राम सेंगर ने जो भोगा, वही लिखा
जिन्दगी के लिए नई सुबह की प्रतीक्षा करतीं राम सेंगर की कविताएँ पतझर की मनहूसियत के आगे नई कोपलों का स्निग्ध रंग बिखेरना चाहती हैं...
राम सेंगर जीवन के बहत्तर वसंत पार कर चुके हैं पर शब्दों की संवेदना के आलोक में आज भी उनकी पंक्तियां कैसी असह साधना का प्रतिफल हैं, उन्हें जो पढ़े-सुने, वही जान-समझ सकता है। आम आदमी की पीड़ा से गहरा सरोकार रखने वाले राम सेंगर कहते हैं - ऐसे बुरे वक्त में 'पागल होने से अच्छा है, लिखते-लिखते मर जाना।' उनके शब्द, उनके स्वयं के जीवन-अनुभवों के दिये हुए हैं। उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ देखा, भोगा; अपने तथा दूसरों के अनुभवों से जो कुछ सीखा, वही सारा सच वह शब्दों में नाध-साध रहे हैं।
हर छंदबद्घ कविता, गीत नहीं होती और हर गीत, नवगीत नहीं होता। भाव-विचारों के साथ रचा-पचा कथ्य, कौशल से साधे गये विन्यास के साथ लयात्मक बनाया जाता है और निर्वाह के लिए इसी लयात्मकता को और अच्छा तारतम्य देकर एक लहर पैदा की जाती है। इसी लहर से स्वर निकलता है। गीत या नवगीत की पहचान इसी स्वर से होती है।
हमारे समय के शीर्ष नवगीतकार राम सेंगर समाज के रिसते घावों और जनविरोधी विडम्बनाओं के बीच अस्तित्वरक्षा के लिये संघर्ष करते आम-आदमी में अपना कथ्य ढूँढते हैं, गीत के रूढ़ ढाँचों-खाँचों को तोड़ते हुए कविता के नैसर्गिक कहन का विकास करते हैं, जो हिन्दी नवगीत में सबसे अलग है। वह छन्द के बंधन को तोड़ते नहीं, ढीले कर देते हैं, निर्द्वन्द्व भाव-प्रक्षेप और प्रयोग के लिए किसी आलोचना की परवाह नहीं करते हैं। किसी भी हिंसा का प्रखर प्रतिवाद करते उनके नवगीत आम जन को भय मुक्ति के लिए, छद्म और मक्कारी के विरुद्ध लड़ने की शक्ति प्रदान करते हैं। समकालीन समाज की तिलमिलाहट और प्रश्नाकुलता उनकी रचनाओं में एक आईने की तरह समुपस्थित होती है। उनकी कविताओं का मूल स्वर समझना आसान नहीं।
जिन्दगी के लिए नई सुबह की प्रतीक्षा करतीं राम सेंगर की कविताएँ पतझर की मनहूसियत के आगे नई कोपलों का स्निग्ध रंग बिखेरना चाहती हैं। कविता से ऊबे पाठकों को उन्हीं के अनुभव सौंपकर विचलित करने की शक्ति से सम्पन्न उनकी कविताएँ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के विरुद्ध एक समरलोक रचती हैं।
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कटनी (मध्य प्रदेश) में जीवन के बहत्तर वसंत पार कर चुके राम सेंगर शब्द दुस्सह साधना का प्रतिफल हैं। उनके रचना-संसार से जो गुजरे, पढ़े-सुने, वही उनकी संवेदना जान-समझ सकता है। आम आदमी की पीड़ा से गहरा सरोकार रखने वाले राम सेंगर कहते हैं- ऐसे बुरे वक्त में 'पागल होने से अच्छा है, लिखते-लिखते मर जाना।' उनके शब्द, उनके स्वयं के जीवन-अनुभवों के दिये हुए हैं। उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ देखा, भोगा; अपने तथा दूसरों के अनुभवों से जो कुछ सीखा, वही सब शब्दाकार कर रहे हैं। उनके गीतों की भाषा, मुहावरे आंचलिक भले हों, उनमें सादगी को बचाते हुए वह समकालीन वैश्विक चिंताओं को सलीके से उकेरते हैं। इसीलिए उनके गीतों में गोपाल सिंह नेपाली और कैलाश गौतम जैसी वक्रता एवं तेवर दिखाई देते हैं।
राम सेंगर का बचपन गांव में बीता। बड़े भाई की कला-साहित्य में गहरी रुचि थी। प्रेमचन्द और मैथिलीशरण गुप्त उनके प्रिय साहित्यकार थे। खुद भी उर्दू में शायरी करते थे। बहुत मजे हुए रंगकर्मी भी थे। वह कला-संगीत के इसी माहौल में पले-बढ़े। जैसे-जैसे समझ आती गयी, वह नशा मन पर चढ़ता गया। उसी नशे में तुकबन्दी करना शुरू हुआ।
हर छंदबद्घ कविता, गीत नहीं होती और हर गीत, नवगीत नहीं होता। भाव-विचारों के साथ रचा-पचा कथ्य, कौशल से साधे गये विन्यास के साथ लयात्मक बनाया जाता है और निर्वाह के लिए इसी लयात्मकता को और अच्छा तारतम्य देकर एक लहर पैदा की जाती है। इसी लहर से स्वर निकलता है। गीत या नवगीत की पहचान इसी स्वर से होती है। देश के हर कोने में बड़ी संख्या में अपनी जड़ों से पलायन कर रहे लोगों का दर्द राम सेंगर की पंक्तियों में कुछ इस तरह चित्रित होता है-
ताराचन्द, लोकमन, सुखई गांव छोड़कर चले गये,
गांव, गांव-सा रहा न भैया, रहते तो मर जाते।
धंधे-टल्ले बन्द हो गये, दस्तकार के हाथ कटे
लुहरभटि्ठयां फूट गयीं सब, बिना काम हौसले लटे
बढ़ई, कोरी, धींवरटोले, टोले महज कहाते।
हब्बी, फत्ते और ईसुरी जात-पांत की भेंट चढ़े
भाग गया सुलतान हाथरस, पापड़ बेले बड़े-बड़े
रिक्शा खींच रहा मुंहबांधे, छिपता नहीं छिपाते।
तेलीबाड़ा, राजबाड़ा था मलवे से झांकता नहीं
शहजादी, महजबीं, जमीला किधर गयीं, कुछ पता नहीं
पागल हुआ इशाक, दिखे अब कहीं न आते जाते।
टुकड़े-टुकड़े बिकी जमीनें औने-पौने ठौर बिके
जीने के आसार रहे जो चलती बिरियां नहीं दिखे
डब-डब आंखों से देखे बाजे के टूटे पाते।