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एक और गंगापुत्र-भगीरथ स्वामी सानंद का बलिदान

एक और गंगापुत्र-भगीरथ स्वामी सानंद का बलिदान

Sunday October 14, 2018 , 8 min Read

मां गंगा में अगाध आस्था रखने वाले, उसकी अविरलता और स्वच्छता के लिए प्राणपण से उठ खड़े हुए ख्यात पर्यावरणविद स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद (प्रो जीडी अग्रवाल) ने देवभूमि पर आमरण अनशन के दौरान एम्स (ऋषिकेश) में भर्ती कराए जाने पर अपने प्राण त्याग दिए। उस महान शख्सियत के प्रश्न अब भी अनुत्तरित हैं।

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गंगा नदी ही नहीं, भारतीय अर्थव्यवस्था और साहित्य चेतना को भी प्रवाहित करती है। ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है।

एक पौराणिक आख्यान है कि सूर्यवंशी राजा दिलीप के पुत्र भागीरथ हिमालय पर तपस्या कर रहे थे। वह गंगा को धरती पर लाना चाहते थे। उनके पूर्वज कपिल मुनि के शाप से भस्म हो गये। गंगा ही उनका उद्वार कर सकती थीं। भागीरथ अन्न-जल छोड़कर तपस्या करने लगे। गंगा उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न हो गईं। भागीरथ ने मद्धिम स्वर में गंगा को कहते सुना कि 'महाराज मैं आपकी इच्छानुसार धरती पर आने के लिये तैयार हूँ, लेकिन मेरी तेज धारा को धरती पर रोकेगा कौन? अगर वह रोकी न गई तो धरती की परतें तोड़ती हुई पाताल में चली जायेगी।' उपाय पूछने पर गंगा ने कहा - 'महाराज भागीरथ, मेरी प्रचन्ड धारा को सिर्फ शिव रोक सकते हैं। यदि वे अपने सिर पर मेरी धारा को रोकने के लिये मान जाएं तो मैं पृथ्वी पर आ सकती हूँ।'

भागीरथ की तपस्या से प्रसन्न हुए शिव गंगा की धारा को सिर पर रोकने के लिये तैयार हो गए। ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, दशहरा के दिन जटा खोलकर, कमर पर हाथ रख कर खड़े हुए शिव अपलक नेत्रों से ऊपर आकाश की ओर देखने लगे। गंगा की धार हरहर करती हुई स्वर्ग से शिव के मस्तक पर गिरी। सारा पानी शिव की जटा समा गया। भागीरथ की प्रार्थना पर शिव ने जटा निचोड़ कर गंगा की जलधारा को धरती पर प्रवाहित कर दिया। कपिल मुनि के आश्रम पहुँचकर गंगा ने भागीरथ के महाराज सगर आदि पूर्वजों का उद्वार किया। वहाँ से गंगा बंगाल की खाड़ी में समाविष्ट हुई, उसे आज गंगासागर कहते हैं। ये कथा सीखाती है कि आस्था और लगन हर बाधा तोड़कर जीवन सफल कर देती है। आज बांधों ने गंगा की स्वच्छंदता और अविरलता बाधित कर दी है। उसमें प्रतिदिन भारी गंदगी घुल रही है। इसके विरुद्ध उठ खड़े हुए दो संत अब तक अपनी जान गंवा चुके हैं, जिनमें एक थे स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद (प्रो जीडी अग्रवाल), जिन्होंने देवभूमि पर आमरण अनशन के दौरान एम्स (ऋषिकेश) में भर्ती कराए जाने पर प्राण त्याग दिए।

गंगा नदी ही नहीं, भारतीय अर्थव्यवस्था और साहित्य चेतना को भी प्रवाहित करती है। ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। यह उत्तराखण्ड से बांग्लादेश तक कुल 2,510 किलोमीटर की दूरी तय कर गंगा सागर में समा जाती है। मुर्शिदाबाद से हुगली शहर तक गंगा का नाम भागीरथी, वहां से मुहाने तक हुगली नदी हो जाता है। अपनी उपत्यकाओं में गंगा का भारत-बांग्लादेश की कृषि-आर्थिकी में भारी योगदान है। गंगा सिंचाई के लिए अपने रास्ते की तमाम सहायक नदियों का बारहमासी स्रोत भी है।

इसके परिक्षेत्र में धान, गन्ना, दाल, तिलहन, आलू, गेहूँ ही नहीं, मिर्च, सरसो, तिल, गन्ना जूट की फसलों को भी गंगाजल से जीवन दान मिलता है। इस पर भारत का मत्स्य उद्योग भी आश्रित है। इससे 111 मत्स्य प्रजातियों को भी जीवन मिलता है। अपने इतिहास से मानव ज्ञान, धर्म, अध्यात्म, सभ्यता-संस्कृति की किरणें बिखेरती हुई गंगा सुन्दरवन के भारतीय भाग में सागर से संगम करती है। वैज्ञानिकों के मुताबिक गंगाजल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जिनमें शुद्धीकरण की अद्भुत क्षमता होती है। भारत सरकार ने 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी तथा इलाहाबाद-हल्दिया के बीच 1600 किलोमीटर के इसके क्षेत्र को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया।

इस नदी की सफाई के लिए कई बार राष्ट्रीय सतर पर पहल की गई लेकिन आज भी गंगा की हालत चिंताजनक है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने गंगा नदी प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए जुलाई 2014 में भारत के आम बजट में 'नमामि गंगे' परियोजना का मार्ग प्रशस्त किया, लेकिन उसके भी अपेक्षित परिणाम अब तक सामने नहीं आ सके हैं। उधर, संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार हिमालय में गंगा के जलस्रोत हिमनद सन् 2030 तक समाप्त हो सकते हैं। यह पूरे भारत के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है। इसी गंभीर चिंता से पर्यावरणविद प्रो जीडी अग्रवाल को स्वामी सानंद के रूप में प्राण न्योछावर कर देने की प्रेरणा मिली।

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया एंड बर्केले से एनवायर्मेंटल इंजीनियरिंग में पीएचडी प्रो जीडी अग्रवाल का जन्म 20 जुलाई 1932 को मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) के कांधला में हुआ था। उनकी शुरुआती शिक्षा वहीं के प्राइमरी स्कूल में हुई। इसके बाद उन्होंने आईआईटी रुड़की से ग्रेजुएशन किया। वहीं पर कुछ समय तक वह विजिटिंग प्रोफेसर, महात्मा गांधी ग्रामोदय यूनिवर्सिटी चित्रकूट में पर्यावरण विज्ञान के ऑनरेरी प्रोफेसर, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रथम सचिव, राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के सलाहकार रहे।

वर्ष 2011 में वह संन्यासी हो गए। अपना नाम जीडी अग्रवाल से बदल कर स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद कर लिया। वह गंगा में अगाध आस्था रखते थे। वह कहा करते- गंगा उनकी मां है, वह गंगा के लिए अपनी जान भी दे सकते हैं। देहावसान से पहले उन्होंने गंगा की अविरलता और स्वच्छता के लिए पांच बार अनशन किए। वर्ष 2009 में भागीरथी नदी पर बांध का निर्माण रुकवाने के लिए उन्होंने आमरण अनशन किया था जिसमें सफल रहे थे। वर्ष 2013 में जब उन्होंने गंगा सफाई के लिए हरिद्वार में अनशन किया तो प्रशासन ने उन्हें जेल में डाल दिया। गंगा की सफाई के लिए विशेष कानून की मांग करते हुए वह एक बार फिर 22 जून 2018 से हरिद्वार के उपनगर कनखल के जगजीतपुर स्थित मातृसदन आश्रम में अनशन पर बैठ गए। इस बार स्वामी सानंद ने गंगा की अविरलता और स्वच्छता के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तीन पत्र लिखे। उन्होंने 9 अक्तूबर 2018 को जल भी त्याग दिया। उन्हें जबर्दस्ती उठाकर पुलिस प्रशासन ने ऋषिकेश एम्स में दाखिल करा दिया। वहां भी आमरण अनशन जारी रखते हुए लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती के दिन उन्होंने प्राण त्याग दिए।

अब सवाल उठ रहे हैं कि अपनी मांगों को अनसुना कर दिया जाना ही क्या डॉ. अग्रवाल के देहावसान का प्रमुख कारण बना? क्या उन्हे व्यापक जन सहयोग मिल जाता तो उनकी मांगें ठण्डे बस्ते में पातीं? गंगा बेसिन पर लागू होने वाला कानून देश की अन्य नदियों पर क्यों नहीं लागू हो पा रहा है? नौकरशाही की नासमझी के बाद देरी से बने क़ानूनों से माँ गंगा का दर्द कैसे कम होगा? आज भारत के लोग गंगापुत्र स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को ज्ञान, विज्ञान और संकल्प के एक संगम की तरह शोकमग्न मन से याद कर रहे हैं। स्वामी सानंद ने बीएचयू से तीन विषयों में ऑनर्स किया था।

स्वामी सानंद लिखते हैं - 'बीएचयू में फोर्थ इयर में मुझे मैस का मैनेजर बना दिया गया। हमारा मैस कम चार्ज में अच्छा खाना देने के लिए प्रसिद्ध हो गया था। मुझे एमएससी (कैमिस्ट्री) में प्रवेश मिला। प्रोफेसर मुझे रिसर्च में ले जाना चाहते थे। मामा और मां इंजीनियर बनाना चाहते थे। रुड़की में इंजीनियरिंग में प्रवेश ले लिया। कैमिस्ट्री हमेशा मेरी ताकत रही। अमेरिका में था, तो डॉ पियरसन कहते थे – 'तुम इंजीनियर कम, कैमिस्ट ज्यादा हो।' रुड़की यूनिवर्सिटी में रैगिंग होती है। बीएचयू तक तो मैं धोती या फिर कुरता-पायजामा ही पहनता था। बीएचयू में नियम था- नो कोट, नो टाई। रुड़की में उल्टा था। मैंने पतलून सिलाई। अपहले-पहल कोट और पतलून पहनकर यूनिवर्सिटी गया। गेट पर खड़े लड़के बोले- टाई लगाकर आओ। मेरी शर्ट टाई कॉलर वाली नहीं थी। अब समस्या थी कि उसमें टाई कैसे लगे। रिश्तेदार से शर्ट उधार ली गई। इस तरह मैंने पहली बार पतलून, कोट और टाई पहनी। एक महीने तक रैगिंग चलती रही, तो बैठक हुई कि रैगिंग का विरोध होना चाहिए। एक हॉस्टल में सात कमरे; हर कमरे में दो लड़के। मैं भी विरोध में शामिल हुआ। हम में इतनी समझ तो थी कि विरोध ऐसे हो कि हम निकाले न जाएं। विरोध के बाद रैगिंग बंद हुई। जब हमारा बैच अगले साल सेकेण्ड इयर में पहुंचा, तो हम में से कुछ ने तय किया कि हम रैगिंग करने वालों में शामिल नहीं होंगे। हालांकि हमारी संख्या छोटी थी, लेकिन हमने सोचा कि इसे रोकना है। कैसे रोकें? तो हमने सोचा कि अखबार को पत्र लिखें। मुझे जिम्मेदारी दी गई। उस वक्त लखनऊ से ’नेशनल हैरल्ड’ अखबार निकलता था। मैंने उसे पत्र लिखा। रैगिंग के पिछले वर्ष के अपने अनुभवों को आधार बनाया। नेशनल हैरल्ड ने वह पत्र छापा। अखबार ने एक कॉपी मुझे भी भेजी। उन्होंने यह भी लिखा था कि यदि मेरे खिलाफ कोई एक्शन हो, तो मैं अखबार को लिखूं। अखबार मामले को टेकअप करेगा। ऐसा अखबार के संपादक ने मुझे आश्वासन दिया था।

छपा हुआ पत्र, वैरीफिकेशन व नैससरी एक्शन के लिए यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर के पास भी आया। वाइस चांसलर थे कर्नल वी. सी. हार्ट। कर्नल हार्ट ने माना कि इससें विश्वविद्यालय की बदनामी हुई है। रुड़की यूनिवर्सिटी, एक पायनियर यूनिवर्सिटी थी। अब भला मैं क्यों चाहता कि इसकी बदनामी हो। खैर, वाइस चांसलर ने मुझे बुलाया। मैंने सोच रखा था कि अगर गलती हो, तो दण्ड भुगतने को हमेशा तैयार रहो। यह मेरे बाबाजी की सीख थी। वी सी महोदय ने कहा– मुझे बताना चाहिए था। यह सच था कि जब हमारी रैगिंग हुई, तो वह वाइस चांसलर नहीं थे। मुझसे बातचीत के बाद उन्होंने हस्तक्षेप किया और रैगिंग खत्म हो गई। हमें संतोष हुआ।' इस संस्मरण में आगे स्वामी सानंद यह भी बताते हैं कि सरकारें किस प्रकार हमारे इंस्टीट्युशन्स को नष्ट करती हैं।

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