ऑटिस्टिक बच्चे की माँ कैसे दूसरे 15 ऑटिस्टिक बच्चों को बना रही है आत्मनिर्भर
जन्म लेने के चार साल तक एनिमा नायर के बेटे ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जो किसी खतरे का इशारा करता। वो काफी सक्रिया रहता था और काफी कम सोता था, लेकिन जब उनके बेटे का स्कूल में दाखिला हुआ तो एनिमा और उनके पति ने महसूस किया कि वो अक्सर रोता रहता है और दूसरों से नज़रें मिलाकर बात भी नहीं करता। इतना ही नहीं ज्यादा शोर शराबा उसे काफी परेशान करता था। यहाँ तक की जब भी कोई हवाई एरोप्लेन आसमान में गुज़र रहा होता तो वो उसकी आवाज़ से डर कर अपने कान बंद कर लेता। इतना ही नहीं उसने दूसरे बच्चों के साथ भी खेलना बंद कर दिया था। वहीं दूसरी ओर स्कूल की टीचर का कहना था कि उनका बेटा पजल्स में दूसरे बच्चों से कही बेहतर है, लेकिन उसे लिखना बिल्कुल भी पसंद नहीं, वो लोगों को पसंद तो करता है, लेकिन हो-हल्ला वो बर्दाश्त नहीं कर पाता।
एनिमा के पति ने जब अपने 5 साल के बेटे के स्वास्थ्य की जांच कराई तो पता चला की उसे पर्वेसिव डेवलवमेंटल डिसओडर है। उनको पता चला कि उनके बच्चे में ऑटिज़म के लक्षण होते हैं। जो ऑटिज़म स्पेक्ट्रम डिसओडर की ओर इशारा कर रहा था। ये न्यूरोलॉजिकल कारणों से होता है। इसमें इंसान सामाजिक सम्पर्क से दूर भागता है, मौखिक या सांकेतिक व्यवहार पर इसका असर होता है, किसी काम को बार-बार करता है और उसके विचार और व्यवहार में कठोरता आती है। अगर समय रहते ऑटिज़म स्पेक्ट्रम डिसओडर का पता चल जाये तो बच्चे की क्षमता में सुधार किया जा सकता है।
एनिमा को जब पता चला की उनका बेटा ऑटिस्टिक है तो उनको गहरा धक्का लगा। उनको इस सच्चाई को समझने में वक्त लगा। वहीं दूसरी ओर एनिमा को लगता था कि उनका बेटा ठीक है वहीं कई जगहों पर वो उसको संभाल नहीं पा रही थी। इसकी वजह थी कि उनका बेटा भावात्मक विचारों को समझ नहीं पा रहा था। इसके लिए उन्होने काफी कोशिश भी की। तब एक दिन एनिमा की मुलाकात 37 साल की अक्षयी शेट्टी से हुई। अक्षयी ने स्कॉटलेंड से ऑर्ट, डिजाइन और आर्किटेक्चर में मास्टर्स किया था। इसके अलावा वो करीब 7 सालों तक ऑटिज़म बच्चों के साथ काम कर चुकी थीं। तब एनिमा को लगा की अक्षयी के पास ऐसे बच्चों के लिए बेहतर योजनाएँ हैं।
रिसर्च बताती हैं कि व्यक्तिगत, स्ट्रक्चर्ड शिक्षा को बढ़ावा देने से बच्चे के विकास में मदद मिलती है। इससे उसके व्यवहार में अच्छा बदलाव आता है। साथ ही उसकी रोजमर्रा की क्षमताओं पर अच्छा असर पड़ता है। बावजूद इसके देश में ऑटिज़म बच्चों के लिये ऐसी व्यक्तिगत सेवाएं नहीं हैं। एनिमा और अक्षयी ने ऐसे बच्चों के लिये शिक्षा के साथ इस खाई को पाटने के लिए ऑटिज़म सेंटर की स्थापना की और इसका नाम रखा ‘सेंस कलाइडोस्कोप’। ये ऑटिज़म सेंटर पिछले तीन सालों से आयाती ट्रस्ट के ज़रिए काम करता है। ‘सेंस कलाइडोस्कोप’ एक वोकेशनल सेंटर है, जहाँ पर ऑटिज़म से पीड़ित बच्चे और युवक आते है। ये वो लोग हैं, जिनको दूसरों के मुकाबले ज्यादा मदद की ज़रूरत होती है। इन लोगों का मानना है कि ऑटिस्टिक बच्चे भी समाज के विकास में अपना योगदान दे सकते हैं। फिलहाल ये ऑटिस्टिक बच्चे हाशिए पर हैं। यही वजह है कि जब इस सेंटर की स्थापना हुई थी तब चार बच्चों से इसकी शुरूआत हुई थी, लेकिन आज यहाँ पर 15 बच्चे हैं।
“‘सेंस कलाइडोस्कोप’ दो स्तर पर काम करता है। पहली है विविध कला। इसके ज़रिए उनके अंदर छुपी हुई रचनात्मक और कलात्मक गतिविधियों को बाहर निकाला जाता है। हमारा मानना है कि इनके ज़रिए ऑटिस्टिक बच्चे को जहां इसमें मजा आता है वहीं उसे कई नई चीजें सीखने को भी मिलती हैं। साथ ही उसके स्वास्थ्य पर भी अच्छा असर पड़ता है। जबकि दूसरे स्तर पर इन लोगों ने लर्निंग डेवलवमेंट डिसओडर की स्थापना की इसमें ई-लर्निंग और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। इसमें मल्टीमीडिया और ऑडियो विजुअल की मदद से व्यक्तिगत शैक्षिक कार्यक्रम तैयार किया गया है। इसके पाठ्यक्रम की सामग्री को खास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तैयार किया गया है जैसे बच्चे के ज्ञान, उसकी बोलचाल और समाज के प्रति उसके व्यवहार पर ध्यान दिया गया है।” इसके अलावा इस सेंटर का उद्देश्य एक समग्र सूचना प्रौद्योगिकी पाठ्यक्रम उपलब्ध कराना है और एक खास सॉफ्टवेयर प्रोसेस के जरिये ऑटिस्टिक बच्चे और युवाओं में पढ़ने और याद करने की क्षमता का विकास किया जाता है। बेंगलुरु में चल रहा ‘सेंस कलाइडोस्कोप’ ऑटिज़म सेंटर दूसरे सेंटरों से अलग है। दूसरे सेंटर जो विभिन्न मुद्दों पर इन बच्चों के साथ अलग तरीके से व्यवहार करते हैं। ऐसे में ज्यादातर को सफलता नहीं मिलती, क्योंकि कोई अकेला ऐसे बच्चों को नहीं पढ़ा सकता। ऑटिज़म बच्चों के साथ काम करना कोई सरल नहीं है। इसके अतिरिक्त न्यूरोलॉजिकल डेवलवमेंट डिसओडर होने की वजह से ऐसे बच्चों को पढ़ाने और तकनीक की खास समझ और तजुर्बा होना चाहिए।
‘सेंस कलाइडोस्कोप’ की क्लासरूम का मॉडल स्कॉटलेंड की तर्ज पर डिज़ाइन किया गया है। इनकी एक क्लास में 4-5 बच्चे ही होते हैं और हर बच्चे की जिम्मेदारी हर टीचर पर होती है। बच्चों को हर विषय की जानकारी दी जाती है, लेकिन सबसे ज्यादा ध्यान बच्चे की कमज़ोरी और उसके अंदर की ताकत को पहचाने में दिया जाता है। इसी हिसाब से पढ़ाई के मॉडल तैयार किये गये हैं। ये लोग अपने अनुभव के आधार पर तैयार की गई तकनीक का इस्तेमाल करते हैं इसके साथ साथ विचारों को समझाने के लियए क्रॉफ्ट और तकनीक का भी इस्तेमाल करते हैं।जहां तक उनके व्यावसायिक ढांचे की बात है तो ‘सेंस कलाइडोस्कोप’ दूसरों से अलग है। ये सिर्फ वोकेशनल सेंटर की तरह काम नहीं करते बल्कि काफी हद तक ये स्थायी कला सीखने की सुविधा भी इन खास बच्चों को देते हैं। इसका मकसद है बच्चे के अंदर की छुपी हुई कला को पहचानना। जैसे पेंटिंग, ड्रॉइंग, रंग, प्रिंटिंग, मूर्तिकला, मिट्टी के बर्तन, बढ़ईगीरी आदि शामिल है। बच्चों की पसंद जान लेने के बाद इनको आगे का कोर्स कराया जाता है। ये अंतर्राष्ट्रीय कलाकारों को साथ में लाते हैं और कला प्रदर्शनी का आयोजन करते हैं। अब इन लोगों की कोशिश है कि देश में दिव्यांगों की कला के लिए अलग से बाजार तैयार हो। बात अगर पढ़ाई की करें तो ऑटिज़म बच्चों के लिए अलग तरह का पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। ये मिश्रण है अक्षयी और एनिमा के विचारों का जिसमें सीबीएससी और आईसीएसई के कार्यक्रम भी फिट बैठते हैं।
खास तरह के पाठ्यक्रम और गतिविधियों के साथ यहां के टीचर भी अच्छी तरह जानते हैं कि उनको बच्चों के साथ कैसे व्यवहार करना है। अक्षयी अक्सर स्कूल में घूमते हुए मिल जाएंगी इस दौरान वो हर बच्चे की गतिविधी पर नज़र रखती हैं और जरूरत पड़ने पर उसकी मदद भी करती हैं। यहां के स्टॉफ को इस बात की खास तरीके से ट्रेनिंग दी गई है कि वो बच्चों के साथ किस तरह से व्यवहार करें, उनकी मदद के लिये कैसे उनको पकड़े। क्योंकि ऑटिज़म बच्चों के साथ ये एक आम समस्या है। हालांकि इस सेंटर में कई वालंटियर भी काम करते हैं, लेकिन संस्थापक चाहते हैं कि इस काम में और ज्यादा लोग जुड़े। जो खाना बनाने की जानकारी दें और इन बच्चों को विभिन्न गतिविधियों में शामिल करने के लिये सेंटर से बाहर ले जायें।
‘सेंस कलाइडोस्कोप’ की स्थापना के लिये अक्षयी और एनिमा ने अपनी निजि बचत का पैसा लगाया है। इसके अलावा इन लोगों को बच्चों की फीस और सेंटर के शुल्क के तौर पर आमदनी होती है। बच्चों की कम संख्या के कारण इस सेंटर को चला पाना दोनों के लिये काफी चुनौतीपूर्ण है। ये सेंटर किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं लेता क्योंकि किसी भी तरह की सरकारी मदद लेने के लिये किसी भी सेंटर को कम से कम तीन साल काम करते हुए होना चाहिए। ‘सेंस कलाइडोस्कोप’ ने हाल ही में तीन साल पूरे किये हैं इसलिये अब इन्होने निवेश के रास्ते तलाशने शुरू कर दिये हैं। एनिमा बड़े फर्क से आयुष भमभानी के बारे में बताती हैं “आयुष जब 15 साल का था वो हमारे पास आया। तब वो ना ज्यादा बोलता था और ना ही एक जगह पर कुछ देर के लिये बैठ सकता था। वो सोफे पर लेट जाता था और जब उसे कुछ काम करने के लिये कहा जाता तो वो विरोध में रोने के साथ-साथ ज़मीन में लेटना शुरू कर देता। धीरे धीरे अक्षयी ने चालाकी से उसका विश्वास हासिल किया। वहीं सेंटर की टीचर्स ने देखा कि वो एक खास तरह की आर्ट बनाने में माहिर है। इसके बाद उसे प्रोत्साहित किया गया और छह महीने के अंदर आयुष ने 50 से ज्यादा कलाएं बनाई और इन सबको हमने एमजी रोड स्थित रंगोली आर्ट सेंटर में प्रदर्शित किया। जिसके बाद आयुष की इन पेंटिंग की बदौलत 90 हजार रुपये हासिल किये। एक बच्चा जिसे दूसरे स्कूल और प्रोफेशनल ने नाकार बता दिया था वो आज 30 हजार रुपये महीने कमा रहा है और उसके पास करने को काफी काम है।”
भविष्य के बारे में एनिमा और अक्षयी ‘सेंस कलाइडोस्कोप’ को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाना चाहते हैं। जहां पर दुनिया भर के कलाकार इन बच्चों को सलाह दें। साथ ही दोनों एक ऐसा सिस्टम तैयार करना चाहते हैं जहाँ पर छात्रों के बनाये उत्पाद कारोबारियों तक पहुंच सके ताकि उनसे होने वाली आमदनी का फायदा इन बच्चों को मिल सके। इसके अलावा ये एक ऐसे आर्गेनिक फार्मिंग के लिये जगह की तलाश में हैं जहां से इन बच्चों को स्वास्थ्यवर्धक खाना मिल सके।
मूल- अमृता डोंगरे
अनुवाद- गीता बिष्ट