"कबीर मन मस्तिष्क पर 'अंकित' होते गए, मैं कहानी सुनाता गया"
दास्तानगोई का फ़न इसलिए भी मुख़्तलिफ़ है, क्योंकि यह इतिहास, साहित्य और अभिनय का संगम है....
कहानी सुनाने का रिवाज़ पुराना है। चाहे वह जातक और पंचतंत्र की कहानियाँ हो, लोक कथाएँ या वचन हो या दक्षिण भारत की बुर्रा कथा या विल्लू पातु। चाहे वह इंटरनेट और डिजिटल मीडिया के ज़माने में हमारी अपनी योर स्टोरी ही क्यों न हो।
इसी तरह कहानी सुनाने की एक पारम्परिक कला है दास्तानगोई, जिसका अरब देश में जन्म हुआ था। सोलहवीं से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के बीच दास्तानगोई का भारत में विकास हुआ, ख़ास तौर पर दिल्ली और उत्तर प्रदेश के नवाबों के प्रांतों में। आम जनता भी दिन भर की थकान मिटाने के लिए दास्तानगो (कहानी सुनाने वाला) की महफ़िलों में शुमार होते थे। दास्तानगो का लक्ष्य होता था कहानी को जितना लम्बा सुनाया जा सके उतना लम्बा खींच कर सुनाना। अफीमखानों में भी दास्तानगो की दाद दी जाती थी और कहानियों से अफीम का नशा और भी अधिक चढ़ता था।
ऐसी ही एक कहानी दास्तान-ए-अमीर हम्ज़ा इस दौर में काफी प्रचलित रही। इसके नायक अमीर हम्ज़ा, हज़रत मुहम्मद के चाचा थे जिनकी वीरगाथाओं को दास्तानगो सुनाते थे। अमीर हम्ज़ा का उल्लेख बादशाह अकबर के हम्ज़ा-नामा में भी मिलता है। अकबर ख़ुद भी इन दास्तानों को पसंद करते थे और अपनी बेगमों को सुनाया करते थे।
1857 की क्रांति का गला मरोड़ने के बाद अँगरेज़ सरकार लखनऊ और दिल्ली के नवाबों पर बरस पड़ी। इन्हें मिलने वाली सुविधाएं छीन ली गई, जिसका सीधा असर दास्तानगोई की कला पर पड़ा। दास्तानगो कम होते चले गए। बीसवीं सदी की शुरुवात तक इसे लगभग मुर्दा करार दिया गया। मीर बाक़र अली, जिन्हें आख़री दास्तानगो कहा गया, 1928 में चल बसे।
माया मरी न मन मरा
उर्दू के बड़े रचनाकार, आलोचक शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी और इनके भतीजे, लेखक और रंगकर्मी महमूद फ़ारूक़ी ने मिलकर पिछले कई सालों तक इस मृत कला पर शोध किया, और इसका पुनरुत्थान करते चले गए। इनके शागिर्द, खासकर युवाओं की मदद से दास्तानगोई का नवीकरण संभव हुआ। आज दास्तानगोई एक सजीव कला है। साल 2005 में दास्तानगोई के पुनरुत्थान की शुरुवात हुई और आज ये नई पीढ़ी के कलाकार अपनी नई पुरानी कहानियां लेकर दुनिया के कोने कोने तक पहुँच गए हैं।
दास्तानगोई एक ऐसी कला है जिसमें अधिक आयोजन की ज़रुरत नहीं पड़ती। आज ये दास्तानगो परंपरागत नियमों से आज़ाद होकर स्कूल कॉलेजों में, डिनर थिएटरों में, अल्लाहाबाद के माघ मेलों में, साहित्यिक महोत्सवों में शिरकत कर रहे हैं।
यह कहानी ऐसे ही एक दास्तानगो अंकित चड्ढा की है, जो एक कहानीकार, लेखक, उद्यमी, और शोधकर्ता भी हैं। इतिहास की परिपाटी की ओर ताकते, और मार्केटिंग में महारत हासिल करने की वजह से ये अपनी कला को ही अपना उद्यम मानते हैं, जिसके केंद्र में नवाचार है। मैंने मध्य प्रदेश के एक छोटे से शहर में इन्हें कबीर पर दास्तान सुनाते हुए पहली बार देखा, और तबसे इनका कायल हो गया हूँ।
तिनका कबहुँ ना निंदये
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में स्नातक की पढ़ाई करते हुए अंकित नुक्कड़ नाटकों से मुखातिब हुए। कुछ सालों तक इन्होंने अपने कॉलेज की नाटक संस्था - इब्तिदा को भी चलाया। इस दौर से गुज़रते हुए इन्होंने अपनी ज़मीन तलाश ली। इनके शुरुवाती नाटक और लेखन बेरोज़गारी, विस्थापन और उपभोगता को जागरूक करने जैसे सामाजिक विषयों पर केंद्रित रहे।
पढ़ाई पूरी करने के बाद अंकित ने कॉर्पोरेट मार्केटिंग में नौकरी की। यहाँ भी ये लिखते थे मगर यह लेखन विज्ञापन केंद्रित था। इस समय के लेखन और कॉपी राइटिंग के काम को ये उबाऊ बताते हुए भी ये अपनी नौकरी को उसका उचित श्रेय देते हैं -
"मेरी नौकरी ने मेरे अंदर मार्केटिंग के कौशल को उभारा, और मुझे काम की नैतिकता सिखाई। अपने काम को करते हुए मैंने जाना की लेखन में भी एक प्रकार के अनुशासन की ज़रुरत होती है।"
गुरु गोविंद दोनों खड़े
मार्केटिंग में दो साल नौकरी करने के बाद इन्होंने फेसबुक पर महमूद फ़ारूक़ी द्वारा आयोजित दास्तानगोई की कार्यशाला के बारे में पढ़ा। इसे महमूद फ़ारूक़ी ने दानिश हुसैन के साथ मिलकर आयोजित किया था। कार्यशाला को याद करते हुए अंकित कहते हैं -
"मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक दास्तानगो बनूँगा। ज़िन्दगी एक सबसे अच्छे अनुभवों की तरह यह मौक़ा भी अचानक ही आया। जैसे प्रेम हमारे जीवन में प्रवेश करता है, ठीक उसी तरह। नुक्कड़ नाटकों की तरह मैं एक ऐसी कला से मुखातिब हुआ जिसमें न लाइट की ज़रुरत थी न स्टेज की। कहानी सुनाने वाले और सुनने वाले के बीच सीधा सम्बन्ध जोड़ने की दरकार थी। मुझे इसी बात ने प्रभावित किया। इस कला का रूप लेकर आप अपनी कहानी सुना सकते हैं। उस्ताद ने मेरी ज़िन्दगी बदल दी।"
दास्तानगोई को अंकित उद्यमिता का ही एक रूप मानते हैं, जिसमें शमसूर रहमान फ़ारूक़ी का अनुसंधान, महमूद फ़ारूक़ी का निर्देशन, अनुषा रिज़वी (जो कि पीपली लाइव की निर्देशिका भी हैं) का डिज़ाइन और दानिश हुसैन का अभिनय जुड़कर इस कला को नए आयाम तक पहुंचाता है। अंकित का मार्केटिंग ज्ञान भी इनकी मदद करता है।
"उस्ताद (महमूद फ़ारूक़ी) के साथ मेरा रिश्ता मेरे इस सफर का सबसे बेहतरीन पहलू रहा है। इनके घर पर हमारे तमाम रिहर्सल और बैठक होते हैं। मैंने इनसे उर्दू सीखा और इन्हीं की संगत में रहते हुए मैं गुरु शिष्य की परंपरा को भी समझ पाया। मैं जहाँ भी अटक जाता हूँ, उस्ताद का एक मंत्र रास्ता ढूंढने में मेरी मदद करता है। ऐसे पिता की तरह जो किताबें अपने बच्चे पर ज़बरदस्ती नहीं थोप देता, बल्कि उन्हें ऐसी जगहों पर रख देता है जहाँ से बच्चा उन्हें खुद ढूंढ सके।"
माटी कहे कुम्हार से
अगले दो सालों तक अंकित अमीर हम्ज़ा की परंपरागत कहानियां सुनाते रहे। इस काम को करते हुए ये दास्तानगोई के फ़लसफ़ों से भी जुड़े और इनके अंदर कुछ नया करने की उकताहट ने भी जन्म लिया।
अंकित की इच्छा थी दास्तानगो की पध्दति में नए रूप और विषयों को शुमार करने की। इसी समय महमूद फ़ारूक़ी ने डॉ. बिनायक सेन पर चल रही कार्यवाही के विरोध में दास्तान-ए-सेडिशन लिखा था। इस दास्तान को देखते हुए अंकित की नए विषय वस्तुओं की तरफ आँखें खुली। इन्होंने जल्दी ही दास्तान की कला का इस्तेमाल कर दास्तानगोई पर एक स्पूफ (मज़ाकिया नक़ल) की रचना की जिसे काफी सराहा गया।
"जहाँ एक तरफ मैं आधुनिकता को अपनाता जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ दास्तान की परंपरा ने मेरा साथ नहीं छोड़ा। मैं कबीर और ख़ुसरो से प्रभावित था। सूफी विचारों से प्रेरित था। इसी बीच मैंने यह भी जाना कि कैसे दास्तानगोई का इस्तेमाल कर शिक्षा का प्रचार किया जा सकता है।"
इसके बाद अंकित ने दास्तान ए मोबाइल फ़ोन लिखा, जिसे काफी सराहा गया। अंकित ने तय कर लिया था कि वे दास्तानगोई कला को नए कंटेंट और फॉर्म में ढालेंगे और इसे ही अपनी ज़िन्दगी बनाएंगे। इन्होंने नौकरी छोड़ दी और अपना पूरा समय दास्तानगोई को देने लगे।
कहत कबीर सुनो भई साधो
अंकित के माता पिता को इनका नौकरी छोड़ना पसंद नहीं आया। वे चाहते थे कि अंकित आईएएस की पढ़ाई करे। वे अंकित के जीवन में चल रहे उथल पुथल से आशंकित थे। नौकरी छोड़ने के बाद अंकित बच्चों के लिए दास्तान लिख कर इन्हें स्कूल और सभाओं में सुनाने लगे थे। इसी दौरान अंकित की माँ ने इनके सबसे मशहूर दास्तान को देखा - दास्तान ढाई आखर की, जो कि कबीर पर केंद्रित था। इस क्षण ने उनका मन बदल दिया।
कबीर पर दास्तान भी सुनियोजित नहीं था। कबीर महोत्सव के आयोजकों की इच्छा थी कि कबीर के जीवन और दर्शन पर दास्तान सुनाई जाए और महमूद फ़ारूक़ी ने यह काम अपने शागिर्द अंकित को सौंपा। अंकित ने कई वर्षों तक शोध करने के बाद कबीर की दास्तान को पूरा किया।
"हमारा फ़न इसलिए भी मुख़्तलिफ़ है, क्योंकि यह इतिहास, साहित्य और अभिनय का संगम है। कबीर में ये तमाम गुण मौजूद थे, और इसीलिए ये दास्तानगोई के लिए आदर्श इंसान थे। कबीर ने भी अपना कोई दोहा नहीं लिखा। ये भी दस्तानों की तरह ज़बानी परंपरा की ही कविताएँ लिखते थे। कबीर मुझे बुनते चले गए। मेरे विचारों में आए, और कहा - सुनो भई साधो। और मैंने सुनना शुरू किया।"
साईं इतना दीजिये
समय के साथ अंकित के आर्थिक स्थितियों में भी सुधार आया है। अब वे अपना काफी समय पढ़ने-लिखने में बिताते हैं। एक सृजनशील उद्यमी की हैसियत से वे जानते हैं कि उनका काम एक दीर्घकालिक निवेश है। छलांग लगाने से अधिक ज़रूरी है तैरते रहना।
अंकित उत्तरआधुनिकता को कला में ढालते हैं और मानते हैं कि वर्त्तमान का काम इतिहास और भविष्य के बीच पुल बनाने का होता है। अगर अपने समय को प्रतिबिंबित न किया जाए तो यह भविष्य और परंपरा दोनों के प्रति अन्याय होगा। जहाँ दास्तानगोई की जड़ें हमेशा होशरुबा के तिलिस्मों में ही रहेंगी, वहीं अगर नई कहानियां लिखकर दास्तानगो का पेट और परिवार चलता है तो इसमें दास्तानगोई और दास्तानगो दोनों की जीत है। अपने शोध के सिलसिले में वे शिक्षक, अध्येता, रंगकर्मी, संगीतकार, सिविल सोसाइटी की इकाइयों के साथ मिलकर काम करते हैं, और इस स्तर की सहकार्यता में इन्हें बेहद मज़ा आता है।
धीरे-धीरे रे मना
इतनी कामयाबी और नाम हासिल करने के बावजूद दास्तानगोई के रिवाज़ और अपने श्रोताओं के प्रति प्रेम ने अंकित को विनम्र बनाये रखा है।
"आप कॉर्पोरेट में अच्छी नौकरी करते हैं तो आपको बोनस मिलता है। हमारा बोनस हमारे श्रोता हैं। इस काम में जो सुकून मिलता है वह कहीं और संभव भी तो नहीं है। कई श्रोता मुझे बतलाते हैं कि हमारा काम कैसे हमारे देश के इतिहास, हमारी तहज़ीब, भाषा और हमारे साहित्य को समृद्ध करता है। मुझे इससे बेहद ख़ुशी मिलती है।"
अंकित और इनके जैसे कई युवा आज दास्तानगोई की कला को संपन्न करने में जुटे हैं। इनका एक बड़ा योगदान बच्चों और स्कूल के छात्रों के लिए दास्तान लिखने में रहा है। ऐलिस इन वंडरलैंड से प्रेरित होकर इन्होंने हाल ही में 'दास्तान ऐलिस की' को पूरा किया है।
अंकित अब्दुर रहीम ख़ान-ए-ख़ानाँ पर भी शोध कर रहे हैं जो बादशाह अकबर के नौरत्नों में से थे। इन्होंने कुछ दिनों पहले 'दास्तान दारा सिकोह की' पर काम पूरा किया है। जब नए फनकारों को सलाह देने की बात आती है तो वे कहते हैं -
"हमें अपनी कहानी लिखनी चाहिए। अपनी प्रतिभा को समझना और अंदर की आवाज़ को तलाशना ज़रूरी है। वही आपकी सबसे बेहतरीन कहानी होगी। और बाजार में बिक रही फिल्मी और क्रिकेटरों की कहानियों से कहीं बेहतर भी होगी।"