पर्यावरण दिवस विशेष: सहकार से ही संभलेगा पर्यावरण, साफ होंगी नदियां
पर्यावरण दिवस पर विशेष...
गंगा नदी के किनारे करीब उत्तर प्रदेश के लगभग 17 करोड़ बाशिन्दे बसते हैं। कुल गंगा की गन्दगी का 40 प्रतिशत भाग यूपी के हिस्से में आता है। जिसमें इलाहाबाद, बनारस, सिमिरिया मुख्य और बड़े पड़ाव हैं, जहां से तीर्थ यात्रियों की गन्दगी, इन धार्मिक स्थानों की कुल गन्दगी का 40 प्रतिशत होती है।
हालत यह है कि औद्योगिक कचरे का बहाव पूर्व की तरह नाला व ड्रेन से हो रहा है। जीवनदायनी नदियां अब जीवन के लिए खतरा बनने लगी हैं। गौतमबुद्धनगर से प्रारम्भ होने वाली करबन नदी का पानी पीने से मार्च 2014 में दर्जनों नील गाय मर गई थीं। जांच में पता चला कि नदी का पानी इतना दूषित हो चुका है कि इसमें ऑक्सीजन लगभग खत्म ही हो गयी है।
कुदरत ने कायनात को बेहिसाब नियामतों से नवाजा है। लेकिन लोभ और हवस के घोड़े पर बैठा बदहवास इन्सान, कुदरत की बख्शी अनमोल नियामतों, जो कि आने वाली नस्लों के लिए अमानत होती हैं, में खयानत करने से बाज नहीं आ रहा है। दरअसल, हमारी धरा पर सभी के लिए स्थान है। खेतों में चूहे भी जरूरी हैं और चूहों का बढऩा रोकने के लिए सांप भी। सांप पर काबू पाने के लिए मोर व नेवले भी हैं। यही सहजीवन है। यह सहजीविता ही विकास की बुनियाद होनी चाहिए। जहां सहजीविता मिटी विकास हवस बन कर विनाश करने लगता है।
सहजीवन के प्राकृतिक सिद्धान्त पर लगातार हो रहे कुठाराघात से जहां एक ओर आसमान में परिन्दे बेबस हो रहे हैं तो दूसरी ओर जीवनदायिनी नदियों में जीवन का कलरव करने वाली मछलियां अब उसी में कालकवलित भी हो रही हैं। दर्जनों बार गोमती के किनारों पर तैरते मछलियों के मुर्दा शरीरों ने बढ़ते जल प्रदूषण की शिकायत दर्ज करायी है लेकिन प्रगतिशील व्यवस्था के कान पर जूं भी नहीं रेंग रही है। गंगा से गोमती, सरयू से सई, घाघरा से कोसी आदि सभी नदियां अपनी जैविक सम्पदा को लुटते देखने के लिये विवश हैं। वह आस्था का आचमन हो या मुनाफे की वासना, दोनों ही नदियों को धीरे-धारे कत्ल कर रहे हैं। मां का दर्जा रखने वाली नदी अपशिष्ट पदार्थों का गोदाम बनती जा रही है।
गंगा नदी के किनारे करीब उत्तर प्रदेश के लगभग 17 करोड़ बाशिन्दे बसते हैं। कुल गंगा की गन्दगी का 40 प्रतिशत भाग यूपी के हिस्से में आता है। जिसमें इलाहाबाद, बनारस, सिमिरिया मुख्य और बड़े पड़ाव हैं, जहां से तीर्थ यात्रियों की गन्दगी, इन धार्मिक स्थानों की कुल गन्दगी का 40 प्रतिशत होती है। कानपुर में कम से कम 5,000 ट्रक लोड क्रोम निकलता है, जो जहरीला होता है। बनारस में बनारसी साड़ियों की प्रिन्टिंग का रसायन भरा पानी भी कम जहरीला नहीं होता। इसके अलावा मिर्जापुर में कालीन बनाने का काम होता है और वहां लगभग 50,000 लीटर केमिकल का पानी रोज निकलता है। जनपद उन्नाव में भी जीवनदायी गंगा नदी में औद्योगिक प्रतिष्ठानों का केमिकलयुक्त बदबूदार रंगबिरंगा पानी गन्दा नाला, लोनी ड्रेन के माध्यम से ब्रिटिशकाल से बहाया जा रहा है। शहर के गन्दा नाला की शुरुआत ब्रिटिशकालीन शराब मिल से हुई थी।
यही स्थिति लोन नदी के दूषित पानी के बहाव की है। ड्रेन का पानी जनपद रायबरेली से होकर गंगा नदी तक जाता है जबकि गन्दा नाला गंगा को ही नहीं विषाक्त कर रहा है बल्कि दूषित पानी का बहाव जल तथा वायु तक को प्रदूषित किये है। न्यायिक आदेश भी इसकी रोकथाम करने में असफल साबित हो रहे हैं। एक दर्जन से अधिक औद्योगिक प्रतिष्ठान हैं जिनका गन्दा केमिकलयुक्त पानी पतित पावनी गंगा को आहत किए है। उच्चतम न्यायालय ने पिछले वर्ष ही एक रिट याचिका पर औद्योगिक स्थान क्षेत्र दही चौकी व बन्थर की एक दर्जन चर्म इकाइयों को बन्द कराने के निर्देश शासन को दिये थे। इस पर प्रशासन ने आधा दर्जन औद्योगिक इकाइयों को सील भी कराया लेकिन पांच दिन बाद ही उक्त कार्यवाही धरी रह गयी।
हालत यह है कि औद्योगिक कचरे का बहाव पूर्व की तरह नाला व ड्रेन से हो रहा है। जीवनदायनी नदियां अब जीवन के लिए खतरा बनने लगी हैं। गौतमबुद्धनगर से प्रारम्भ होने वाली करबन नदी का पानी पीने से मार्च 2014 में दर्जनों नील गाय मर गई थीं। जांच में पता चला कि नदी का पानी इतना दूषित हो चुका है कि इसमें ऑक्सीजन लगभग खत्म ही हो गयी है। कमोबेश अधिकांश नदियों के हालात लगभग ऐसे ही है। पानी में केमिकल मिले होने के कारण नदी के पुल पर बर्फ जैसे झाग के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ खड़े हो गए हैं। यह जल प्रदूषण का इन्तहां नहीं तो और क्या है कि उत्तर प्रदेश के दो तिहाई जिलों का भूजल पीने लायक नहीं है। 49 जिलों में तो पानी में नाइट्रेट मौजूद है, जबकि दर्जनों दूसरे जिलों के पानी में खारापन, आयरन व फ्लोराइड की समस्या है। जाहिर है कि हैंडपम्प व नलकूपों के पानी का सेवन करने वाले लाखों लोगों की सेहत दांव पर है।
जहां तक खारापानी, फ्लोराइड व आयरन की समस्या की बात है तो इसके समाधान के लिए तमाम सरकारी प्रयास विफल ही रहे हैं। इसका प्रमाण उन्नाव में फ्लोराइड प्रदूषण है, जहां करोड़ों खर्च करने के बाद भी न तो समस्या ही दूर हुई और न ही लोगों को साफ पानी मयस्सर हो सका है। नतीजा है कि हजारों लोग फ्लोरोसिस की बीमारी, जिसमें हड्डी टेढ़ी होने लगती है। मथुरा-आगरा से प्रतापगढ़-जौनपुर तक खारे पानी की बेल्ट है। यही वजह है कि इन जिलों का पानी खारा है। उन्नाव, रायबरेली, मथुरा, आगरा, फिरोजाबाद, अलीगढ़, हमीरपुर के पानी में फ्लोराइड की समस्या है। आगरा, अलीगढ़, फिरोजाबाद, बदायूं, बुलन्दशहर, मैनपुरी, भदोई, वाराणसी सहित करीब डेढ़ दर्जन जिलों में भूजल स्रोतों में आयरन की समस्या है। आयरन, फ्लोराइड व खारेपन की समस्या तो प्राकृतिक रूप से मौजूद है, लेकिन करीब 49 जिलों के भूमिगत जलस्रोतों में नाइट्राइट प्रदूषण की विकराल समस्या पायी गयी है। राजधानी लखनऊ सहित दर्जनों जिलों का पानी नाइट्रेट से दूषित है।
दरअसल नाइट्रेट की मौजूदगी इस बात का प्रमाण है कि भूमिगत जलस्रोतों में कहीं न कहीं सीवर मिल रहा है। कई इलाकों में सोक पिट सिस्टम है, जिससे सतत रूप से भूमिगत जलस्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। इसके चलते भूजल भण्डारों में नाइट्रेट की मात्रा मानक से कहीं अधिक पाई गई है। चिकित्सकों का मानना है कि यदि पानी में नाइट्रेट प्रदूषण की समस्या है तो लोगों को पेट सम्बन्धी तमाम समस्याएं हो सकती हैं। दरअसल कचरा और सीवरेज समस्या के समाधान के बगैर पानी को जहरीले होने से रोक पाना सम्भव नहीं हो पायेगा। हम अक्सर सफाई और शौचालयों में भ्रमित हो जाते हैं। सच तो यह है कि शौचालय तो केवल गन्दगी को संग्रहित करने का काम करते हैं। जब हम शौचालय को पानी डालकर लश करते हैं तो गन्दगी एक पाइपलाइन के जरिये नाली में मिल जाती है। सम्भव है कि यह नाली सीवेज ट्रीटमेंट प्लान्ट (एसटीपी) से जुड़ी हो। यह भी हो सकता है कि ऐसा न हो। हो सकता है नाली एसटीपी से जुड़ी हो लेकिन वह संयन्त्र काम न करता हो। ऐसे मामले में यह मानव मल शौचालय से निकल तो गया लेकिन उसका सुरक्षित निपटान नहीं हुआ। यह मल निकटस्थ नदी-नाले में मिल सकता है। लब्बोलुआब यह कि अन्तत: यह प्रदूषण का ही सबब बनेगा।
चिन्तनीय हैं कि सभी प्रमुख शहरों में निजी तौर पर सीवेज एकत्रित करने वाले टैंकरों का भूमिगत व्यवसाय फल-फूल रहा है। इसका आर्थिक गणित एकदम सामान्य है। पाइप वाले ये टैंकर गन्दगी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं। इसके लिए हर बार 800 से 1,200 रुपये लिये जाते हैं लेकिन वे यह गन्दगी डालते कहां हैं? जी हां, आसपास मौजूद नदी तालाब, खुले मैदान या जंगल में। दरअसल मल में पानी मिलाने से उसके पैथोजेन को जीवन मिलता है वह मरता नहीं। मल को मिट्टी या राख से ढक दीजिए वह खाद बन जायेगी। अत: इसके बेहतर प्रबन्धन की जरूरत है दूर फेंके जाने की नहीं। रही बात कचरे की तो उसके निष्पादन की समस्या अपने आप में बहुत व्यापक है, क्योंकि मौजूदा कचरा भराव क्षेत्रों का ही प्रबन्धन बहुत बुरी तरह से किया जा रहा है और वे पहले ही कूड़े से खचाखच भरे रहते हैं।
एक सार्वजनिक अभियान चलाकर लोगों को अपनी साफ-सफाई सम्बन्धी आदतें बदलने के लिए तो प्रेरित किया जा सकता है, लेकिन इससे महानगरीय आर्थिकी को नहीं बदला जा सकता। आज उ.प्र. में हजारों लोग नालों के इर्द-गिर्द रह रहे हैं, वे खुले में शौच करने को मजबूर हैं और चूंकि उन्हें साफ पानी की सुविधा भी नहीं मिलती, इसलिए वे खुद को स्वच्छ भी नहीं रख पाते। सरकार अनेक अवसरों पर खुले में शौच की स्थिति को खत्म करने की बात कह रही है, लेकिन इस समस्या का निदान केवल यही नहीं है कि शौचालय बना दिये जायें, बल्कि इसके लिए जलप्रदाय और मल-उत्सर्जन की एक प्रणाली विकसित किये जाने की जरूरत है। इनके अभाव में वे शौचालय भी किसी काम के नहीं रह जाते, जो पहले से ही निर्मित हैं।
जलविहीन शौचालय की बात भी की जा रही है, लेकिन उनके नियोजन और निर्माण के लिए तो निश्चित ही राज्य सरकार को हस्तक्षेप करना होगा। जब तक शहरों में एक आधुनिक सीवरेज प्रणाली और हर गांव-कस्बे में पाइप के जरिये जलप्रदाय की प्रणाली विकसित नहीं की जाती तब तक प्रदूषण नियन्त्रण दूर की कौड़ी है। इसके लिये जैविक शौचालय एक बेहतर विकल्प हो सकते हैं। अमेरिका समेत जापान और यूरोपीय देशों में जैविक शौचालयों के सफल प्रयोगों से यह बात साबित हुई है कि जैविक शौचालयों के प्रयोग से एक तो पानी की बचत होती हैं दूसरा प्रदूषण से बचाव होता है तीसरा उर्वरक की बनता है। इसे उ.प्र में प्रचलन में लाने की आवश्यकता है। अन्यथा नदियों को साफ करने का हमारा स्वप्न आकाश कुसुम बन कर रह जायेगा। वैसे भी रोटी, कपड़ा और मकान के संकट से जूझते एक आम भारतीय के लिए पर्यावरण या उससे होने वाला नुकसान अभी भी कोई मुद्दा नहीं है।
विकास की अन्धी हवस ने मानव सभ्यता की पहचान ही बदल दी है। बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, सबसे बड़ा उदाहरण उ.प्र. का मैनचेस्टर कहे जाने वाले और मां गंगे के तट पर बसे शहर कानपुर का है, जिसके हिस्से में एक और वैश्विक ख्याति आयी है, मतलब विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कानपुर को विश्व का सबसे प्रदूषित शहर बताया गया है। न सिर्फ उत्तर प्रदेश के लिए बल्कि पूरे भारत के लिए शर्मनाक खबर है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि वायु प्रदूषण के मामले में भारत के 14 शहरों की स्थिति बेहद खराब है। कानपुर के बाद फरीदाबाद, वाराणसी, गया, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, मुजफ्फरपुर, श्रीनगर, गुडगांव, जयपुर, पटियाला और जोधपुर शामिल हैं। कभी अपनी तहजीब और बागों के लिए पहचाने जाने वाले लखनऊ का शुमार मुल्क के पहले सात प्रदूषित शहरों में हुआ है। जानकारों की मानें तो लखनऊ बीते पांच वर्षों से लगातार वायु और ध्वनि प्रदूषण में आगे बढ़ रहा है।
लखनऊ के शहरी इलाकों में रहना गैस चैम्बरों में रहने से कम नहीं है। यह हम नहीं, बल्कि केन्द्रीय प्रदूषण कण्ट्रोल बोर्ड (सी.पी.सी.बी) के आंकड़े बता रहे हैं। विडंबना है कि आप अपने घर में सिगरेट के धुंऐ से तो बच सकते हैं लेकिन घर के बाहर आप 23 सिगरेट के बराबर धुंए को फेफड़े तक ले जा रहे हैं। इसके पीछे लखनऊ की खराब आबोहवा बड़ा कारण है। पिछले तीन दिनों में शहर का एयर क्वॉलिटी एंडेक्स (एक्यूआई) 450 से अधिक ही रहा है। पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार हवा में जहरीले तत्वों की मौजूदगी बढ़ गई है। इसमें जल्द सुधार नहीं हुआ तो सांस लेना तक दुश्वार हो जाएगा। पर्यावरण वैज्ञानिक एक्यूआई के 20 पॉइंट की तुलना एक सिगरेट पीने से करते हैं। यानी फिलहाल रोज करीब 23 सिगरेट के बराबर जहरीले तत्व हर शहरी के शरीर में जा रहे हैं। लगाम कसने के लिए कोई नीति न बनाए जाने से हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लखनऊ और दिल्ली के प्रदूषण स्तर में ज्यादा फर्क नहीं रह गया है। उत्तर प्रदेश की हवा इस कदर जहरीली हो गई है कि हर घंटे चार बच्चों की मौत हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति वर्ष 65 लाख मौतें, केवल वायु प्रदूषण से पैदा होने वाली बीमारियों से होती हैं।
प्रदेश में बढ़ते प्रदूषण ने वातावरण और आम जीवन पर बुरा प्रभाव डाला है। राज्य में मोटरवाहनों की संख्या कुल आबादी के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। इससे वायु प्रदूषण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण में इजाफा हो रहा है। प्रदूषण का बढ़ता पैमाना शहर के लोगों के लिए खतरे की घंटी बजा रहा है। फिलहाल लखनऊ तीसरे नम्बर पर है, लेकिन अगर शहर में बेतरतीब चल रहे निर्माण और मोटरवाहनों की संख्या में हो रहे इजाफे पर काबू नहीं पाया गया तो जल्द ही लखनऊ, देश का सबसे प्रदूषित शहर होगा।
भारतीय विष विज्ञान अनुसन्धान संस्थान और उ.प्र. प्रदूषण विभाग की ओर से शहर पर जारी प्रदूषण की रिपोर्ट भी यह बता रही है कि यहां पर प्रदूषण अपने खौफनाक स्तर पर पहुंच गया है। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से भी कई गुना अधिक है। उ.प्र.में बढ़ता वायु प्रदूषण जहां एक ओर मोटरवाहनों, निर्माण कार्यों और कारखानों की देन है, वहीं पेड़ों की बेतहाशा कटान ने कोढ़ में खाज की स्थिति बना दी है। बढ़ते वायु प्रदूषण ने सूबे के नौजवानों, बच्चों और वृद्धों के फेफड़ों को कमजोर कर दिया है। अस्थमा और क्षय रोग ने रक्तबीज की क्षमता हासिल कर ली है। रही सही कसर ध्वनि प्रदूषण ने पूरी कर दी है। वैसे भी वायु और ध्वनि प्रदूषण का तो चोली-दामन का साथ है। पर्यावरण मन्त्रालय के मुताबिक रिहायशी इलाकों में दिन के समय शोर 55 डेसिबल से ज्यादा नहीं होना चाहिए जबकि रात में इसकी सीमा 45 डेसिबल तय की गई है। आलम यह है कि लखनऊ ध्वनि प्रदूषण के मामले में मुम्बई के बाद दूसरे पायदान पर पहुंच गया है। हैदराबाद, दिल्ली और चेन्नई भी इस सूची में शामिल हैं।
उस पर प्रदूषण को लेकर यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार कितना गंभीर है इस बात का अंदाजा बजट दस्तावेजों से पता लगाया जा सकता है। राज्य प्रदूषण विभाग ने वायु और जल प्रदूषण के मद में इस साल 90 फीसदी की कटौती की है। पिछले साल का बजट 4.5 करोड़ रुपये था जबकि इस साल ये रकम 50 लाख रुपये मात्र है। हालांकि बजट में कमी की शुरुआत अखिलेश सरकार में हो चुकी थी। जो 2015-16 और 2016-17 के बीच एक करोड़ रुपये की रही।
संक्षेप में कहें तो जीवन सरकारी नीति की अमानत नहीं है। जीवन जीवधारियों का है अत: उसका रक्षण करना भी जीवों का कार्य है। अत: सरकार के भरोसे बैठना, स्वयं को धोखा देना जैसा है। लंदन की टेम्स नदी भी एक समय गंगा की भांति दूषित थी। किंतु आज की तस्वीर भिन्न है। कारण जन चेतना, जन सहभागिता। उसके पश्चात तो सरकार सक्रिय हो ही जाती है। यदि नदियों की स्वच्छता, जन अभियान की शक्ल अख्तियार कर ले, वृक्षारोपण जन आंदोलन का हिस्सा बन जाये और जल संरक्षण, जन धर्म बन जाये तो बिगड़े पर्यावरण को संवरने में कितना समय लगेगा। यदि हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को स्वस्थ समाज देने की अभीप्सा है तो जन को जगना ही पड़ेगा, सहकार ही देगा समाधान।
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