101 साल पहले आज ही के दिन पहली बार इस्तेमाल हुआ था इंसुलिन
इंसुलिन की खोज बहुत बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि थी. इस खोज के बाद टाइप 1 डायबिटीज मौत का फरमान नहीं रह गई.
11 जनवरी,1922. आज से ठीक 101 साल पहले पहली बार डायबिटीज पीडि़त व्यक्ति के इलाज के लिए इंसुलिन का इस्तेमाल किया गया था. लियोनार्ड थॉम्पसन की उम्र 145 साल थी और वह टाइप 1 डायबिटीज से पीडि़त था. टाइप 1 डायबिटीज वह होती है, जिसमें मनुष्य का शरीर पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन नहीं बना पाता. इस कारण ब्लड में शुगर का स्तर बढ़ने लगता है. अगर यह ज्यादा बढ़ जाए तो जानलेवा भी हो सकता है.
लेकिन जब पहली बार लियोनार्ड थॉम्पसन को इंसुलिन का इंजेक्शन दिया गया तो कुछ ही घंटों के भीतर उसका ब्लड शुगर का स्तर काफी नीचे आ गया.
इसके बाद भी उस इंसुलिन को और रिफाइंड करने का काम किया जाता है. ठीक 11 दिन बाद थॉम्पसन को इंसुलिन का दूसरा इंजेक्शन दिया गया और इस बार उसका ब्लड शुगर लेवल घटकर बिलकुल सामान्य पर आ गया. पहली बार इंजेक्शन दिए जाने के बाद भी शरीर में कीटोन्स की मात्रा काफी ज्यादा थी. लेकिन इस बार कोई भी साइड इफेक्ट दिखाई नहीं दिया.
यह बहुत बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि थी. अब टाइप 1 डायबिटीज मौत का फरमान नहीं थी. इस जानलेवा बीमारी का इलाज अब पूरी तरह मुमकिन था और इस काम को संभव कर दिखाया था सर फ्रेडरिक जी. बैंटिंग ने. इंसुलिन पर शुरुआती प्रयोग बैंटिंग ने किए थे. बाद में चार्ल्स एच. बेस्ट और जेजेआर मैक्लियोड की भी इसे पूरी तरह विकसित करने और मनुष्य के शरीर पर इस्तेमाल किए जाने के योग्य बनाने में बड़ी भूमिका रही.
आज वह ऐतिहासिक दिन है. इंसुलिन की खोज और उसके पहले इस्तेमाल को तकरीबन 100 साल हो चुके हैं. इन 100 सालों में भी इंसुलिन की खोज मेडिकल साइंस के इतिहास की सबसे महानतम उपलब्धियों में से एक है.
यहां एक बात और समझना जरूरी है कि आज जो डायबिटीज पैनडेमिक हो रहा है और पूरी दुनिया की 30 फीसदी से ज्यादा आबादी किसी ने किसी रूप में जिस इंसुलिन रेजिस्टेंस की शिकार है, वह मुख्यत: लाइफ स्टाइल से जुड़ी बीमारी है, जो आज से 50-60 साल पहले थी ही नहीं. तब लोगों को जो डायबिटीज होती थी, वह मुख्यत: टाइप 1 डायबिटीज थी, जिसमें पैंक्रियाज इंसुलिन बनाने में अक्षम होता है. कई जेनेटिक कारणों से भी यह बीमारी होती थी और 9-10 साल के बच्चों को भी टाइप 1 डायबिटीज हो सकता था.
डॉक्टरों के लिए यह समझना बड़ी चुनौती थी कि आखिर क्यों कुछ लोगों के शरीर में ब्लड शुगर का स्तर इतना बढ़ जाता है और वो बाकी सामान्य लोगों की तरह उसे प्रॉसेस करने में सक्षम नहीं होते. जाहिर है पैंक्रियाज की एक्टिवटी के खुलासे के साथ डॉक्टरों को यह समझने में मदद मिली कि इस डायबिटीज में असली दिक्कत पैंक्रियाज थी क्योंकि वह इंसुलिन बना पाने में अक्षम था.
1920 तक आते-आते वैज्ञानिकों ने पैंक्रियाज में कोशिकाओं के उन समूहों को पता लगा लिया था, जिन्हें आइलेट्स कहा जाता है और जो इंसुलिन का उत्पादन करते हैं. डॉक्टरों ने पाया कि जो भी टाइप 1 डायबिटीज से पीडि़त थे, उनके पैंक्रियाज में आइलेट्स एक्टिव नहीं थे. यहां से वैज्ञानिकों को एक क्लू मिला कि संभवत: इनएक्टिव आइलेट्स को ठीक करके इस स्थिति को सुधारा जा सकता है.
अब चुनौती यह थी कि इस इंसुलिन को शरीर के बाहर कैसे बनाया जाए. अक्टूबर 1920 में फ्रेडरिक बैंटिंग ने एक पत्रिका में लेख पढ़ा कि पैंक्रियाज में इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाएं पैंक्रियाज के अन्य ऊतकों की तुलना में धीमी गति से नष्ट होती हैं. बैंटिंग को लगा कि क्या पैंक्रियाज को इस तरह तोड़ा जा सकता है कि इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाएं मौजूद रहें. बैंटिंग खुद एक सर्जन थे और जानते थे कि अकेले वह यह प्रयोग नहीं कर पाएंगे. इसलिए उन्होंने टोरंटो विश्वविद्यालय के एक एक प्रोफेसर जॉन मैकलियोड से मुलाकात की. मैकलियोड ने बैंटिंग को अपनी प्रयोगशाला समेत कुछ अन्य सुविधाएं मुहैया कराईं.
एक साल बाद दोनों मिलकर एक कुत्ते के शरीर से इंसुलिन को एक्सट्रैक्ट करने में सफल हो गए. यह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि थी. इंसुलिन की खोज ने अब तक जानलेवा मानी जा रही एक बीमारी का इलाज खोज लिया था. इस खोज के लिए 1923 में फ्रेडिरिक बैंटिंग को मेडिसिन के नोबेल प्राइज से सम्मानित किया गया.
Edited by Manisha Pandey