अब कवियों के बीच शाइर और शाइरा भी
पहले कविसम्मेलन और मुशायरा, अलग-अलग आयोजनों का नाम हुआ करता था, अब प्रायः कविसम्मेलन-सह-मुशायरा, मुशायरा-ओ-कविसम्मेलन जैसे निकटता बढ़ाने वाले आयोजन हो रहे हैं। दोनो भाषाएं निकट आ रही हैं। हिंदी-उर्दू भाषी निकट आ रहे हैं। अब शाइरों की फेहरिस्त में कवि और गीतकार के भी नाम होते हैं। अब कवियों की पंक्ति में शाइर और शाइरा भी बैठी हुई मिल जाती हैं...
शाइरी अब तहजीब नहीं, तफरीह की चीज हो चुकी है। बस एक चीज की कमी दिखती है, वह है जुनून की। पहले की तरह साहित्य के लिए पूरी तरह समर्पित लोग नहीं रहे। अदब अब पार्ट टाइम काम रह गया है। अपनी भाषा के लिए साहित्य को पढ़ना, दूसरी भाषा के साहित्य को पढ़ना और परखना, विश्व के साहित्यिक पटल पर दृष्टि गड़ाए रखना, जैसे काम आम तौर से उर्दू का साहित्यकार कम ही कर रहा है।
पहले कवि सम्मेलन और मुशायरा, अलग-अलग आयोजनों का नाम हुआ करता था, अब प्रायः कविसम्मेलन-सह-मुशायरा, मुशायरा-ओ-कविसम्मेलन जैसे निकटता बढ़ाने वाले आयोजन हो रहे हैं। दोनो भाषाएं निकट आ रही हैं। हिंदी-उर्दू भाषी निकट आ रहे हैं। अब शाइरों की फेहरिस्त में कवि और गीतकार के भी नाम होते हैं। अब कवियों की पंक्ति में शाइर और शाइरा भी बैठी हुई मिल जाती हैं। डॉ मोहम्मद आजम वरिष्ठ यूनानी चिकित्साधिकारी एवं 'निसार अख्तर सम्मान' मोहन राय पुरस्कार, जनार्दन शर्मा पुरस्कार, शिवना पुरस्कार, खुशबू, कहकशाने अदब, गुलदस्ता, फक्रे अदब, शैदाए अदब आदि पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं। उनकी प्रमुख कृतियां हैं - आसान अरुज (देवनागरी में शाइरी के छंदशास्त्र पर पुस्तक), लफ्जों की मसीहाई (उर्दू गजल संग्रह), शब्द, शुद्ध उच्चारण एवं पदभार और काफिए ही काफिए (दोनो पुस्तकें प्रकाशनाधीन) आदि।
रेडियो-दूरदर्शऩ से उनकी रचनाओं का प्रसारण होता रहता है। डॉ आजम का कहना है कि शाइरी अब तहजीब नहीं, तफरीह की चीज हो चुकी है। बस एक चीज की कमी दिखती है, वह है जुनून की। पहले की तरह साहित्य के लिए पूरी तरह समर्पित लोग नहीं रहे। अदब अब पार्ट टाइम काम रह गया है। अपनी भाषा के लिए साहित्य को पढ़ना, दूसरी भाषा के साहित्य को पढ़ना और परखना, विश्व के साहित्यिक पटल पर दृष्टि गड़ाए रखना, जैसे काम आम तौर से उर्दू का साहित्यकार कम ही कर रहा है। कूपमंडूक की तरह अपने अदब को ही सबकुछ समझ लेने के कारण उर्दू अदब में एक ठहराव सा है। अनुवाद की भी अत्यंत आवश्यकता है। पूरे विश्व को अगर अपना अदब दिखाना है तो इसके लिए जतन भी करने की आवश्यकता है। किताबें आज जितनी छप रही हैं, किसी दौर में नहीं छपीं। किताबें जितनी रद्दी की टोकरी में जा रही हैं, किसी दौर में नहीं फेकी गयीं।
डॉ. मोहम्मद आजम कहते हैं कि हिंदी-उर्दू वास्तव में एक ही भाषा हैं, जिनकी लिखावट दो हैं। फारसी लिपि में लिखी गई भाषा को उर्दू का नाम दिया गया है। जिसे देवनागरी लिपि में लिखिए, वो हिंदी बन जाती है। दोनो का व्याकरण समान है। क्रियाएं तो बिल्कुल एक ही हैं। दोनो को अगर पढ़ा या बोला जाए तो कोई अंतर नहीं है मगर बोलचाल की हद तक यह समानता है। साहित्य के प्रारूप में शब्दों के चयन के कारण अंतर प्रतीत होने लगता है। उदाहरण के तौर पर एक उर्दूभाषी भी यही कहेगा- 'मुझे एक मकान चाहिए, पहनने को कपड़ा चाहिए और पेट भरने को रोटी।' यही वाक्य हिंदीभाषी और उर्दू से अनभिज्ञ भी बोलेंगे। हम इस भाषा को 'हिंदुस्तानी' कह सकते हैं।
जब साहित्य और अदब की कसौटी पर भाषा को परखते हैं, अंतर स्पष्ट हो जाता है। जैसे हिंदी में लिखा जाएगा- 'सूरज अस्त हो रहा है' तो उर्दू वाला इसे इस तरह लिखेगा- 'आफताब गुरुब हो रहा है।' गोया फर्क बोलचाल या आलेख में शब्दों के प्रयोग के कारण है। उर्दू में बड़ी संख्या में फारसी और अरबी के शब्द हैं। लगभग 500 शब्द तुर्की के, 11 शब्द इबरानी के और 7 शब्द सिरयानी भाषा के हैं और अनगिनत शब्द यूरोपीय मूल से लिए गए हैं। संस्कृत के शब्द भी गाहे-ब-गाहे मिल जाते हैं। हिंदी में अधिकतर शब्द संस्कृत से लिए गए हैं। अस्ल विवाद शब्दों का न होकर, लिपि का है। और यह विवाद भी हिंदी या उर्दू वालो ने स्वयं पैदा नहीं किया है बल्कि उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने अपनी कूटनीतिक चालों से पैदा किया।
डॉ आजम बताते हैं कि बात, कोई सन् 1900 की है। उससे पहले हिंदुस्तान में उर्दू बोली, पढ़ी और समझी जाती थी। एक सामंजस्य था। कभी-कभी प्रतिकार के स्वर उभरते थे। अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत इस खड़ी बोली के दो प्रारूप कर दिए। इसका ध्येय था, हिंदीभाषी और उर्दूभाषी आपस में लड़ते-भिड़ते रहें और वह राज करते रहेंगे। हुआ भी वही, और होना भी यही था। अगर अंग्रेज भाषा-विच्छेद न करते तो परिस्थितियां एवं मुसलमानों की हठधर्मिता कर देती। उर्दू ने न सिर्फ अरबी-फारसी के लिए थे बल्कि उसका मिजाज भी इस्लामिक किस्म का बना दिया गया था। तमाम किस्से, हिकायतें, उपमाएं, मुहावरे भी अरबी-फारसी, संस्कृति के उर्दू में दोहराए गए थे। हिंदी में इसके विपरीत भारतीय कथाओं, उपमाओं, मुहावरों का प्रयोग होता था। हद तो यह हो गयी कि पहनने, ओढ़ने और उपयोग की वस्तुओं को भी हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखा जाने लगा था। आयुर्वेद, धोती हिंदुओं का तो शेरवानी, यूनानी चिकित्सा पद्धति मुसलमानों की।
अंग्रेजों का शायद यही ध्येय था। वह जानते थे कि इन दोनो के मिजाज में भिन्नता है और इसको भुनाया जा सकता है। मुसलमानों को यह गुस्सा था कि अंग्रेजों ने हिंदुस्तानी भाषा की देवनागरी लिपि को बढ़ावा दिया ताकि मतभेद व मनभेद बढ़े। हिंदुओं को संतोष था कि फारसी लिपि के कारण अकारण ही उन्हें इस्लामी परिवेश स्वीकार करना पड़ता था, जो अब नहीं होगा। वह भूल जाते हैं कि भाषा का धर्म से कोई लेना-देना नहीं होता। भाषा उसकी हो जाती है, जो उसका हो जाता है। उर्दू में हिंदी साहित्यकार विशेषकर शाइरों की बड़ी तादाद है। इसी तरह हिंदी साहित्य में बहुत बड़े-बड़े नाम मुसलमानों के हैं। कुछ ने तो दोनो में समान रूप से अपनी मौजूदगी दर्ज की है। मुंशी प्रेमचंद पर दोनो भाषाओं वाले अपना-अपना हक जताते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र, जो बाद में हिंदी के सशक्त पक्षधर बने, वह 'रसा' के तखल्लुस (उपनाम) से उर्दू में शाइरी करते थे।
बातचीत में डॉ आजम कहते हैं कि भारतेंदु ने लिखा भी है कि मेरी मातृभाषा उर्दू रही है। बहरहाल, भारत में अनेकता में एकता कुछ ऐसी है, जो विश्व में कहीं नहीं। उर्दूभाषी भजन लिखता है तो हिंदीभाषी हम्द और नात लिखता हुआ मिल जाता है। इसलिए सांप्रदायिक सौहार्द को सर्वोपरि रखना चाहिए। और अंग्रेजों की तरह मानसिकता रखने वाले आज के सियासतदानों या कट्टरपंथी तत्वों से बच के रहना चाहिए, जो दोनो तरफ मौजूद हैं। फसाद की जड़ दो लिखावट है तो यह भी याद रखना चाहिए कि अभी तो इनकी विशिष्ट पहचान भी है। इन दोनो के गले मिलने की राह में अवरोध नहीं होना चाहिए। और अब तो वह समाप्त ही हो गई है।
इसलिए उर्दू का शाइर हिंदी का दोहा लिख रहा है खालिस उर्दू शब्दों के संयोजन से तो वही हिंदी का कवि शुद्ध फारसी-अरबी शाइरी की विधा में गजल कह रहा है। आम भाषा में तो कभी क्लिष्ट हिंदी के शब्दों को सजाकर भी। पहले कविसम्मेलन और मुशायरा, अलग-अलग आयोजनों का नाम हुआ करता था, अब प्रायः कविसम्मेलन-सह-मुशायरा, मुशायरा-ओ-कविसम्मेलन जैसे निकटता बढ़ाने वाले आयोजन हो रहे हैं। दोनो भाषाएं निकट आ रही हैं। हिंदी-उर्दू भाषी निकट आ रहे हैं। अब शाइरों की फेहरिस्त में कवि और गीतकार के भी नाम होते हैं। अब कवियों की पंक्ति में शाइर और शाइरा भी बैठी हुई मिल जाती हैं।
भाषा विज्ञान की दृष्टि से उर्दू वर्णमाला में बदलाव की गुंजाइश तो बहुत है मगर साहित्य के लिए ऐसी कोई विशेष आवश्यकता नहीं। साहित्यकार तमाम उन विधाओं में लिख रहे हैं, जो पारंपरिक हैं, साथ ही दूसरे देशों की विशिष्ट विधाओं में भी प्रयासरत हैं। बस एक चीज की कमी दिखती है, वह है जुनून की। पहले की तरह साहित्य के लिए पूरी तरह समर्पित लोग नहीं रहे। अदब अब पार्ट टाइम काम रह गया है। अपनी भाषा के लिए साहित्य को पढ़ना, दूसरी भाषा के साहित्य को पढ़ना और परखना, विश्व के साहित्यिक पटल पर दृष्टि गड़ाए रखना, जैसे काम आम तौर से उर्दू का साहित्यकार कम ही कर रहा है। कूपमंडूक की तरह अपने अदब को ही सबकुछ समझ लेने के कारण उर्दू अदब में एक ठहराव सा है। अनुवाद की भी अत्यंत आवश्यकता है। पूरे विश्व को अगर अपना अदब दिखाना है तो इसके लिए जतन भी करने की आवश्यकता है। किताबें आज जितनी छप रही हैं, किसी दौर में नहीं छपीं। किताबें जितनी रद्दी की टोकरी में जा रही हैं, किसी दौर में नहीं फेकी गयीं।
भाषा के संबंध में डॉ आजम विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि भाषा एक संवेदनशील एवं भावनात्मक विषय वस्तु है और किसी भी समुदाय की दुखती हुई रग भी है। यह अलग बात है कि भाषा किसी समुदाय विशेष की होनी ही नहीं चाहिए क्योंकि उस पर हर किसी का अधिकार है। मगर जिस समुदाय का जिस भाषा में धार्मिक साहित्य होता है, वह स्वतः उस समुदाय की जानी और मानी जाने लगती है। वरना पहले भी कह चुका हूं कि हिंदी-उर्दू में दोनो समुदायों के लोगों ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है, फिर भी उर्दू कई मोरचों पर हिंदी से पिछड़ती हुई लगती है। उर्दू मंचीय एवं एकेडमिक स्तर पर जो पिछड़ रही है, उसका कारण और कोई नहीं, स्वयं उर्दू वाले हैं। और कुछ शासकीय उदासीनता भी।
मगर इसके कारण के लिए मैं किसी नेता की तरह आरोप नहीं लगाऊंगा बल्कि शिकायत करूंगा उर्दू वालों से ही कि अपने गले में झांककर बताओ कि इस भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए स्वयं क्या कर रहे हो। तुम्हारे घर में कितने उर्दू पढ़ने वाले हैं, क्या उर्दू का कोई समाचारपत्र, अखबार निरंतर आता है, क्या कोई उर्दू पाक्षिक, मासिक पत्रिका अनवरत मंगाई जाती है? एक ही जवाब है, नहीं। या फिर कहेंगे, कभी-कभी। ऐसा नहीं है कि पत्रिकाएं प्रकाशित नहीं हो रहीं। ऐसा नहीं है कि अखबार शाया नहीं हो रहे। मगर उर्दू जानने वाले ही सिमटते, सिकुड़ते नजर आ रहे हैं। पत्रिकाएं दम तोड़ देती हैं। अखबार विज्ञापनों और ब्लैकमेलिंग से छपते रहते हैं, जिनमें अधिकतर बासी खबरें ही होती हैं। साहित्य का तो और भी बुरा हाल है। उर्दू साहित्य बिकता कम है, बंटता अधिक है।
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