिन है। इसलिए कि अब कवियों ने कविता में भी चालाकी करनी शुरू कर दी है।
कविता उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न नहीं बल्कि उपयोग, उपभोग और आगे बढ़ने का साधन बन गई है। हिंदी कविता ने अपने प्रारंभिक दौर में चारणों और रीतिकाल में राज्याश्रित कवियों के यहां इस प्रकार की दुर्गति देखी थी, यह दुर्गति सूचनाओं के संजाल और लूट की चमत्कारपूर्ण दुनिया में भी होगी, ऐसी उम्मीद न तो कविता को रही होगी और न उसके पाठकों को ही। ऐसे कवि अपनी निष्ठा से किनारा कर पुरस्कृत हो रहे हैं, बड़े घरानों से प्रकाशित हो रहे हैं और तमाम तरह की सुविधाओं के आकांक्षी बनकर मुलायम बने हुए हैं- जीवन में भी और कविता में भी। खरी-खरी कहने जैसी आदत से बड़े अभ्यास के बाद कवियों ने मुक्ति पा ली है और अब निश्चिंत होकर शब्दों से खेल रहे हैं।
ऐसे कठिन दौर में जो कवि ईमानदारी से कविता कर रहे हैं या आलोचक और संपादक की घालमेल वाली ठकुरसुहाती से दूर कविता रच रहे हैं– उन्हें खारिज किया जा रहा है। क्या सुविधा और साधनों की ललक कवियों को बड़ा बना सकती है? क्या कोई संपादक या आलोचक कवि को महान या छोटा बना सकता है? कहने को हमारे सामने कई उदाहरण हैं, जो अपने समय में महान बने रहे, पर बाद में किसी ने नहीं पूछा और अपने समय में उपेक्षित कर दिये कवि बाद में महान साबित हुए तथा कविता की धारा के विभिन्न स्त्रोतों की गंगोत्री वे ही साबित हुए। इसलिये केवल कवि ही नहीं बल्कि साहित्य की किसी भी विधा के लेखक को अपने मूल्यांकन की जल्दी नहीं होना चाहिये, जब अवसर आएगा, तब उनकी अपने समय के ताप में तपी रचना ही सिर चढ़कर बोलेगी।'
रचना का सिर चढ़ कर बोलना यानी शमशेर की मुहावरेदारी के अंदाज में अपनी बात कहना। उसी अंदाज में हमारे समय के विश्वकवि पाब्लो नेरूदा के शब्द भी बोलते हैं, भेद खोलते हैं- 'कविता में अवतरित मनुष्य बोलता है कि वह अब भी बचा हुआ एक अन्तिम रहस्य है।' कविता के केन्द्र में सदैव मनुष्य और मनुष्यता ही रहती है, इसलिए वह मनुष्य से जुड़े सभी सवालों को सम्बोधित करती है। धूमिल के शब्दों में 'कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है।' कविता शून्य के प्रति एक प्रार्थना और अनुपस्थिति के साथ एक संवाद है। जाहिर है, संवाद है तो बात होगी ही, बात बोलेगी ही, वक्त के सच-झूठ का भेद खोलेगी ही। भगवान स्वरूप कटियार कहते हैं कि कविता तो यात्राओं पर निकल जाने का निमंत्रण है, घर की ओर लौटने की तड़प है। कविता मनुष्य होने की बुनियादी शर्त है। कविता मनुष्य की मातृभाषा है।
कवि और कविता को लेकर बहुत कुछ लिखा जाता रहा है। कविता सबके बारे में बात करती है, समय से सामना करती है लेकिन कवि के बारे में बात करना एक अलग बात हो जाती है। घाना के कवि क्वामे दावेस कविता लिखने से पूर्व की कवि की स्थितियों के बारे में बात करते हैं कुछ इस तरह-
'बेशर्म हवाओं से निकली आवाज़ की तरह,
कविता के बाहर आने के पहले,
सोना होता है कवि को एक करवट साल भर,
खानी होती है सूखी रोटी,
पीना पड़ता है हिसाब से दिया गया पानी।
कवि को डालनी होती है घास के ऊपर रेत,
बनानी होती है अपने शहर की दीवारें,
घेरना होता है दीवारों को बंदूक की गोली से,
बंद करनी होती है शहर में संगीत की धुन ।
कवि की जीभ हो जाती है भारी,
रस्सियां बंध जाती हैं बदन में,
अंग प्रत्यंग हो जाते हैं शिथिल।
उलझता है वह खुदा से–
पूछता है–क्या है कविता का अर्थ।
पड़ा रहता है एक सौ नब्बे दिनों तक,
बदलकर करवट दूसरी तरफ,
परिजनों को दिए घावों से हो जाती है छलनी देह,
मांगता है वह दया की भीख।
कविता लिखने से पहले,
कवि को करना पड़ता है यह सब,
ताकि सर्दियों के मौसम के बीच,
निकले जब वह सैर पर,
न हो चेहरे पर सलवटें,
आँखों में हो एक लाचार बेबसी–
जिसे लोग कहते हैं शांति,
अपनी गठरी में लिए बौराए हुए थोड़े से शब्द,
हरे रंग और उन आवाजों के बारे में,
जो बुदबुदाती हैं सपने में वारांगनाएं।
'बात बोलेगी' में ध्वनित होती जहां तक शमशेर की लंबी दूरी तक मार करने वाली कविता की बात है, वह नर्इ कविता के कवि हैं। उन्होंने भिन्न-भिन्न मन:स्थितियों में भिन्न-भिन्न प्रकार की रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। उनकी काव्य रचना वैविध्यपूर्णता है, यद्यपि उसके स्वर को पहचानना कठिन है। उनके प्राय: संपूर्ण साहित्य में अमूर्तन व्यक्त हुआ है। उन्होंने परंपरा से चले आने वाले बिंबों में नर्इ संवेदना विकसित की है। जैसे उनकी एक कविता का ये चित्र देखिए-
कबूतरों ने एक गजल गुनगुनायी...
मैं समझ न सका, रदीफ-काफिये क्या थे,
इतना खफीफ, इतना हलका, इतना मीठा
उनका दर्द था।
आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है।
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ
और चमक रहा हूँ कहीं...
न जाने कहाँ।
अब शमशेर इस कविता में क्या बोल रहे हैं, समझना आसान नहीं हैं। दरअसल, शमशेर ने जैसा जीवन जीया, वैसा ही उन्होंने लिखा। जमाने ने शमशेर कुछ और शब्दों को अपने हिसाब से मुहावरे में तब्दील कर लिया- 'काल, तुझसे होड़ है मेरी।' तो काल से होड़ लेते हुए अपनी बात को अपने पर भी लागू करते चल रहे थे-
हम अपने ख़याल को सनम समझे थे,
अपने को ख़याल से भी कम समझे थे!
होना था- समझना न था कुछ भी, शमशेर,
होना भी कहाँ था, वह जो हम समझे थे!
यह भी पढ़ें: न होते हुए ज्यादा उपस्थित रहेंगे कुंवर नारायण