घर पर ही डिटर्जेंट-फिनायल बनाकर छत्तीसगढ़ के गांव की महिलाएं बन रहीं आत्मनिर्भर
छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के एक छोटे से गांव की महिलाएं इस तरह बदल रही हैं अपनी किस्मत...
यह लेख छत्तीसगढ़ स्टोरी सीरीज़ का हिस्सा है...
समाज में बदलाव तभी आएगा जब महिलाओं को अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा, इसका सबसे बड़ा उदाहरण पेश कर रही हैं छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के एक छोटे से गांव की महिलाएं। जो काम ये महिलाएं कर रही हैं, वो इन्हें आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ तरक्की के रास्ते पर भी ले जा रहा है।
छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के गांव की महिलाएं काम तो पहले भी करती थीं लेकिन उसका परिणाम सही नहीं निकला, जिसके चलते इन्होंने एक ऐसा काम शुरू कर दिया जो घर बैठे आसानी से किया जा सकता है और सबसे अच्छी बात है कि इस काम को करते हुए इनका आर्थिक स्तर पहले से काफी बेहतर हुआ है।
छत्तीसगढ़ के गांव की महिलाएं वास्तव में बदलाव की नई कहानी लिख रही हैं और सच ये भी है कि समाज में बदलाव तभी आएगा जब महिलाओं को आर्थिक जरूरतों के लिए पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। इनके द्वारा किया जाने वाला काम इन्हें आत्मनिर्भर बनाने के साथ ही तरक्की के रास्ते पर ले जाएगा। काम तो ये पहले भी करती थीं, लेकिन उसका सही परिणाम नहीं निकलता था। वो काम इन्हें न तो खुशी देता था और न ही उतने पैसे। लेकिन अब इस काम से शायद ये नए सपने देख पाएंगी और अपने सपनों को पूरा भी कर सकेंगी।
समाज में परिवर्तन आ रहा है और महिलाओं की दशा भी कुछ हद तक बदल रही है। समय के साथ महिलाओं को सशक्त बनाना देश के विकास के लिए काफी जरूरी है, क्योंकि जो सृष्टि का आधार हैं अगर वे ही उपेक्षित रहेंगी तो विकास की कल्पना कर पाना मुश्किल होगा। आधुनिक होते युग में भी ग्रामीण महिलाओं की दशा उतनी अच्छी नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए। गांवों में सबसे बड़ी समस्या रोजगार की होती है और जब बात महिलाओं की आती है तो कई सारे विकल्पों के दरवाजे तो अपने-आप बंद हो जाते हैं।
छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के एक छोटे से गांव की कुछ महिलाएं अपने घर पर ही ऐसा काम कर रही हैं जिससे महिलाओं को रोजगार मिलने के साथ ही आत्मनिर्भर बनने के रास्ते भी निकल रहे हैं। बसना जिले के भंवरपुर गांव में महिलाएं कुछ स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी हैं। इन महिलाओं के पास पहले ऐसा कोई साधन नहीं था जिनसे इन्हें कुछ आमदनी हो सके और इनका घर चल सके। मजबूरन इन्हें मजदूरी और छोटे-मोटे कामों पर निर्भर रहना पड़ता था। अगर किसी महिला को पैसों की जरूरत पड़ जाए तो उन्हें अपने पतियों का मुंह भी ताकना पड़ता था।
मेहनत में यकीन रखने वाली इन महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए बस एक अवसर की तलाश थी। बीते साल दिसंबर में इन समूहों को जिला प्रशासन की तरफ से जानकारी मिली कि देना बैंक महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रशिक्षण देने की शुरुआत कर रहा है। समूह की महिलाओं को यह जानकर काफी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बड़े उत्साह से प्रशिक्षण में हिस्सा लिया। उन्हें लगा कि अब शायद उनकी जिंदगी में बदलाव आने वाला है। यही सोचकर सबने एक ग्रुप बनाया और अपने घर पर ही साबुन-फिनायल जैसे उत्पाद बनाने का फैसला किया।
लेकिन उसके लिए सिर्फ ट्रेनिंग से काम चलने वाला नहीं था, पैसों की भी जरूरत थी। बिजनेस शुरू करने के लिए इन्होंने पैसे जुटाने शुरू किए और बैंक से मदद मांगी। मेहनत रंग लाई और बैंक और सरकार दोनों की तरफ से मदद मिली और कुछ पैसे समूह से भी लोन के तौर पर लिए गए। इस काम में तीन समूह ने मिलकर काम करने का प्लान बनाया। समूह की 17 महिलाएं एक साथ आईं और डिटर्जेंट के अलावा फिनायल, अगरबत्ती और मोमबत्ती जैसे उत्पादों को बनाना शुरू किया। सभी महिलाओं के मन में एक बेहतर जीवन की आस है और ये उनके काम और योजना में साफ तौर पर झलकता है।
इन उत्पादों को बनाने के लिए कच्चा माल रायपुर से लाया गया। महिलाओं को घर के भी काम करने पड़ते हैं इसलिए इस काम के लिए उन्होंने अलग से फुरसत निकाली। कई महिलाओं ने तो कच्चा माल ले जाकर अपने घर में काम किया। ये दरअसल महिलाओं का उत्साह थ, जिसकी बदौलत बिना किसी मशीन के सारा काम आसानी से हो गया। ग्रुप में सारा प्रॉडक्शन हाथों से ही होता है। सिर्फ पैकिंग और वजन का काम मशीन से होता है। अब सामान तो तैयार हो गया, लेकिन किसी को नहीं पता था कि इसे कैसे बेचा जाए। दूसरी बात बाजार में पहले से मौजूद उत्पादों की लोकप्रियता काफी ज्यादा है। इस वजह से इन्हें अपना सामान बेचने में मुश्किल आ रही थी।
फिर इन महिलाओं ने कई प्रदर्शनी और मेलों में अपने स्टॉल लगाए जहां से इन्हें काफी अच्छा रिस्पॉन्स मिला। सरस मेले में तो डीएम ने इनके काम को सराहा और प्रमाण पत्र से पुरस्कृत भी किया। इस प्रॉजेक्ट के सारे काम को देखने वाली गंगा पटेल कहती हैं कि सब महिलाएं मिलकर काम करती हैं और ये काफी जल्दी हो जाता है। सामान को बेचने के लिए रूअर्बन की टीम भी इनका सपोर्ट कर रही है। आने वाले समय में सरकारी विभागों में इन सामानों की सप्लाई की तैयारियां हो रही हैं। समूह में मुख्यरूप से यह काम नीरा वैष्णव, तुलसी चौरसिया, अहिल्या मानिकपुरी और पुष्पांजली पंसारी के जिम्मे होता है।
अभी कच्चा माल और पैकिंग करने के लिए इन्हें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। गांव से शहर दूर होने की वजह से कच्चा माल लाने में भी काफी पैसा खर्च हो जाता है। लेकिन फिर भी इन्होंने अपनी सारी लागत निकाल ली है और थोड़ा फायदा भी अर्जित किया है। गांव की दुकानों में भी समूह के बनाए प्रॉडक्ट बिक रहे हैं और गांव के कई लोग इनसे सीधे खरीददारी करते हैं।
ये महिलाएं वास्तव में बदलाव की नई कहानी लिख रही हैं और वास्तव में समाज में बदलाव तभी आएगा जब महिलाओं को आर्थिक जरूरतों के लिए पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। इनके द्वारा किया जाने वाला काम इन्हें आत्मनिर्भर बनाने के साथ ही तरक्की के रास्ते पर ले जाएगा। काम तो ये पहले भी करती थीं, लेकिन उसका सही परिणाम नहीं निकलता था। वो काम इन्हें न तो खुशी देता था और न ही उतने पैसे। लेकिन अब इस काम से शायद ये नए सपने देख पाएंगी और अपने सपनों को पूरा भी कर सकेंगी।
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