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दिल्ली नहीं बन सकता पूर्ण राज्य: जानिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के क्या हैं मायने

सारे सवालों का एक जवाब, आ गया वो रुका हुआ फैसला...

दिल्ली नहीं बन सकता पूर्ण राज्य: जानिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के क्या हैं मायने

Wednesday July 04, 2018 , 7 min Read

सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले ने कई तरह के संशयों, सवालों का एक साथ मोकम्मिल जवाब दे दिया है। यह जवाब आने वाले समय में अपना भरपूर असर छोड़ सकता है। केंद्र और राज्य के बीच आए दिन होने वाली खींचतान के लिए भी यह फैसला सुदूर भविष्य तक नजीर बनता रहेगा। दिल्ली के मुख्यमंत्री-उपमुख्यमंत्री फैसले से उत्साहित हैं।

सुप्रीम कोर्ट (फाइल फोटो)

सुप्रीम कोर्ट (फाइल फोटो)


सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले ने कई तरह के संशय, सवालों का एक साथ मोकम्मिल जवाब दे दिया है। यह जवाब आने वाले समय में, भले वह 2019 का लोकसभा चुनाव ही क्यों न हो, अपना गहरा असर छोड़ सकता है।

लंबे समय से अधर में झूलते एक सवाल, कि दिल्ली प्रदेश का 'बॉस' कौन होगा, इसका जवाब आ गया है। 'बॉस' होगी आम आदमी पार्टी की प्रदेश सरकार। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर मुहर लगा दी है। उल्लेखनीय है कि दिल्ली सरकार बनाम एलजी मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था। दिल्ली सरकार बनाम उप राज्यपाल के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में 11 याचिकाएं दाखिल हुई थीं। 6 दिसंबर 2017 को मामले में पांच जजों की संविधान पीठ ने फैसला सुरक्षित रखा था। दिल्ली सरकार के काम-काज में हस्तक्षेप, रुकावट डालने के पीछे 'आप' विरोधी केंद्रीय सत्ता-प्रतिष्ठान और विपक्षी कांग्रेस की भी मूक सहमति मानी जाती रही है।

सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले ने कई तरह के संशय, सवालों का एक साथ मोकम्मिल जवाब दे दिया है। यह जवाब आने वाले समय में, भले वह 2019 का लोकसभा चुनाव ही क्यों न हो, अपना गहरा असर छोड़ सकता है। केंद्र और राज्य के बीच आए दिन आने वाली खींचतान के लिए भी यह फैसला सुदूर भविष्य तक नजीर बनता रहेगा। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि चुनी हुई सरकार ही लोकतंत्र में अहम है। इसलिए मंत्रीपरिषद के पास फैसले लेने का अधिकार है। हर मामले में उपराज्यपाल की सहमति लेना प्रदेश सरकार के लिए जरूरी नहीं है। साथ ही, दिल्ली प्रदेश सरकार के कैबिनेट को फैसलों की जानकारी देना बाध्यकारी है लेकिन दिल्ली का असली बॉस चुनी हुई सरकार ही है यानी दिल्ली सरकार। ऐसे में फैसले से जुड़ा दिल्ली प्रदेश, संविधान में किस तरह रेखांकित और अनुशासित किया गया है, आइए उस पर एक नजर डाल लेते हैं।

संविधान के 'अनुच्छेद 239AA' में स्पष्ट किया गया है कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है। इस प्रदेश की अपनी विधानसभा, अपना मुख्यमंत्री होंगे। प्रशासक उपराज्यपाल होंगे। उपराज्यपाल राष्ट्रपति की ओर से काम करेंगे। विधानसभा के पास भूमि, लॉ एंड ऑर्डर और पुलिस अधिकार दिल्ली सरकार के अधीन नहीं। उपराज्यपाल दिल्ली प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल की मदद, सलाह से ही कोई फ़ैसला करेंगे। कहीं ये नहीं लिखा है कि उपराज्यपाल कोई सलाह मानने को बाध्य होंगे। दोनो पक्षों में कोई असहमति होगी तो ऐसे मामले राष्ट्रपति के पास भेजे जाएंगे। राष्ट्रपति का फ़ैसला दोनो पक्षों के लिए बाध्यकारी होगा।

सुनवाई के लिए दिल्ली सरकार की दलील रही है कि उपराज्यपाल असंवैधानिक तरीक़े से काम कर रहे हैं, संविधान का मज़ाक बना रहे हैं, उनके पास क़ानूनन की कोई शक्ति नहीं है, वह फ़ाइलों को राष्ट्रपति के पास नहीं भेजते, ख़ुद ही फ़ैसले कर रहे हैं, आईएएस और आईपीएस किस विभाग में काम करें, ये सरकार को तय करना चाहिए, लेकिन उपराज्यपाल सरकार के अधीनस्थ नियुक्तियों की फ़ाइल ले लेते हैं, इससे, नियुक्तियां कौन करे, ऐसे कई मामले लंबित हो गए, उपराज्यपाल कई योजनाओं की फ़ाइल पास नहीं करते हैं, जिससे काम के लिए अफ़सरों के पास भागना पड़ता है।

इस विवाद में केंद्र सरकार की दलील रही है कि दिल्ली पूरे देश के लोगों की राजधानी है, दिल्ली सरकार को अधिकार देने पर अराजकता फैल सकती है, इसलिए दिल्ली में सारे प्रशासनिक अधिकार उपराज्यपाल को हैं, केंद्र में देश की सरकार है, इसलिए दिल्ली पर केंद्र का अधिकार है, दिल्ली में जितनी भी सेवाएं हैं, सब केंद्र के अधीन हैं, ट्रांसफर, पोस्टिंग का अधिकार केंद्र के पास है, उपराज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य नहीं हैं, प्रदेश सरकार को सभी मुद्दों पर उपराज्यपाल से सलाह करनी चाहिए, दिल्ली में केंद्र सरकार अपना शासन चलाए, ये कोई अलोकतांत्रिक बात नहीं है।

गौरतलब है कि इस मामले पर 4, अगस्त 2016 को दिल्ली हाइकोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है और उपराज्यपाल ही इसके प्रशासनिक प्रमुख हैं। वह मंत्रिमंडल की सलाह और फ़ैसले मानने को बाध्य नहीं हैं, किसी फ़ैसले से पहले उपराज्यपाल की मंज़ूरी ज़रूरी है। अधिकारियों की नियुक्तियों और तबादलों का अधिकार केंद्र सरकार के पास है। ये दोनो दायित्व दिल्ली सरकार के अधिकार से पृथक हैं। इस फैसले के खिलाफ दिल्ली प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली। दोनो पक्षों की दलीलों और दिल्ली हाईकोर्ट के 04 अगस्त 2016 के फैसले का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एक सीकरी, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण की बेंच ने इस पर फैसला तो 6 दिसंबर 2017 को ही ले लिया था लेकिन उसे अभी तक सुरक्षित रखा था। 04 जुलाई 2018 को फैसला सुनाया गया है।

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में अब दिल्ली सरकार प्रदेश का पहला बॉस घोषित हो चुकी है। इसके साथ ही न्याय पालिका ने ये भी स्पष्ट कर दिया है कि दिल्ली को राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि दिल्ली के लोगों की ही नहीं, पूरे भारतीय लोकतंत्र के की बड़ी जीत हुई है। उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया इस फैसले पर कहते हैं - 'दिल्ली की जनता का एक ऐतिहासिक फैसला था, आज माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक और महत्वपूर्ण फैसला दिया है। मैं दिल्ली की जनता की तरफ से इस फैसले के लिए धन्यवाद करता हूं, जिसमे माननीय न्यायालय ने जनता को ही सर्वोच्च बताया है। अब उपराज्यपाल को मनमानी का अधिकार नहीं है।'

इस फैसले के इसलिए भी दूरगामी निहितार्थ निकाले जा रहे हैं कि इस फैसले के बहाने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने और भी कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं, जिसे, चाहे किसी भी पार्टी की सरकार चलाने वाले राजनेताओं, शासकों, प्रशासकों और विपक्षी पार्टियों को भी गंभीरता से लेना होगा। चीफ जस्टिस ने कहा है कि संघीय ढांचे में absolutism और अनार्की की कोई जगह नहीं होती है। शासन और सरकार चलाने वालों के बीच छोटे-छोटे मामलों में मतभेद नहीं होना चाहिए। राय में भिन्नता हो तो राष्ट्रपति से उसका समाधान लेना चाहिए। इतना ही नहीं, राष्ट्रपति के पास कोई मामला भेजने से पहले उस पर दिमाग का ठीक से इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

सरकार और शासन प्रमुख के बीच राय में अंतर वित्तीय, पॉलिसी और केंद्र को प्रभावित करने वाले मामलों में होना चाहिए। चुनी हुई सरकार लोकतंत्र में अहम होती है। इसलिए मंत्रीपरिषद के पास फैसले लेने का अधिकार विशेषाधिकार होता है। लोकतंत्र में रियल पावर चुने हुए प्रतिनिधियों के पास होनी चाहिए। शासन को ये ध्यान में रखना चाहिए कि फैसले लेने के लिए कैबिनेट है, वह नहीं। विधायिका के प्रति वह जवाबदेह है लेकिन दिल्ली के स्पेशल स्टेटस को देखते हुए बैलेंस बनाना जरूरी है। मूल कारक ये है कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है। शासक सीमित सेंस के साथ प्रशासक होता है। राज्य सरकार को बिना किसी दखल के कामकाज की आजादी होनी चाहिए। संविधान का पालन सबका कर्तव्य है, सभी संवैधानिक फंक्शनरीज़ के बीच संवैधानिक भरोसा होना चाहिए, और सभी को संविधान की भावना के तहत काम करना चाहिए। संविधान के मुताबिक प्रशानिक फैसले भी सबका सामूहिक कर्तव्य, और सभी संवैधानिक पदाधिकारियों को संवैधानिक नैतिकता को बरकरार रखना चाहिए।

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