झोपड़-पट्टी में रहने वाला लड़का बना इसरो का साइंटिस्ट
16000 लोगों को पीछे छोड़ते हुए स्लम में रहने वाला ये लड़का बन गया वैज्ञानिक...
प्रथमेश की कहानी जितनी संघर्षों भरी है उतनी ही दिलचस्प भी है। फिल्टरपाड़ा स्लम एरिया काफी घनी आबादी वाला इलाका है, जहां सुकून से पढ़ाई कर ले जाना ही किसी संघर्ष से कम नहीं है।
प्रथमेश इस मामले में खुशकिस्मत रहे कि उनके पैरेंट्स ने इंजीनियरिंग के लिए हां कर दी। 2007 में उन्हें भागुभाई मफतलाल पॉलिटेक्निक कॉलेज में इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग में डिप्लोमा करने का मौका मिल गया।
कुल 16000 लोगों ने इसरो में वैज्ञानिक के लिए आवेदन किया था, जिसमें से केवल 9 लोगों का सेलेक्शन होना था। पिछले महीने 14 नवंबर को परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ और प्रथमेश उन 9 लोगों में से एक थे जिनका सेलेक्शन हुआ।
25 साल के प्रथमेश हिरवे उस जगह पर जाने वाले हैं जहां आज तक कोई मुंबईवासी नहीं पहुंच सका। पवई के स्लम इलाके में स्थित अपने 10x10 के छोटे से घर में दिन रात मेहनत से पढ़ाई करने वाले प्रथमेश ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की परीक्षा पास कर ली है। अब वे वहां पर वैज्ञानिक के तौर पर काम करेंगे। उनकी कहानी जितनी संघर्षों भरी है उतनी ही दिलचस्प भी है। फिल्टरपाड़ा स्लम एरिया काफी घनी आबादी वाला इलाका है, जहां सुकून से पढ़ाई कर ले जाना ही किसी संघर्ष से कम नहीं है। प्रथमेश के दोस्त और पड़ोसी उन्हें हमेशा पढ़ते ही देखते थे।
मिड-डे की एक रिपोर्ट के मुताबिक पड़ोसी अक्सर उनसे अक्सर पूछते थे कि वे इतना पढ़-लिखकर जिंदगी में क्या हासिल कर लेंगे, लेकिन प्रथमेश का आत्मविश्वास इन बातों से नहीं डिगता था। वे बताते हैं, 'मेरे माता-पिता मुझे साउथ मुंबई में एक टेस्ट के लिए ले गए। जहां एक करियर काउंसलर ने उन्हें विज्ञान के बजाय आर्ट्स विषय को पढ़ने की सलाह दी। काउंसलर ने कहा था कि प्रथमेश का चचेरा भाई तो साइंस पढ़ने के काबिल है लेकिन वे नहीं। यह सुनकर प्रथमेश काफी हताश और निराश हुए, लेकिन उन्होंने हार न मानने की ठान ली।' उन्होंने अपने माता-पिता से कहा कि अब चाहे जो हो जाए वे इंजिनियर बन के ही रहें।
प्रथमेश इस मामले में खुशकिस्मत रहे कि उनके पैरेंट्स ने इंजिनियरिंग के लिए हां कर दी। 2007 में उन्हें भागुभाई मफतलाल पॉलिटेक्निक कॉलेज में इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग में डिप्लोमा करने का मौका मिल गया। लेकिन अब भी उन्हें कई मुश्किलों से पार पाना था। सबसे पहली मुश्किल भाषा की थी। प्रथमेश ने दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई मराठी माध्यम से की थी इसलिए उनके डिप्लोमा के पहले दो साल काफी मुश्किल भरे रहे। उन्हें इंजिनियरिंग की भाषा समझने में खासी दिक्कत होती थी। वह बताते हैं कि इसी भाषाई मुश्किल की वजह से वे क्लास में सबसे पीछे बैठते थे ताकि कोई प्रोफेसर उनसे सवाल न कर सके।
लेकिन सेकेंड ईयर में उन्हें प्रोफेसर्स को बताना पड़ा कि उन्हें भाषा की दिक्कत आ रही है। उनके अध्यापकों ने उन्हें डिक्शनरी से शब्द देखने और मेहनत करने को कहा। कोर्स खत्म होने के बाद उन्हें L&T और टाटा पावर में इंटर्नशिप करने का मौका मिला। जहां पर उनके सीनियर्स ने उन्हें आगे की पढ़ाई करने के लिए प्रेरित किया। इसलिए प्रथमेश ने नौकरी करने के बजाय श्रीमती इंदिरा गांधी कॉलेज ऑफ नवी मुंबई से बीटेक करने के लिए अप्लाई किया। 2014 में उनकी बीटेक की पढ़ाई पूरी हो गई। लेकिन इसके बाद भी वे काफी असमंजस में रहे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे प्राइवेट कंपनी में नौकरी करें या फिर सरकारी सेवा में जाएं।
उन्होंने इस दौरान यूपीएससी की भी परीक्षा दी लेकिन सफलता नहीं मिली। उसके बाद उन्होंने इसरो में जाने का मन बनाया। इसी दौरान उन्हें नौकरी के कई सारे ऑफर मिल रहे थे, सो उन्होंने इंजिनियर के तौर पर काम करना शुरू कर दिया। हालांकि अभी भी उनका लक्ष्य इसरो में ही जाना था। इसलिए उन्होंने इसरो का फॉर्म भरा। उस वर्ष कुल 16000 लोगों ने इसरो में वैज्ञानिक के लिए आवेदन किया था, जिसमें से केवल 9 लोगों का सेलेक्शन होना था। पिछले महीने 14 नवंबर को परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ और प्रथमेश उन 9 लोगों में से एक थे जिनका सेलेक्शन हुआ।
प्रथमेश बताते हैं कि यह उनके बीते 10 सालों के संघर्ष का नतीजा है। अब उन्हें चंडीगढ़ में तैनाती मिलेगी जहां वे इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग में रिसर्च करेंगे। उन्होंने कहा कि वे अपने माता-पिता को अच्छा घर और अच्छी जिंदगी देना चाहते हैं। उनकी मां इंदु 8वीं पास हैं और उन्हें नहीं पता कि उनका बेटा अब क्या करेगा, लेकिन वे प्रथमेश की सफलता से बेहद खुश हैं। उनके पिता एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाते हैं। उन्होंने कहा कि जब प्रथमेश ने आर्ट्स की बजाय साइंस पढ़ने का फैसला किया था तो मैंने उसे कहा था कि इसमें काफी मेहनत की जरूरत होगी। प्रथमेश ने वादा किया था जो उसने निभाया भी।
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