भारत में अर्धसैनिक बल की कमान संभालने वाली पहली महिला आईपीएस अफसर अर्चना
37 साल पहले जब अर्चना का सेलेक्शन आईपीएस के तौर पर हुआ था तब वह अपने ट्रेनिंग बैच में अकेली महिला थीं। रिटायर होने के कुछ दिन पहले ही उन्हें सशस्त्र सीमा बल (SSB) की डायरेक्टर जनरल पद का कार्यभार सौंपा गया।
जब उनसे सवाल पूछा गया कि क्या सिविल सेवा में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव होता है तो उन्होंने कहा, 'मुझे लगता है कि जब आप सर्विस जॉइन करते हैं तो आप चाहे महिला हों या पुरुष हों आपके साथ एक ही तरह का बर्ताव होता है।'
भारत में महिलाओं की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आजादी के 60 साल बीतने के बाद भी बड़ी-बड़ी सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के प्रमुखों की सूची में औरतों का प्रतिनिधित्व शून्य है या तो न के बराबर है। अर्धसैनिक बलों की भी 2016 तक कमोबेश यही हालत थी। 3 फरवरी 2016 को आईपीएस अधिकारी अर्चना रामसुंदरम को सशस्त्र सीमा बल की कमान सौंपी गई तब जाकर कहीं यह कलंक मिटा। इसके पहले कोई भी महिला किसी भी अर्धसैनिक बल के प्रमुख के तौर पर नियुक्त नहीं हुई थी। आईए जानते हैं कैसा रहा अर्चना रामसुंदरम का सफर।
37 साल पहले जब अर्चना का सेलेक्शन आईपीएस के तौर पर हुआ था तब वह अपने ट्रेनिंग बैच में अकेली महिला थीं। रिटायर होने के कुछ दिन पहले ही उन्हें सशस्त्र सीमा बल (SSB) की डायरेक्टर जनरल पद का कार्यभार सौंपा गया। SSB भारत नेपाल की 1,751 किलोमीर लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा की सुरक्षा करता है। SSB के डीजी होने के नाते उन्हें न केवल सीमा के पास रहने वाले लोगों के भीतर सुरक्षा की भावना विकसित करने का काम दिया गया बल्कि सीमा पर होने वाले अपराधों पर भी उन्हें अंकुश लगाना था।
दूरदर्शन को दिए एक इंटरव्यू में वह अपने बचपन के दिनों को याद करती हैं। अर्चना का जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में हुआ था। उनके पिता जज थे और उन्होंने ही अर्चना को अफसर बनने के लिए प्रेरित किया। वह कहती हैं, 'मैंने अपनी पढ़ाई उस दौर में पूरी की जब लड़कियों को शिक्षा से दूर रखा जाता था। लेकिन मेरे पिता ने मुझे शिक्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने ही मुझे ऐसे पेशे में आने के लिए प्रेरित किया। पिता जज थे और इस वजह से अक्सर उन्हें पुलिस के साथ संवाद करना होता था। इसी वजह से मेरे भीतर भी वर्दी पहनने का ख्वाब पलना शुरू हुआ।'
अर्चना शुरू से ही पढ़ने में तेज थीं और उन्हें खुद पर आत्मविश्वास भी था कि एक दिन वह आईएएस या आईपीएस अफसर बनेंगी। वह कहती हैं, 'मुझे पता था कि मैं ऐसी नौकरी नहीं कर सकती जिसमें सिर्फ महीने के अंत में मिलने वाली सैलरी से मतलब हो। मैं कुछ ऐसा करना चाहती थी जिससे समाज में परिवर्तन आ सके और लोगों की मुश्किलें कम हो सकें।' अर्चना ने इकोनॉमिक्स में ग्रैजुएशन किया और फिर कुछ दिन के लिए कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी भी की। इसके बाद उनका चयन सिविल सेवा परीक्षा के लिए हो गया। यूपीएससी में उन्हें आईपीएस की सर्विस मिली और उन्हें तमिलनाडु कैडर अलॉट हुआ।
वह कहती हैं, 'जब मैं हैदराबाद में ट्रेनिंग के लिए गई तो वहां अपने बैच में मैं अकेली महिला थी। मैं काफी घबराई और हतोत्साहित महसूस कर रही थी। लेकिन मेरे बैचमेट्स ने मेरा पूरा सहयोग किया। ट्रेनिंग स्टाफ ने मेरे सारे संदेह दूर किए। इस बात को बीते अब तीन दशक से ज्यादा हो रहे हैं, लेकिन सारे बैचमेट हमारे लिए एक परिवार के जैसे हैं।' अर्चना ने 1989-91 में दो साल का अध्ययन अवकाश भी लिया था और उस वक्त वह अमेरिका में कैलिफॉर्निया यूनिवर्सिटी में क्रिमिनॉलजी की पढ़ाई करने गई थीं।
अपने राज्य से हजारों मील दूर तमिलनाडु में सर्विस के दौरान अपने अनुभव के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं, 'भाषा अलग होने से थोड़ी सी दिक्कत हुई और तमिल एक ऐसी भाषा है जिसे सीखना भी काफी मुश्किल है, लेकिन हमें ट्रेनिंग के दौरान काफी कुछ सिखा दिया जाता है, जिससे हमें इस मुश्किल के सामने पेश आने में थोड़ी आसानी हो जाती है।' तमिलनाडु में जनता द्वारा मिले प्यार को बयां करते हुए वह कहती हैं, 'मेरी डिस्ट्रिक्ट ट्रेनिंग मदुरै, वेल्लौर, नलगिरी जैसे जिलों में हुई और यहां गांव के लोगों ने मुझे कुछ ज्यादा ही प्यार और सम्मान दिया। मुझे महिला होने का भी फायदा मिला क्योंकि किसी भी मुश्किल के वक्त लोग पुरुष अधिकारियों के मुकाबले मेरी बात ज्यादा सुनते थे।'
जब उनसे सवाल पूछा गया कि क्या सिविल सेवा में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव होता है तो उन्होंने कहा, 'मुझे लगता है कि जब आप सर्विस जॉइन करते हैं तो आप चाहे महिला हों या पुरुष हों आपके साथ एक ही तरह का बर्ताव होता है। आपके अधिकारी आपसे वैसे ही पेश आएंगे। मुझे लगता है कि नेतृत्व की क्षमता लिंग से ज्यादा महत्वपूर्ण है और किसी भी पुलिस बल के साथ काम करने पर आपको नेतृत्व क्षमता की जरूरत होती ही है।' आगे बात करते हुए वह कहती हैं, 'हमारी निजी पहचान हमारे करियर के चुनाव को नहीं बदल सकती। जहां तक सौम्य व्यक्तित्व की बात है तो इससे कभी मेरे काम पर असर नहीं पड़ा।'
वेल्लौर में एसपी रहते हुए उन्हें अब्दुल करीम तेलगी फर्जी स्टांप पेपर घोटाले की जांच सौंपी गई थी। 20,000 करोड़ रुपये के इस फर्जीवाड़े को सुलझाते हुए उन्होंने 1995 में पुलिस मेडल हासिल किया था। बाद में 2005 में सर्विस में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए राष्ट्रपति के हाथों सम्मानित किया गया। 1999 से 2006 तक वह केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो के हेडक्वार्टर में तैनात रहीं। यहां रहते हुए उन्होंने कई महत्वपूर्ण केस सुलझाए। 2014 में जब उन्हें सीबीआई का प्रमुख बनाये जाने की बात आई तो तमिलनाडु की सीएम जयललिता ने उन्हें निलंबित कर दिया। उन पर आरोप लगा था कि उन्होंने राज्य से अपनी जिम्मेदारियों से रिलीविंग नहीं ली है। यह मामला कोर्ट में गया और वह सीबीआई प्रमुख बनने से रह गईं।
जब उन्हें केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के अंतर्गत आने वाले SSB की डीजी की जिम्मेदारी दी गई तो अखबारों और मीडिया में उनके महिला होने को ज्यादा प्रमुखता से छापा गया। इस बारे में जब उनसे सवाल किया गया तो उन्होंने कहा, 'इससे फर्क नहीं पड़ना चाहिए लेकिन फर्क पड़ता है। पिछले प्रमुख बीडी शर्मा मेरे बैचमेट थे, लेकिन मुझे तीन साल बाद जिम्मेदारी मिली। ऐसा सोचकर अजीब लगता है कि एक ही बैच के होने के बावजूद ऐसी जिम्मेदारी मुझे तीन साल बाद मिलती है।' एक और इंटरव्यू में वह कहती हैं कि उन्होंने कभी फोर्स में किसी को महिला या पुरुष की तरह नहीं देखा।
इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एसएसबी के प्रमुख के रूप में उनके कार्यकाल में SSB ने 503 पीड़ितों को बचाया और 2016 में 147 तस्कर गिरफ्तार किए, जबकि 472 पीड़ितों को बचाया गया और 2017 में 132 तस्करों को हिरासत में लिया गया। इसके अलावा, 2016-2017 के बीच बल ने 51 नक्सलियों के आत्मसमर्पण कराए। उनसे 125 हथियार, 1,372 गोला बारूद, 135 किलोग्राम विस्फोटक, 64 किलो आईईडी (इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोजिव डिवाइस) भी बरामद किया गया।
वह कहती हैं, 'हमारा प्रयास सीमा को लोगों के रहने के अनुकूल बनाना है साथ ही हम ये भी सुनिश्चित कराते हैं कि इसका अनुचित लाभ न मिल पाए। सीमा पार होने वाले अपराध एक चुनौती की तरह होते हैं, लेकिन हमने अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाया। हमने मानव तस्करी की पीड़िताओं से बात की तो उन्होंने हमसे कई राज साझा किए। हमने बच्चों के लिए खास कार्यक्रम आयोजित किए।' अर्चना कहती हैं कि उनकी जिंदगी में परिवार हमेशा एक दीवार की तरह सहारा बनकर खड़ा रहा।
वे कहती हैं, 'हमारी सर्विस बाकी के फोर्स से अलग होती है क्योंकि हमारी टाइमिंग अलग होती है इसलिए परिवार का सहयोग आवश्यक हो जाता है। मैं चाहे एसपी के तौर पर काम कर रही थी या फिर डीआईजी के पद पर, जब भी कोई मुश्किल आई तो मेरे पति ने हमेशा सहयोग किया।' उन्हें 78,000 की संख्या वाले विशाल बल में सिर्फ 3 प्रतिशत महिलाओं की उपस्थिति पर दुख होता है, लेकिन साथ ही वह यह भी कहती हैं कि चयन प्रक्रिया में बदलाव किया जा रहा है और अब महिलाओं के लिए काम करने को और आसान बनाया जा रहा है। वह कहती हैं, 'यह दुखद है कि अभी भी महिलाओं को बस उपभोग की वस्तु की तरह देखा जाता है। लोगों की मानसिकता में बदलाव नहीं हुआ है। यह सिर्फ बल का नहीं बल्कि हम सबका कर्तव्य बनता है कि हम एक ऐसा समाज विकसित करें जहां हर महिला सुरक्षित महसूस कर सके और उसे विकास के उतने ही अवसर मुहैया कराए जाएं जितने कि किसी पुरुष को मिलते हैं।' अर्चना 37 साल के लंबे करियर के बाद 31 सितंबर को सेवानिवृत्त हो गईं। उनकी जगह एक और महिला अफसर रजनीकांत मिश्रा ने ली।
यह भी पढ़ें: साक्षरता मिशन परीक्षा में 100 में से 98 नंबर ले आईं 96 वर्षीय कार्तियनिम्मा