अपनी मेहनत के बूते ग्रामीण भारत की तस्वीर बदल रहीं ये महिलाएं
देश के कोने-कोने में वुमनिया की हिम्मत, मेहनत, हुनर का कमाल
आजकल देश का कोई ऐसा इलाका नहीं, जहां 'वुमनिया' की धमक न हो। छत्तीसगढ़-झारखंड में, मध्य प्रदेश-बिहार में, पूर्वांचल से उत्तरांचल तक, बुंदेलखंड से दिल्ली-राजस्थान तक। वे कहीं शराबखोरी के खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं, कहीं खेती-किसानी में कामयाबी के बूते दिखा रहीं तो कहीं सेहत का संदेश दे रहीं, पढ़ाई-लिखाई में अव्वल आ रहीं तो नौकरियों में शासन की बागडोर संभाल रहीं...
उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिला मिर्जापुर में महिलाओं ने ग्रीन गैंग बनाया है। इस गैंग की महिलाएं सामाजिक बुराइयों से लड़ रही हैं। वह ग्रीन ग्रुप बनाकर महिला प्रताड़ना के खिलाफ उठ खड़े होने के साथ ही महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने, स्वच्छता मुहिम, शराबबंदी, नशाबंदी के लिए जनजागरूकता अभियान चला रही हैं।
देश का एक छोटा सा राज्य है छत्तीसगढ़ और यहां का एक जाना-पहचाना इलाका है कोरबा। यहां की महिलाएं एकजुट होकर शराबखोरी के खिलाफ खम ठोक रही हैं, ललकार रही हैं, इतना ही नहीं, जैविक खेती में हाथ बंटा रहीं तो लोगों की सेहत की चिंताएं भी दूर करने में जुटी पड़ी हैं। करतला ब्लॉक क्षेत्र में सहकारी समिति बनाकर काम कर रही ये महिलाएं मामूली लागत में बाजार को बेहतर प्रोडक्टर देने लगी हैं, जिसकी मांग मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तक होने लगी है। इनके समूह को हरियाली गैंग के नाम से जाना जाने लगा है।
बताते हैं कि शुरू-शुरू में यहां की लगभग डेढ़ दर्जन महिलाएं से एकजुट हुईं थीं, जो आज सौ के आसपास पहुंच चुकी हैं। इन्होंने कुछ अलग ही ढंग से नशाविरोधी मुहिम छेड़ी। जिस भी घर-परिवार में शराब बनती, ये उन परिवारों पर आर्थिक दंड लगाने लगीं। पता चला कि कुछ ही वक्त बीते लाइन लगाकर यह धंधा सुस्त पड़ने लगा। शराब बनाने का कारोबार उजड़ने लगा। इसके बाद उन्होंने अपनी राह बदली, नई दिशा थी जैविक खेती की, वनौषधियां पैदा करने की। ये महिलाएं जंगली पौधों से औषधीय उत्पाद तैयार कर बाजार में बेंचने लगीं। फिर क्या था, देखते ही देखते उनके प्रोडक्ट की इतनी मांग बढ़ी कि वे खुद की कंपनी खड़ी करने के बारे में सोचने लगीं।
आजकल इस पर इन महिलाओं का समूह गंभीरता से माथापच्ची कर रहा है। इन महिलाओं को अपने काम में जीबीवीएस के प्रमुख डालेश्वर कश्यप से जरूरी मदद मिल रही है। हरियाली गैंग के सातों समूहों को अब बैंक कर्ज देने से भी तनिक नहीं हिचक रहे हैं। अब तक उन्हें लगभग पांच लाख रुपए लोन के मिल चुके हैं, जिनसे वह अपने प्रयासों को तेजी से गति दे रही हैं। वह ईमानदारी से अपने बैंक कर्ज भी चुकता करती जा रही हैं। इन समूहों द्वारा तैयार महुआ लड्डू, जामुन के सिरका, लक्ष्मीतरू के पौधों की मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तक भारी डिमांड है। इसके अलावा ये महिलाएं इन दिनो बीजामृत, संजीवनी रस, केचुआ खाद आदि भी तैयार कर रही हैं।
बिहार से टूटकर अलग हुआ देश का एक और छोटा सा राज्य है झारखंड। यहां की महिलाएं भी अपनी हिम्मत, मेहनत और हुनर का कमाल दिखा रही हैं। हजारीबाग के टाटीझरिया प्रखंड के दर्जनों गांवों की महिलाएं समृद्धि की नई इबारत लिख रही हैं। इन महिलाओं की मेहनत रंग ला रही है। कभी बकरियां चराती रहीं इन महिलाओं की कठिन मशक्कत के बाद क्षेत्र के खैरा, करमा, बेडमक्का, अमनारी, सिमराधाब आदि गांवों में धान की जगह अब सब्जियों की फसलें लहलहाने लगी हैं। यहां की सब्जियां आसपास के बाजारों पर छा गई हैं। क्षेत्र के करीब एक दर्जन गांवों में वैज्ञानिक तरीके से हो रही सब्जियों की खेती का सारा दारोमदार महिलाओं पर निर्भर हो गया है।
लीज पर जमीन लेकर ये महिलाएं बड़े पैमाने पर आलू, नेनुआ, झिंगी, करैला, मिर्चा, कद्दू, गोभी पैदा कर रही हैं। खैरा की महिलाएं 30 एकड़ बंजर जमीन लीज पर लेकर केले की खेती कर रही हैं। इन्हें सृजन फाउंडेशन से प्रशिक्षण और सहयोग भी मिल रहा है। अब ये कृत्रिम खाद और दवाइयां भी बनाने लगी हैं। सुनीता, संगीता, सरस्वती, पिंकी, निक्की, चंदा, पार्वती, शीला, रीता, उर्मिला, अनिता आदि द्वार तैयार निर्मस्त्र, ब्रह्मास्त्र,आग्नेयास्त्र आदि नामों वाली दवाएं बाजार को ललचाने लगी हैं। झारखंड से ही सटा राज्य है बिहार। इस राज्य के नालंदा जिले के चंडीपुर प्रखंड में अनंतपुर गांव की गृहविज्ञान से स्नातक अनिता अपने हुनर से काफी नाम कमा रही हैं। उन्होंने तरक्की की एक नई राह ढूंढ निकाली है।
उत्तराखंड की युवा खेतिहरों की तरह वह मशरूम के बीज तैयार कर बाजार में बेंचने लगी हैं। बीज उत्पादन के लिए मशरूम सीड लैब बना लिया है। साथ ही मछली पालन, मधुमक्खी पालन, मुर्गी पालन आदि भी कर रही हैं। इससे पहले उन्होंने राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा (समस्तीपुर) और पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय (उत्तराखंड) में मशरूम बीज उत्पादन का प्रशिक्षण लिया। फिर अपने गांव की 25 महिलाओं को अपने साथ जोड़ा और भविष्य की राह चल पड़ीं। अब उनकी मेहनत और कामयाबी की दूर दूर तक धमक है। अब तो उन्होंने माधोपुर फार्मर्स प्रोड्यूसर्स कंपनी भी बना ली है। ढाई सौ महिलाएं उनकी कंपनी में काम कर रही हैं। वह 'नवाचार कृषक पुरस्कार' और 'जगजीवन राम अभिनव किसान पुरस्कार' से सम्मानित भी हो चुकी हैं।
एक हैं सहरसा (बिहार) की रहने वाली पतंजलि योग समिति (हरिद्वार) से जुड़ी घरेलू महिला संजू कुमारी। वह दूर-दूर तक घर-घर जाकर आयुर्वेदिक दवाओं की अलख जगा रही हैं। उनको एक दिन योग और आयुर्वेद ने इतना प्रभावित किया कि ताजिंदगी के लिए वह उसके प्रचार-प्रसार में जुट गईं। वह योग प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से महिलाओं को योग एवं आयुर्वेद के प्रति प्रेरित कर रही हैं। उनके योग प्रशिक्षण शिविरों में लोग बड़ी संख्या में हिस्सा लेने लगे हैं। संजू कुमारी जैसी तमाम महिलाएं आज खुद आगे बढ़कर देश की तस्वीर बदल रही हैं।
रायपुर (छत्तीसगढ़) की वल्लरी चंद्राकर, भोपाल की वर्षा वर्मन और माया विश्वकर्मा, उत्तर प्रदेश की अरुणिमा सिन्हा, ऊषा विश्वकर्मा आदि ऐसी ही कामयाब स्त्रियों में शुमार होने लगी हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार की महिलाओं की तरह एक जागरूक इलाका है उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड, जहां के जिला हमीरपुर के धरऊपुर की महिलाओं के बारे में संदीप पौराणिक बताते हैं कि उन्होंने गांव की तकदीर बदलने की मुहिम छेड़ दी है। वे बालिका शिक्षा से लेकर पानी संरक्षण और स्वच्छता के नए मानक स्थापित कर रही हैं।
सरीला विकास खंड की जलालपुर ग्राम पंचायत की दलित बहुल इस बस्ती में कुल 45 मकान हैं और आबादी ढाई सौ के करीब है। इस गांव में भी पानी का संकट बुंदेलखंड के अन्य गांवों की तरह ही है, मगर यहां की महिलाएं अन्य गांव की तुलना में पानी खर्च करने के मामले में सजग और सतर्क करने लगी हैं। जल सहेली नाम से संगठित ये महिलाएं जलस्रोतों की देखभाल, साफ-सफाई का बीड़ा उठाए हुए हैं। वे स्वयं गांवों के खराब हैंडपम्प ठीक कराती हैं। उनकी ही व्यवस्थाओं से घरों का गंदा पानी भी अब खेती-बगीचियों में सब्जियां, फल-फूल उगाने आदि में इस्तेमाल होने लगा है।
ये महिलाएं जलस्रोतों के आसपास की जगहों को गंदगी से बचाती हैं। पानी की बूंद-बूंद बर्बाद होने से बचाती है। वे जान गई हैं कि पानी पर पहला हक उन्हीं का है। बुंदेलखंड की एक और खासियत तो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों तक में आ चुकी है। यहीं की हैं गुलाबी गैंग वाली दुबली-पतली, सांवली सी बांदा जिले की संपत पाल। बुंदेलखंड ऐसा इलाका नहीं कि महिलाएं आजादी से घर की चौखट लांघ कर न्याय की बातें कर सकें। पिछड़े परिवार में सन् 1947 में जन्मीं संपत पाल का गुलाबी गैंग काफी लोकप्रिय है। इस संगठन का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि इसकी महिलाएं गुलाबी साड़ियां पहनती हैं। उनके हाथों में लाठियां होती हैं। वह बड़े-बड़े राजनेताओं, अफसरों के भी दांत खट्टे कर चुकी हैं। यद्यपि इन दिनो सत्ताधारी पार्टी के भितरघातियों ने गैंग में तोड़फोड़ मचा रखी है।
इसी तरह उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिला मिर्जापुर में महिलाओं ने ग्रीन गैंग बनाया है। इस गैंग की महिलाएं सामाजिक बुराइयों से लड़ रही हैं। वह ग्रीन ग्रुप बनाकर महिला प्रताड़ना के खिलाफ उठ खड़े होने के साथ ही महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने, स्वच्छता मुहिम, शराबबंदी, नशाबंदी के लिए जनजागरूकता अभियान चला रही हैं।
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