जख्मों से भरी कहानियों वाले अजीम शख्सियत थे मटियानी
ऐसा क्यों होता है, कि सारी बेहतरीन शख्सियतें मृत्यु के बाद लोगों के भीतर जीवित होती हैं, ऐसी ही एक शख्सियत हैं शैलेश मटियानी...
हिंदी के संघर्षशील कथाकार शैलेश मटियानी रचनात्मक आचरण में धूमिल और निराला का फक्कड़पन, गोर्की का जुझारूपन और प्रेमचंद की विराटता एक साथ मुखरित होती रही है। वह जीवन भर लड़ते रहे, न समाज ने, न साहित्य जगत ने उन्हें कभी गंभीरता से लिया। जीवन भर रोजी-रोटी के लिए जिंदगी के ऐसे-ऐसे दर्रों से गुजरते रहे, जहां से होकर विरला ही संवेदनशील रचनाकार गुजरना चाहेगा।
जिंदगी भर तो मामूली सी मदद के लिए मटियानी तरसते रहे लेकिन दुनिया से विदा हो जाने के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार का संस्थागत सम्मान, शारदा सम्मान, केडिया संस्थान से साधना सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार से लोहिया पुरस्कार आदि नवाजे गए।
संघर्षशील कथाकार शैलेश मटियानी को हर साल हिंदी साहित्य जगत उनके पुण्यतिथि-दिवस 24 अप्रैल को याद करते हुए उस अंधी सुंरग में एक बार जरूर झांकना चाहता है, जिसके अंधेरे में टहल रही देश और समाज की तमाम दुखद दास्तान रचनाधर्मियों को अपने शब्दों के सच के साथ बने रहने के लिए कठोरता से आगाह कर जाती हैं। आज भी मटियानी की अमर कृतियों - उगते सूरज की किरन, पुनर्जन्म के बाद, भागे हुए लोग, डेरे वाले, हौलदार, माया सरोवर, उत्तरकांड, रामकली, मुठभेड़, चन्द औरतों का शहर, आकाश कितना अनन्त है, बर्फ गिर चुकने के बाद, सूर्यास्त कोसी, नाग वल्लरी, बोरीवली से बोरीबंदर तक, अर्धकुम्भ की यात्रा, गापुली गफूरन, सावितरी, छोटे-छोटे पक्षी, मुख सरोवर के हंस, कबूतर खाना, बावन नदियों का संगम आदि को उनके सुधी पाठक उलटते-पुलटते रहते हैं।
उनके हारा हुआ, सफर घर जाने से पहले, छिंदा पहलवान वाली गली, भेड़े और गड़रिये, तीसरा सुख, बर्फ की चट्टानें, नाच जमूरे नाच आदि कहानी संग्रहों के शब्द बहुत कुछ गहरे तक सोचने को विवश करते हैं। उनके लेखों के शीर्षक ही पढ़कर पता चलता जाता है कि अंदर क्या लिखा होगा, मसलन, राष्ट्रभाषा का सवाल, कागज की नाव, लेखक की हैसियत से, किसे पता है राष्ट्रीय शर्म का मतलब आदि। कुमाऊं विश्वविद्यालय से डी.लिट् की मानद उपाधि-प्राप्त शैलेश मटियानी जीवन भर रोजी-रोटी के लिए जिंदगी के ऐसे-ऐसे दर्रों से गुजरते रहे, जहां से होकर विरला ही संवेदनशील रचनाकार गुजरना चाहेगा।
जिंदगी भर तो मामूली सी मदद के लिए वह तरसते रहे लेकिन दुनिया से विदा हो जाने के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार का संस्थागत सम्मान, शारदा सम्मान, केडिया संस्थान से साधना सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार से लोहिया पुरस्कार आदि नवाजे गए। मटियानी प्रेमचंद के बाद हिंदी के सबसे अधिक लिक्खाड़ लेखक माने जाते हैं। उनके 30 कहानी संग्रह, 30 उपन्यास, 13 वैचारिक निबंध की किताबें, दो संस्मरण और तीन लोक-कथाओं की किताबें इसका उदाहरण हैं। ‘चील माता’ और ‘दो दुखों का एक सुख’ वे अन्य महत्वपूर्ण कहानियां हैं जिनके कारण उनकी तुलना मैक्सिम गोर्की और दोस्तोवस्की तक से की जाती रही है।
मुश्किलें शैलेश मटियानी के पीछे किसी बौराए कुत्ते-सी तो तमाम उम्र ही फिरती रहीं लेकिन, 1952 तक का कालखंड उनकी जिंदगी का सबसे मुश्किल दौर रहा। पहले वे पहाड़ यानी अपनी जन्मभूमि (अल्मोड़ा) से इलाहाबाद गए फिर इलाहबाद से मुजफ्फरनगर और मुजफ्फरनगर से दिल्ली और फिर दिल्ली से मुंबई पहुंचे। यह पहुंचना कुछ ऐसा नहीं रहा कि जैसे यह महज उनकी यात्रा के अगले स्टेशन या फिर पड़ाव भर हों, इन जगहों पर वे नौकरियों और मन लायक काम के तलाश में भटक रहे थे। इस दौरान कोई शहर या फिर शख्स उनका पनाहगाह नहीं बना क्योंकि उनके सिर पर बूचड़ों के घराने की मुहर लगी थी।
चन्द्रशेखर बड़शीलिया बताते हैं - 'संघर्ष का दूसरा नाम था शैलेश मटियानी। 24 अप्रेल 2001 को जब उनके निधन का समाचार मिला तो यकायक यकीन न हुआ लेकिन जो उनके नजदीकी थे, वे जानते थे कि अंतिम वर्षों की भयावह स्थितियों में भी रचनारत मटियानी को बीते दस वर्षों ने जैसे जीते जी मार दिया था पर विडम्बना ही थी कि उनकी मौत भी हिन्दी के प्रतिष्ठान का ध्यान कहाँ आकृष्ठ कर सकी। हिन्दी के उनके साथी लेखकों के पास भी उनकी मौत पर शोक संवेदना व्यक्त करने का समय नहीं था। दिल्ली के शहादरा मनोचिकित्सा केन्द्र में उनके अंतिम दर्शन के लिये कुल जमा दस लोग ही जुट पाये थे।
सच में अपनी रचनाओं के जरिये संघर्ष करने वाले मटियानी जैसे लेखक की जिंदगी भी स्वयं में कितनी निरीह होती है। हिन्दी साहित्य में मटियानी जैसा जीवन जीने वाला लेखक बहुत कम हुआ है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद के बाड़ेछीना कस्बे में 14 अक्टूबर 1931 को एक गरीब परिवार में जन्मे मटियानी ने भले ही हाईस्कूल तक शिक्षा पाई थी पर बचपन से ही सरस्वती की उन पर असीम कृपा थी। बारह वर्ष की उम्र में अपने माता-पिता को खोने के बाद अल्मोड़ा में चाचा की दुकान में काम किया और यहीं से बाल कहानियाँ लिख कर लेखन की शुरुआत की।
शैलेश मटियानी एक बार जीवनयापन के लिये हल्द्वानी से इलाहाबाद होते हुए मुंबई पहुँचे। वहाँ फुटपाथ पर सोये, ढाबों में जूठे बर्तन धोये पर कभी समझौता नहीं किया। उनका मुंबई का संघर्ष 1959 में उनके पहले उपन्यास ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’ में पूरी शिद्दत के साथ उभर कर आया। एक जगह पर शैलेश ने लिखा है- लिखना लेखक होना, अपने मानवीय स्वत्व के लिये संघर्ष करने का ही दूसरा नाम है और जब यह दूसरों के लिये संघर्ष करने के विवेक से जुड़ जाता है तभी लेखक सही अर्थों में साहित्यकार बन पाता है।
एक संवेदनशील व्यक्ति के रूप में भी उन जैसा मिलना मुश्किल है। ऐसे लोगों की संख्या भी काफी बड़ी थी जो पहली मुलाकात में ही उनके नारियल जैसे सख्त बाहरी खोल के भीतर मौजूद उजली गिरी और शीतल मीठे पानी का तृप्तिदायक स्वाद पा सके थे। वे अपनी उम्र से बड़ों के साथ जहाँ सहज प्रसन्न भाव से उठते-बैठते थे वहीं अपने से छोटे के साथ भी तन्मय हो जाते थे। उनके मन के किसी कोने में कहीं माँ की सी ममता थी तो कहीं बच्चों की सी हठधर्मिता भी।
संघर्ष के कठिन दिनों में ही 1958 ई. में नीला मटियानी से उनका विवाह हुआ। परिवार और पारिवारिक जीवन के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा का परिचय मिलने लगा। वह अपनी कहानियों के सन्दर्भ में कहते थे कि - "मेरे लेखक-जीवन की नींव में दादी के मुख से निकली लोक-कथाओं की ईंटें पड़ी हुई हैं।" स्त्रियों के लिए एक गहरी संवेदना शैलेश मटियानी जीवन और लेखन में हमेशा मौजूद रही। देवेंद्र मेवाड़ी बताते हैं कि सन् साठ के दशक के अंतिम वर्ष थे। एम.एस-सी. करते ही दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में नौकरी लग गई। आम बोलचाल में यह पूसा इंस्टिट्यूट कहलाता है। इंस्टिट्यूट में आकर मक्का की फसल पर शोध कार्य में जुट गया। मन में कहानीकार बनने का सपना था।
'कहानी', 'माध्यम' और 'उत्कर्ष' जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं में मेरी कहानियां छपने लगी थीं। समय मिलते ही कनाट प्लेस जा कर टी-हाउस और काफी-हाउस में जा कर चुपचाप लेखक बिरादरी में बैठने लगा था। पूसा इंस्टिट्यूट के भीतर ही किराए के एक कमरे में अपने साथी के साथ रहता था। कभी-कभी इलाहाबाद से प्रसिद्ध लेखक शैलेश मटियानी जी आ जाते थे। हमारे लिए वे जीवन संघर्ष के प्रतीक थे। उनके पास टीन का एक बड़ा और मजबूत बक्सा होता था। जब पहली बार आए तो कहने लगे, “यह केवल बक्सा नहीं है देबेन, इसमें मेरी पूरी गृहस्थी और कार्यालय है। वे मुझे देबेन कहते थे। लत्ते-कपड़े, किताबें, पत्रिका की प्रतियां, लोटा, गिलास, लिखने के लिए पेन, पेंसिल, कागज, चादर, तौलिया, साबुन, तेल, शेविंग का सामान, कंघा, सब कुछ।”
कमरे में आ कर उन्होंने एक ओर दीवाल से सटा कर बक्सा रखा और बोले, “दरी है तुम्हारे पास?” मैंने दरी निकाल कर दी। उन्होंने फर्श पर बीच में दरी बिछाई और बोले, “मैं जमीन का आदमी हूँ। जमीन पर ही आराम मिलता है। इन फोल्डिंग चारपाइयों पर तो मैं सो भी नहीं सकता।” कमरे में इधर-उधर मेरी और मेरे साथी कैलाश पंत की फोल्डिंग चारपाइयां थीं। उन्होंने बक्सा खोला। उसमें से ब्रुश और पेस्ट निकाल कर बु्रश किया। हाथ-मुँह धोया। मेरे पास पंप करके जलने वाला कैरोसीन का पीतल का स्टोव और पैन था। उसमें चाय बनाई। चाय पीते-पीते बोले, “बंबई जाना है। सोचा, दो-चार दिन तुम्हारे पास रुकता चलूं। यहाँ भी लोगों से मिल लूँगा।”
वे जितनी देर कमरे में रहते, किस्से सुनाते रहते। इलाहाबाद के, बंबई के, अपने जीवन के, तमाम किस्से। सुबह जल्दी निकल जाते और लहीम-शहीम शरीर ले कर दिन भर पैदल और बसों-रिक्शों में यहाँ-वहाँ साहित्यकारों, मित्रों से मिलते, अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘विकल्प’ के लिए विज्ञापन जुटाते। इस भाग-दौड़ के बाद थकान से चूर हो कर शाम को लौटते। मुझसे बहुत स्नेह रखते थे। एक दिन थके-थकाए लौटे तो दरी में लेट कर बोले, “देबेन, तू मेरा छोटा भाई है। मेरे पैरों में खड़ा हो कर चल सकता है?”
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