Brands
YSTV
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Yourstory
search

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

Videos

ADVERTISEMENT
Advertise with us

हिंदी कविता की भर आईं आंखें फिर एक बार

चले गए केदारनाथ सिंह भी, अब स्मृति-शेष

हिंदी कविता की भर आईं आंखें फिर एक बार

Tuesday March 20, 2018 , 9 min Read

नहीं रहे हिंदी के जाने-माने कवि केदारनाथ सिंह, जिनके गीत आज अचानक हिंदी साहित्य के मन-प्राण में जोर-जोर से बज उठे - 'प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की।' वह अपने शब्दों की सौगात कुछ इस तरह हमे सौंप गए- 'जाऊंगा, कहाँ रहूँगा यहीं किसी किवाड़ पर हाथ के निशान की तरह, पड़ा रहूँगा किसी पुराने ताखे या सन्दूक की गंध में, छिपा रहूँगा मैं।'

image


बीएचयू से 1956 में हिंदी में एमए और 1964 में पीएचडी करने वाले केदारनाथ सिंह ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले हिंदी के 10वें लेखक रहे हैं। इसके अलावा वह मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान पुरस्कारों से सम्मानित किए गए।

हाल के दो तीन वर्षों में हिंदी के कई एक बड़े साहित्यकारों का एक-एककर दुनिया से विदा हो जाना साहित्य की ऐसी गंभीर क्षति के रूप में देखा जा रहा है, जिसकी भरपायी हो पाना असंभव सा है। इस सिलिसिले का एक और सबसे दुखद दिन कल का रहा, जब आधुनिक कविता के सशक्त हस्ताक्षर और लेखक केदारनाथ सिंह का दिल्ली के एम्स में निधन हो गया। यूपी के बलिया जिले के चकिया गांव में 1934 को जन्मे केदारनाथ सिंह को 2013 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सांस की तकलीफ के कारण उन्हें 13 मार्च को एम्स के पल्मोनरी मेडिसिन विभाग में भर्ती किया गया था। केदार नाथ सिंह हिंदी कविता में नए बिंबों के प्रयोग के लिए जाने जाते हैं।

बीएचयू से 1956 में हिंदी में एमए और 1964 में पीएचडी करने वाले केदारनाथ सिंह ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले हिंदी के 10वें लेखक रहे हैं। इसके अलावा वह मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान पुरस्कारों से सम्मानित किए गए। इसी साल जनवरी में हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार दूधनाथ सिंह का निधन हो गया। वह इलाहाबाद के फीनिक्स अस्पताल में भर्ती होने के दौरान चल बसे। वह कैंसर से पीड़ित थे लेकिन निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ। अगस्त 2017 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के मशहूर कवि चंद्रकांत देवताले चल बसे। देवताले मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के जौल खेड़ा में रहते थे लेकिन निधन दिल्ली में हुआ। वह 1960 के दशक में अकविता आंदोलन के साथ उभरे और 'लकड़बग्घा हंस रहा है' संग्रह से चर्चित हुए थे। नवम्बर 2017 में हिन्दी में सबसे बड़ा उपन्यास लिखने वाले साहित्यकार मनु शर्मा का निधन वाराणसी में हुआ। वह 89 वर्ष के थे। उनका उपन्यास ‘कृष्ण की आत्मकथा’ आठ खण्डों में है। इसे हिन्दी का सबसे बड़ा उपन्यास माना जाता है। इसके अलावा उन्होंने और भी कई सुपठनीय उपन्यास लिखे। फ़रवरी 2017 में अक्खड़ बनारसी कवि पंडित धर्मशील चतुर्वेदी नहीं रहे। वह कवि सम्मेलनों में अपने ठहाकों से रस भर देते थे। उसी महीने प्रख्यात साहित्यकार पथनी पटनायक का कटक में निधन हुआ। वह प्रख्यात शिक्षाविद् भी थे। उससे पूर्व मशहूर लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी, मशहूर कवि-पत्रकार नीलाभ अश्क, हिन्दी के प्रख्यात कहानीकार रवींद्र कालिया, साहित्यकार वीरेन डंगवाल, प्रतिष्ठित हिन्दी साहित्यकार कैलाश वाजपेयी, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति, साहित्यकार अरुण प्रकाश, जाने-माने साहित्यकार राजेन्द्र यादव, इंदिरा गोस्वामी, श्रीलाल शुक्ल, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री आदि के कुछ वर्षों के भीतर ही एक-एक कर चले जाने से भारतीय साहित्य को गहरा धक्का लगा है।

वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव लिखते हैं - हमारे समय के सबसे जीवन्त कवि केदारनाथ सिंह हमारी पीढ़ी के रोलमॉडल रहे हैं। उन्होंने हिंदी कविता के व्याकरण को बदला। वे ऐसी कविता के कवि थे, जो लोक के काफी निकट है। उनके साथ अनगिनत मुलाकातें याद आ रही हैं। वे हर मुलाकात को यादगार बना देते थे। यही उनकी कविता का भी गुण था। जब कभी फैज़ाबाद से गुजरते थे, वे इस बन्दरगाह पर जरूर ठहरते थे। अब यह सब हमारे लिए सपना हो गया है। प्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय लिखते हैं - विश्वास नहीं होता कि मेरा प्रिय कवि अब स्मृति बन गया है। उनको पढ़ा और सुना भी। अपने कॉलेज के कार्यक्रम में जब भी आने का आग्रह किया, वे आये। पर 6 से 8 दिसम्बर 2015 को पटना में उनके साथ गुज़ारे तीन दिन मेरी थाती हैं। 'नई धारा' सम्मान उनके साथ पाकर गौरवान्वित हुआ। उनके अजित राय के साथ व्यतीत शाम आज भी यादों में जीवन्त है। बहुत किस्से सुनाए थे उन्होंने। आनंदायक मूड में थे। तब मैंने उनकी जीवन्त छवियां कैद की थीं। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि दिविक रमेश लिखते हैं कि पहले मेरे काव्यगुरू शमशेर फिर त्रिलोचन और अब मेरे एक बहुत प्रिय तथा प्रेरणादायी कवि केदारनाथ सिह! कैसे भूलूं कि मेरे इस प्रिय कवि ने मेरे तीसरे कवितासंग्रह 'हल्दी-चावल और अन्य कविताएं' के लिए बड़े मन से मेरी कविताओं का चयन किया था। साथ ही मेरी चुनी हुई कविताओं के संग्रह "गेहूं घर आया है " पर बोलते हुए उन्होंने जो कहा था, वह एक रिपोर्ट के रूप में भी प्रकाशित है और मेरे संस्मरण 'केदारनाथ सिंह बार-बार' का एक अंश भी है, जो मेरी पुस्तक 'यादें महकी जब' तथा कामेश्वरप्रसाद सिंह के द्वारा संपादित पुस्तक 'केदारनाथ सिंह चकिया से बलिया' में संकलित है। अपने बड़े कवि के प्रति नत होते हुए एक अंश यहां दे रहा हूं- "यह चेहरा-विहीन कवि नहीं है बल्कि भीड़ में भी पहचाना जाने वाला कवि है। यह संकलन परिपक्व कवि का परिपक्व संकलन है और इसमें कम से कम 15-20 ऐसी कविताएँ हैं जिनसे हिंदी कविता समृद्ध होती है। इनकी कविताओं का हरियाणवी रंग एकदम अपना और विशिष्ट है। शमशेर और त्रिलोचन पर लिखी कविताएँ विलक्षण हैं। दिविक रमेश मेरे आत्मीय और पसन्द के कवि हैं।’विशिष्ट अतिथि केदारनाथ सिंह ने इस संग्रह को रेखांकित करने और याद करने योग्य माना। कविताओं की भाषा को महत्त्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने कहा कि दिविक ने कितने ही ऐसे शब्द हिंदी को दिए हैं जो हिंदी में पहली बार प्रयोग हुए हैं। उन्होंने अपनी बहुत ही प्रिय कविताओं में से ‘पंख’ और ‘पुण्य के काम आए’ का पाठ भी किया। कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर नामवर सिंह ने कहा कि वे किसी बात को दोहराना नहीं चाहते और उन्हें कवि केदारनाथ सिंह के विचार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगे। उन्होंने यह भी कहा कि वे केदारनाथ सिंह के मत पर हस्ताक्षर करते हैं। उनके अनुसार एक कवि की दूसरे कवि को जो प्रशंसा मिली है उससे बड़ी बात और क्या हो सकती है।"

image


महाकवि के महाप्रस्थान पर वरिष्ठ कवि पंकज चतुर्वेदी लिखते हैं कि कुछ कवि इतने मूल्यवान् होते हैं कि उनका जाना सिर्फ़ शोक-संविग्न नहीं करता, बल्कि दहशत भी पैदा करता है। उनका न रहना किसी एक भाषाई समाज की नहीं, समूची मानव-सभ्यता की क्षति होती है। मशहूर कवि केदारनाथ सिंह की विदाई ऐसी ही है। बिरले कवि होते हैं, जो बहुत कम शब्दों में महान कथन संभव करते हैं, जिनके चिंतन में ज़िंदगी का सारभूत सच समाहित रहता है और जो सहजतम ढंग से मनुष्यता को उसके उदात्त लक्ष्यों की पहचान कराते हैं। इन विशेषताओं की बदौलत केदारनाथ सिंह की कविताएँ मुहावरों की तरह लोकप्रिय हुईं और जाने कितनी पीढ़ियों की ज़बान पर रहती आयी हैं। उनकी कविता में बराबर प्रेम को मौजूदा समय में असंभव बना दिये जाने के यथार्थ से जनमी एक उदासी अन्तःसलिल है। यह लिखकर उन्होंने हमारी सभ्यता की केंद्रीय विडम्बना की शिनाख्त की थी कि ''.....सच तो यह है कि यहाँ / या कहीं भी फ़र्क़ नहीं पड़ता / तुमने जहाँ लिखा है 'प्यार' / वहाँ लिख दो 'सड़क' / फ़र्क़ नहीं पड़ता / मेरे युग का मुहाविरा है / फ़र्क़ नहीं पड़ता.'' उनकी शायद सबसे अच्छी कविताएँ प्रेम के संदर्भ में indifference या बेज़ारी के इसी रवैये से चुपचाप जूझते रहने की उनकी फ़ितरत का नतीजा हैं. मसलन 'हाथ' :

''उसका हाथ

अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा

दुनिया को

हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.''

इसीलिए अपने प्रिय के जाने से अधिक स्तब्ध और विचलित करनेवाली जीवन की कोई घटना नहीं हो सकती, इस सच को जितने सांद्र और ख़ूबसूरत ढंग से केदारनाथ सिंह ने बयान किया, आधुनिक कविता में वह बेमिसाल है :

''मैं जा रही हूँ---उसने कहा

जाओ---मैंने उत्तर दिया

यह जानते हुए कि जाना

हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है.''

प्रसिद्ध हिंदी आलोचक भारतेंदु मिश्र अपनी भावांजलि में लिखते हैं- रुक सी गयी प्रगति जीवन की, जब दुखद सूचना मिली कि लंबी बीमारी के बाद, लो चले गए वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह जी भी अनंत की यात्रा पर, उन्ही के एक गीत के माध्यम से उन्हें श्रद्धांजलि-

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,

उड़ने लगी बुझे खेतों से

झुर-झुर सरसों की रंगीनी,

धूसर धूप हुई मन पर ज्यों —

सुधियों की चादर अनबीनी,

दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।

साँस रोक कर खड़े हो गए

लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,

चिलबिल की नंगी बाँहों में —

भरने लगा एक खोयापन,

बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।

थक कर ठहर गई दुपहरिया,

रुक कर सहम गई चौबाई,

आँखों के इस वीराने में —

और चमकने लगी रुखाई,

प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।

ख्यात पत्रकार ओम थानवी लिखते हैं - केदारनाथ सिंह के नहीं रहने से बनारस के घाट सहसा सूने हो गए। जेएनयू की हलचल थम गई। घड़ी भर को मानो हिंदी ने साँस रोक ली। केदारजी की के काव्य और उनके गद्य ने हिंदी को अलग गरिमा दी। मुझ पर उनकी निजी कृपा रही। हमने (और दिवंगत के बिक्रम सिंह ने , जिन्होंने उन पर फ़िल्म बनाई थी) उनके साथ अनगिन शामें बिताईं। कई बार नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, विजय मोहन सिंह, गंगाप्रसाद विमल, उपेन्द्र कुमार आदि के साथ। केदारजी के साथ विजयदान देथा को देखने बोरूँदा गया। अरुण माहेश्वरी भी साथ थे। केदारजी को अपने बीकानेर ले गया। मेरे पिताजी से उनका अजब याराना था। बिक्रमजी के साथ वे हमारे क़स्बे फलोदी गए। उनके और मेरे बीच एक कड़ी अज्ञेय भी थे। वे मार्क्सवादी होकर भी अज्ञेय के मुरीद थे और खुले में कहते थे कि तीसरा सप्तक में अज्ञेय का बुलावा उनकी काव्य-यात्रा में बुनियादी मोड़ था। आज एक कविता बार-बार याद आ रही है नम आँखों के साथ ...

जाऊंगा कहाँ

रहूँगा यहीं

किसी किवाड़ पर

हाथ के निशान की तरह

पड़ा रहूँगा

किसी पुराने ताखे

या सन्दूक की गंध में

छिपा रहूँगा मैं

दबा रहूँगा किसी रजिस्टर में

अपने स्थायी पते के

अक्षरों के नीचे

या बन सका

तो ऊंची ढलानों पर

नमक ढोते खच्चरों की

घंटी बन जाऊंगा

या फिर माँझी के पुल की

कोई कील

जाऊंगा कहाँ

देखना

रहेगा सब जस का तस

सिर्फ मेरी दिनचर्या बदल जाएगी

साँझ को जब लौटेंगे पक्षी

लौट आऊँगा मैं भी

सुबह जब उड़ेंगे

उड़ जाऊंगा उनके संग...

ये भी पढ़ें: हिंदी साहित्य और छायावाद के अमिट स्तंभ महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला