जो काम सारी ज़िंदगी जगजीत सिंह ने गज़ल के लिए किया वही काम बशीर बद्र ने शायरी के लिए किया। बशीर साहब की शायरियां न होतीं तो शायद कहीं न कहीं जगजीत की गज़लों में भी कुछ कमी रह जाती। बशीर की शायरियां आम जनमानस की आवाज़ बन कर दिल को छू जाती हैं। आसान शब्दों में गहरी बात कहने का हुनर बहुत कम लोगों के पास होता है और बशीर इसी अनोखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति हैं। उनका हमारे समय में होना हमारे लिए सौभाग्य की बात है।
आज के प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र, जिनके शेरों का स्वाद ज़बान से उतरने का नाम नहीं लेता।
जब भी दिल के हाल को शब्दों में बयां करने का दिल करता है तो बशीर बद्र की उर्दू शायरियां सबसे पहले ज़बान पर आकर बैठ जाती हैं। ऐसा कोई नहीं जिसने उन्हें पढ़ा और उनका दिवाना न हुआ हो।
बशीर बद्र को सौ फ़ीसदी ग़ज़ल का शायर माना जाता है। उन्होंने खुद भी लिखा है कि ‘मैं ग़ज़ल का आदमी हूँ। ग़जल से मेरा जनम-जनम का साथ है। ग़ज़ल का फ़न मेरा फ़न है। मेरा तजुर्बा ग़ज़ल का तजुर्बा है। मैं कौन हूँ ? मेरी तारीख़ हिन्दुस्तान की तारीख़ के आसपास है।' बशीर बद्र अपने आपको ग़ज़ल और शायरी की एक लंबी परंपरा से जोड़कर चलने में यक़ीन करते हैं। इस एतबार से वे अपने आपको आर्य, द्रविड़, अरबी, ईरानी और मंगोली रवायतों का नुमाइन्दा मानते हैं। बशीर के लिए आज की दुनिया इंसानियत का एक तनावर दरख़्त है, जिसमें हज़ारों छोटी-बड़ी शाखें हैं। हर शाख़ गोया एक मुल्क है। मैं, मेरा फ़न, मेरा तजर्बा के माध्यम से वे कहते हैं, मेरा वतन भी उस तनावर दरख़्त (दुनिया) की एक सरसब्ज़ और दिलकशतरीन झूमती शाख़ है जो मुझे अज़ीज़तर है। लेकिन मुझे और शाखों और पत्ते-पत्ते से मुहब्बत है।...और जो मेरे वतन और मेरी दुनिया का दुश्मन है, वह मेरा और इंसानियत का दुश्मन है। इस हिसाब से वे इन्सानियत के लंबे सफ़र में ग़ज़ल के साथ सारे जहान की खूबसूरती, सारी दुनिया के सुख और दुख और सोच की बुलन्दियाँ पिरोई हुई देखने के आदी हैं।
ग़ज़ल से अपना जनम-जनम का रिश्ता बताने वाला शायर ग़ज़ल की रूह में किस हद तक इंसानियत का दर्द, उसकी मोहब्बत, उसकी जद्दोजहद, उसकी ख़्वाहिशात और उसकी हासिलत या नाकामियों की बुलन्दियों को पिरोया हुआ देखना चाहता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं रह जाती। ग़ज़ल के एक-एक शेर से उनकी यह चाहत जुड़ी हुई है कि उसे दुनिया के किसी भी हिस्से में पढ़ा जाए, पढ़ने वाले को वह अपनी कहानी मालूम होती है।
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो।
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए।
उनका यह शेर दुनिया के हर कोने में पहुँचा हुआ है। कई बार तो लोगों को यह नहीं मालूम होता कि यह शेर बशीर बद्र साहब का लिखा हुआ है मगर उसे लोग उद्धत करते पाए जाते हैं। यही नहीं, उनके सैकड़ों अशआर इसी तरह लोगों की ज़बान पर हैं। एक दिन बशीर बद्र को सुन रहा था कि 'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में'। बस, ये ही पांच-सात शब्द मन में अटक गए। आगे की 'घर जलाने' वाली पंक्ति भूल कर मन इसी पेंच में कस गया कि कोई कैसे घर बनाता है, घर क्या सिर्फ दो-चार चुनिंदा दीवारों का नाम होता है, जब हम शहर बदलते हैं, नये ठिकाने पर होते हैं, पुराना ठिकाना छोड़ चुके होते हैं, शहर के किसी भी हिस्से में घूम-फिर कर मन वहीं क्यों लौट-लौट जाता है, अपने घरौंदे के बाहर का सब कुछ अजनबी या पराया क्यों बना रह जाता है?
हम पहले से इतने टूटे हुए, बिखरे हुए, अपने में सिमटे-दुबके हुए रहने के आदती हो चुके होते हैं कि चौखट के बाहर का कुछ भी चौखट के भीतर जैसा नहीं लग पाता है। हमारे एहसास में तब खलल पड़ता है, जब चौखट के भीतर कुछ टूटता है, जरा-सा भी। बाहर जितना भी ज्यादा टूट-फूट रहा हो, अंदर के तर्क ओढ़ कर हमारा मन उस कोलाहल से आगे भाग लेता है....... इसलिए मुझे बशीर बद्र की पंक्ति 'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में'...सिर्फ 'मकान' के सेंस में नहीं लगती, उसके ढेर सारे अर्थ खुलने लगते हैं मेरे अंदर।
अतीत में कितना-कुछ टूटता-बिखरता गया, वे कौन-कौन थे जिन्होंने मुझे तोड़ा-बिखेरा, बार-बार मैं खुद भी क्यों टूट जाया किया, क्या जाने-अनजाने मुझसे भी कहीं कुछ किसी के हिस्से का टूट-फूट गया..... और आज भी अक्सर टूट लेता हूं अपने मन की दीवारों के अंदर, क्यों? कैसे-कैसे बिखर लेता हूं अनायास....कि उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया, वह मेरे बारे में वैसा क्यों सोचता है, मेरे मन की दीवारों के अंदर अब कहकहे क्यों नहीं गूंजते, टूट गईं क्या ये दीवारें।
उन विचारों के बवंडर क्यों नहीं उमड़ते, जिनमें समाया हुआ कभी हवा के संग संग दूर-दूर तक उड़ता चला जाता था, किताबें होती थीं, अलग-अलग जिंदगियों की मेले होते थे, यात्राओं और शब्दों की जादूगरी में किसी के भी पीछे ये घर अपनी जड़ें पीछे छोड़ कर भागने लगता था ! ये घर अब इतने सन्नाटे में क्यों है, चौखट के बाहर का सब कुछ फिर से इतना अजनबी क्यों हो लिया, किसने तोड़ दिया है इन दीवारों को, इन जैसे ढेर सारे सवालों के सिरे से जब भी मैं 'घर' को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश करता हूं, बाहर का सब टूटा-फूटा नजर आता है, जो छतें सही-सलामत दिख-जान पड़ती है, घूर-खंगाल कर उससे में प्रायः उदास हो लेता हूं.... जब उधर से भी उन्मुक्त हंसी की बरसातें नहीं हुआ करतीं, न गीतों में कोई निराला या आवारा मसीहा आश्वस्त कर रहा होता है। शायद टूटने का अर्थ छूटना भी होता होगा। ऐसे में याद आता है बशीर साहब का वो शेर,
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में।
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।
और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में।
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में।
फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रहता है उसके आशियाने में।
दूसरी कोई लड़की ज़िन्दगी में आयेगी
कितनी देर लगती है उसको भूल जाने में।
डॉ. बशीर बद्र को आज जो स्थान हासिल है वह उन्हें बहुत आसानी से नहीं मिला। यह दर्जा आसानी से तो ख़ैर किसे हासिल होता है। मीर हों, ग़ालिब हों, फ़ैज़ हों, हर बड़े शायर को कड़ी आज़माइशों से गुजरना पड़ा है। बशीर बद्र ने भी बड़ी सख्तियां झेली हैं, बड़े सर्दो-गरम मौसम उन पर ग़ुजरे हैं। आज वे अज़ीम शान और धूम से ग़ज़ल की दुनिया के आला मुकाम पर हैं तो इसलिए कि वे जिन्दगी के पेचीदा तजुर्बों को सादगी और पुरकारी के साथ शेर में उतारते हैं। और इस कमाल के साथ उतारते हैं कि दूसरी ज़बानों में ग़ज़ल के लिए जो नयी मोहब्बत और इज्ज़त पैदा हुई है, उसके लिए बशीर बद्र साहब के इस कमाल का श्रेय दिया जाता है।
अबुल फ़ैज़ सहर ने तो यहाँ तक कहा है कि 'आलमी सतह पर बशीर बद्र से पहले किसी भी ग़ज़ल को यह मक़बूलियत नहीं मिली। मीरो, ग़ालिब के शेर भी मशहूर हैं लेकिन मैं पूरे एतमाद से कह सकता हूँ कि आलमी पैमाने पर बशीर बद्र की ग़ज़लों के अश्आर से ज़्यादा किसी के शेर मशहूर नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि आज के इन्सान की नज़िसयाती मिज़ाज़ की तर्जुमानी जिस आलमी उर्दू के गज़लिया असलूब में की है वह इससे पहले मुमकिन भी नहीं थी। वो इस वक़्त दुनिया में ग़ज़ल के सबसे मशहूर शायर हैं।'