संघर्षों के बीच हिम्मत, लगन और सीख की मिसाल - माधुरीबेन देसाई
माधुरीबेन देसाई उस दौर में पढ़ीं जब पढ़ाई-लिखाई औरतों के लिए नहीं हुआ करती थी और सभी के लिए एक मिसाल बनकर उभरीं...
गुजराती लेखिका और शिक्षिका माधुरीबेन देसाई उन गिनी-चुनी महिलाओं में से एक हैं जिन्हें 1930 और 40 के दशक में पढ़ने का मौका मिला। गुजरात के उमरेथ नाम के छोटे से गाँव में 1932 में जन्मी माधुरीबेन के पिता गाँव के एक प्रतिष्ठित शिक्षक थे। माधुरीबेन बताती हैं कि “मेरी माँ भी एक शिक्षिका थीं जो स्थानीय स्कूल में बच्चों को पढ़ाती थीं। मुझे यह देखकर बहुत प्रेरणा मिलती थी क्योंकि उस ज़माने में पढ़ाई-लिखाई बहुत कम महिलाओं को नसीब होती थी।”
आठ साल की उम्र में माधुरीबेन के पिता का देहांत हो गया। अपनी माँ के बाद घर में सबसे बड़ी होने के कारण घर और भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी इन्हीं पर आ गई। उस कठिनाई के दौर में भी माधुरीबेन की माँ ने उनकी अच्छी शिक्षा सुनिश्चित की। कठिनाईयों के बीच अपनी माँ की हिम्मत और लगन ने माधुरीबेन के मन पर एक गहरी छाप छोड़ दी। बेहतर शिक्षा पाने के लिए, उनका परिवार बड़ौदा आ गया। माधुरीबेन ने भावनगर के दक्षिणमूर्ति बाल अध्यापन इंस्टिट्यूट से टीचर्स ट्रेनिंग में अपना डिप्लोमा पूरा किया। इनकी पहली नौकरी 1951 में बड़ौदा की महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी से संबद्ध एक्सपेरीमेंटल स्कूल में लगी।
“1961 में शादी के बाद में दिल्ली आ गई और सरदार पटेल विद्यालय में नौकरी की। यहाँ मैंने 30 बरस तक काम किया। यहाँ का नर्सरी विभाग मेरे मार्गदर्शन में विकसित हुआ।”
बड़े बच्चों को बटिक और पेपर-फ्लावर मेकिंग सिखाते हुए माधुरीबेन की कला को और ऊँचाइयाँ मिलीं। इन्होंने कई प्रदशर्नियाँ लगाईं, जिनके दौरान इनकी मुलाकात डॉ. कपिला वात्स्यायन, लेडी इर्विन स्कूल की संस्थापक श्रीमति आर सेनगुप्ता, और प्रसिद्ध नाटककार बी.वी. कारनाथ से हुई। माधुरीबेन बताती हैं कि “सरदार पटेल विद्यालय से रिटायर होने के बाद, मैंने गुजराती महिला मंडल द्वारा संचालित शिशु मंगल स्कूल में लगभग एक दशक तक एक सलाहकार के रूप में भी काम किया।”
1985 में माधुरीबेन देसाई को लोकप्रिय राजा राममोहन रॉय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। शिक्षिका के तौर पर अपने पाँच दशकों के अनुभव का प्रभाव अब माधुरीबेन पर धीरे-धीरे दिखाई देने लगा था। वह आगे कहती हैं कि “इससे मुझे लिखने की प्रेरणा मिली। मैंने गुजराती पत्रिकाओं के लिए कई लेख लिखे। इन्हें ख़ूब पसंद भी किया गया। अपने पाठकों से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं और पत्रों को देखकर मुझे लगा कि मैं और भी बेहतर तरीके से और बड़े स्तर पर लिख सकती हूँ।”
2010 में आर शेठ एंड कंपनी प्रकाशन के द्वारा अहमदाबाद में गुजराती भाषा में उनकी पहली किताब 'बाल विकास नी साची समझन' प्रकाशित हुई। यह बेस्टसेलर रही, और कुछ ही समय में इसके चार और प्रकाशन निकल गए। गुजरात में अब यह किताब शिक्षकों, अभिभावकों और शिक्षक प्रशिक्षण इंस्टिट्यूट्स के लिए एक संदर्भ पुस्तक बन गई है। इस किताब में एक बच्चे के पालन-पोषण को चित्रित किया गया है। यह माता-पिता, बच्चों, शिक्षकों, स्कूल और समाज को जोड़ने का काम करती है। माधरीबेन के अनुसार “मेरे लेखन में मेरे छात्रों से जुड़ी वास्तविक घटनाओं और अनुभवों की ही झलक है।” यह किताब हिंदी में भी अनुवादित की जा रही है और जल्दी ही प्रकाशित होगी। वे आगे बताती हैं कि, “मेरे लिए यह सबसे बड़ी उपलब्धि रही है कि मेरी लिखी पहली किताब ही बेस्टसेलर रही, और पाठकों इसे व्यापक स्तर पर पसंद किया।”
शिक्षिका से लेखिका बनने के सफ़र में माधुरीबेन बड़ौदा के एक्सपेरीमेंटल स्कूल के तत्कालीन प्रिंसिपल श्री किशोरकांत याग्निक और सरदार पटेल विद्यालय की संस्थापक और वाइस प्रिंसिपल श्रीमति जशीबेन नायक को अपना प्रेरणास्रोत, गुरू और मार्गदर्शक मानती हैं।
आख़िर में माधुरीबेन कहती हैं कि “मैं कोई साहित्यिक व्यक्ति नहीं हूँ, बल्कि एक ऐसी शिक्षिका हूँ जिसका अपने छात्रों से एक गहरा रिश्ता रहा और और उनसे मुझे जीवन के गूढ़ रहस्य जानने को मिले हैं। रिटायरमेंट के बाद अपने अनुभवों को किताब की शक्ल देने के लिए मेरे पास भरपूर समय था। मेरी मातृभाषा गुजराती ही मेरी लेखनी का माध्यम है। इस भाषा में मुझे अपने अनुभवों को दिल खोलकर व्यक्त करने की आज़ादी मिलती है।”