Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

हिंदी साहित्य और छायावाद के अमिट स्तंभ महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

निराला जन्मदिन विशेष: महाप्राण की मतवाली शाम, कभी सोमरस, कभी भांग-धतूरा

हिंदी साहित्य और छायावाद के अमिट स्तंभ महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

Wednesday February 21, 2018 , 10 min Read

हिंदी साहित्य और छायावाद के अमिट स्तंभ महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का आज (21 फरवरी) 122वां जन्मदिन है। कैलेंडर में जन्मतिथि कुछ और होने के बावजूद निराला जी अपना जन्मदिन वसंत पंचमी (21 फरवरी,1896 ) को ही मनाया करते थे।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला


निराला जी जिस तरह का जीवन जीते थे, वह हर वक्त अपने आसपड़ोस के लोगों के संपर्क में बने रहते थे। उन्हें खासकर मेहनतकश वर्ग के लोगों से आत्मीयता थी। मजदूरिन महिलाओं पर अय्याश पैसे वालों की निगाहें टकटकी लगाए रहती हैं, लेकिन निराला जी की दृष्टि में एक श्रमिक महिला कैसा कठिन श्रम-संदेश दे गई।

हिंदी कविता के ख्यात आलोचक पंडित रामविलास शर्मा के शब्दों के साथ जन-जन में समादृत हुए महाप्राण की बहुविधात्मक जितनी कविताएं, उतनी जनश्रुतियां भी हैं। सनेही मंडल की ओर से एक बार पर्वतों की रानी मसूरी की चट्टानों पर शीर्ष कविगण की एक गोष्ठी आयोजित हुई, जिनमें निराला जी भी शामिल हुए। कहा जाता है कि औघड़दानी शिवशंकर की तरह निराला जी मादक द्रव्यों का भरपूर सेवन भी करते थे। कभी भांग, कभी सोमरस, कभी कुछ नहीं तो धतूरा ही सही। वह ऐसी ही मतवाली शाम थी, जिसकी आपबीती स्वयं श्याम नारायण पांडेय ने मुझे कुछ इस तरह सुनाई थी।

उस शाम कविगोष्ठी से पहले चट्टान पर पालथी मारे निराला जी को हथेली पर मादक लिए देख पांडेय जी का भी मन डोल उठा। सोचा, कविता पढ़ने से पहले वह भी मूड बना लें तो भरपूर आनंद आएगा। उन्हें क्या पता था कि आगे कुछ ही पलों में जो होने वाला है, उनके लिए वर्णनातीत होगा। जैसे ही उन्होंने निराला जी से मादक पदार्थ की फरमाइश की, छूटते ही निरालाजी ने पहले तो पूछा- बर्दाश्त कर पाओगे? फिर बोले- अच्छा, एक तृण लाओ। पांडेयजी ने उन्हें दूब-तृण थमाया। निराला जी ने उसकी नोंक मादक पदार्थ में डुबोकर पांडेय जी को थमाते हुए कहा- लो, फिलहाल इतना ही अपनी जीभ पर रख लो। जैसे ही पांडेय जी ने तृण की नोंक अपनी जीभ पर रखी, पल भीतर उन्हें जोर को मितली उठी। उसके बाद तो उनका जो हाल हुआ, अकथनीय है।

वह लस्त-पस्त होकर बिस्तर पर पड़ गए। गोष्ठी भी उनके लिए विरानी रही। दूसरे दिन उनकी सेहत सामान्य हो सकी। इतना विषाक्त था वह तृणभर मादक पदार्थ, जिसे झेल पाना पांडेयजी के लिए दुष्कर हो गया। सोचिए, उस मादक पदार्थ से निरालाजी की पूरी हथेली अटी हुई थी, जिसे निगलने के बाद उन्होंने उस शाम झूम-झूमकर पूरे होशोहवास में कविता पाठ किया। निराला जी की एक प्रसिद्ध रचना है 'राम की शक्ति-पूजा', प्रस्तुत है प्रथम अध्याय का किंचित अंश -

रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर

रह गया राम-रावण का अपराजेय समर

आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,

शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,

प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह

राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,

विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,

लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,

राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर,

उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर,

अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव,

विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,

रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल,

मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,

वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,

गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,

उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,

जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।

लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,

बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।

वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न

चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।

प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल

लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल

रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,

श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,

दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल

फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल

उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार

चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।

आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर

सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर

सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान

नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान

करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।

बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल

ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान

अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान

वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,

सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,

पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,

सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,

यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष

देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।

है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,

खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,

अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,

भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।

स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय

रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,

जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,

एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,

कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,

असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।

ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत

जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत

देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन

विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन

नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-

पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-

काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-

गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-

ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-

जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,

हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,

फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,

फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,

वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-

फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,

देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,

ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;

निरालाजी जलेबी और दही खाने के बड़े शौकीन थे। एक बार लखनऊ में वह भैयाजी के नाम से साहित्य जगत में मशहूर श्रीनारायण चतुर्वेदी के यहां ठहरे हुए थे। कहीं से कविसम्मेलन में रात बिताने के बाद सुबह-सुबह बनारस के कुछ कवि भैयाजी के आवास पर आ धमके। उनका घर कवियों के सराय जैसा हुआ करता था, उस जमाने में। भैयाजी कवियों की हर तरह से मदद भी किया करते थे। वह उस समय उत्तर प्रदेश में शिक्षा विभाग के निदेशक भी थे। किसी की रचना कोर्स में लगानी हो, किसी का अर्थाभाव दूर करना हो, किसी को नए कपड़े सिलाने हों, घर-गृहस्थी के लिए कुछ पैसे की दरकार हो, कविसम्मेलन में पुरस्कार दिलाना हो, कविता की किताब छपवानी हो, हर मर्ज की एक दवा भैयाजी।

तो उस दिन सुबह-सुबह जब कवियों का झुंड भैयाजी के आवास पर पहुंचा, और सीढ़ियों से मकान के पहले तल की ओर जाने लगा, नीचे बरामदे में नजर पड़ी, देखा क्या कि कोई लंब-तड़ंग व्यक्ति फटी रजाई ताने ठाट से सो रहा है। रजाई पायताने की ओर फटी हुई थी, उसमें से उसके पैर के दोनो पंजे झांक रहे थे। कविगण चौके। अरे, फटी रजाई और जाड़े के दिन में जमीन पर ठाट का आसन। यह आखिर हो कौन सकता है? सवाल मन में कौंधा, कविगण से यह आसान प्रश्न सुन भैयाजी मंद-मंद मुस्कराए। प्रतिप्रश्न करते हुए बोले- और कौन होगा यहां, वही महाशय हैं, निराला जी। इसके बाद जोर का ठहाका गूंजा। बतकुच्चन (बातचीत) में उन्होंने कविगण को बताया कि लंदन गया था, वहां से एक जोड़ी रजाई ले आया था। एक निरालाजी को दे दिया।

अगले ही दिन वह नई-नई रजाई रेलवे स्टेशन के किसी भिखारी को दे आए। कभी कहते हैं, खो गई, कभी कहते हैं, रिक्शावाला कांप रहा था, उसे ही दे दिया। तो भैया आप इतने बड़ी महादानी हो, मैं इतनी रजाइयां कहां से लाऊं, लो फटी रजाई ओढ़ो, उसी को ओढ़ते हैं अब। यह सब जानकारी मिलने के बाद कविगण को महाप्राण की दानशीलता पर गर्व हुआ और करुणा से किंचित आंखें भी भींग उठीं। ऐसा महाकवि ही 'भिक्षुक' जैसी कालजयी कविता लिख सकता था -

वह आता--

दो टूक कलेजे के करता पछताता

पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,

चल रहा लकुटिया टेक,

मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को

मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--

दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,

बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,

और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।

भूख से सूख ओठ जब जाते

दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--

घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।

चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,

और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!

हल्दीघाटी के रचनाकार पंडित श्याम नारायण पांडेय ने निरालाजी के बारे में एक और अपठित-अश्रुत वाकया सुनाया था। निरालाजी उन दिनो अपने बेटे-बहू के साथ रहते थे। एक दिन की बात है, बेटा रामकृष्ण काम से कहीं बाहर गए हुए थे। घर पर बहू के अलावा और कोई नहीं था। बहू से किसी बात को लेकर उनकी तकरार हो गई। उन्होंने बहू के सिर पर बेंत से प्रहार कर दिया। वह बेहोश हो गई। इसके बाद उसे अकेले कमरे में छोड़ बाहर से सांकल चढ़ाकर एक ओर खामोश बैठ लिए। कुछ देर बाद रामकृष्ण लौटे। बाहर से सांकल चढ़ी देख पत्नी के बारे में पूछ लिया कि वो कहां गई है? निराला जी बोले- खुद पता कर ले, कहां है कि नहीं है। रामकृष्ण ने सांकल खोल जैसे ही कमरे में पांव रखे, जमीन पर बेसुध पड़ी पत्नी को देख पहले तो तमतमा उठे, फिर उठाकर अस्पताल ले गए। मरहम पट्टी कराया। पांडेय जी बताते हैं, बाद रामकृष्ण अपने पिता को नदी किनारे ले गए और आहत-बेहोश कर वही रेत पर छोड़ गए। होश आने पर निराला जी ने नदी में मुंह धोया। मल्लाहों की मदद से नाव पर दूसरे घाट पहुंचे। उसी दिन उनकी इस कविता का जन्म हुआ था -

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!

पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,

वह कभी नहाती थी धँसकर,

आँखें रह जाती थीं फँसकर,

कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,

फिर भी अपने में रहती थी,

सबकी सुनती थी, सहती थी,

देती थी सबके दाँव, बंधु!

पांडेयजी से मैंने एक और वाकया कभी सुना था। उन्होंने बताया था कि एक बार इलाहाबाद के पास एक कस्बे में कवि सम्मेलन देर रात तक चला। उसमें निरालाजी ने भी कई कविताओं का पाठ किया। कार्यक्रम में जिले के कई आला अधिकारी भी शामिल हुए थे। कविता पाठ के बाद निरालाजी सहित कई कवि सुबह तक के लिए वहीं रुक गए। सुबह निरालाजी वहां से पैदल ही इलाहाबाद शहर के लिए लौट पड़े। रास्ते में एक गांव पड़ा। वहां की कुछ महिलाएं पानी भरने के लिए कुएं पर जमा थीं। निरालाजी को प्यास लगी थी। उन्होंने पीने के लिए पानी मांगा तो महिलाओं ने कोई अटपटी बात कह दी। निराला जी को भी गुस्सा आ गया।

उन्होंने भी कोई अटपटी बात कह दी जो ग्रामीण महिलाओं को नागवार गुजरी। उनमें से एक महिला ने इसकी सूचना अपने घर वालों को दे दीं। इसके बाद झुंड बनाकर कई ग्रामीण कुएं पर पहुंच गए और उन्होंने निरालाजी पर हमला करने के बाद उन्हें बगल के पेड़ से बांध दिया। थोड़ी देर बाद ही वहां से उन अधिकारियों में किसी एक की गाड़ी वहां से गुजरी, जो रात के कवि सम्मेलन में निराला जी की कविता सुन चुका था। गाड़ी रुकी। उसने जब उन्हें घायल हालत में पेड़ से बंधे देखा, पहले तो ग्रामीणों को डांटा-फटकारा, फिर अपनी गाड़ी से लेजाकर निरालाजी का दवा-मरहम कराने के बाद उनके ठिकाने पर छोड़ा।

निराला जी जिस तरह का जीवन जीते थे, वह हर वक्त अपने आसपड़ोस के लोगों के संपर्क में बने रहते थे। उन्हें खासकर मेहनतकश वर्ग के लोगों से आत्मीयता थी। मजदूरिन महिलाओं पर अय्याश पैसे वालों की निगाहें टकटकी लगाए रहती हैं, लेकिन निराला जी की दृष्टि में एक श्रमिक महिला कैसा कठिन श्रम-संदेश दे गई, इस कविता में देखिए -

वह तोड़ती पत्थर;

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बंधा यौवन,

नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार:-

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन,

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गई,

प्रायः हुई दुपहर :-

वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

"मैं तोड़ती पत्थर।"

यह भी पढ़ें: घुमक्कड़ कविता के माध्यम से नये कवियों को मंच दे रहा है ये आईटी प्रोफेशनल