अनमोल आत्मकथा अधूरी छोड़ गए श्रीनारायण चतुर्वेदी
आज (28 दिसंबर) हिन्दी के शीर्ष साहित्यकार, प्रचारक, सर्जक तथा पत्रकार श्रीनारायण चतुर्वेदी का जन्मदिन है। वह आजीवन हिन्दी के लिये समर्पित होने के साथ ही 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादक भी रहे। उन्होंने राष्ट्र को हिन्दीमय बनाने के लिए जनता में भाषा की जीवन्त चेतना को जागृत किया। अपनी अमूल्य हिन्दी सेवा से उन्होंने मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन लक्ष्य को कामयाब ऊंचाई दी...
श्रीनारायण चतुर्वेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद में सन् 1895 में हुआ था। उनके पिता द्वारिका प्रसाद शर्मा चतुर्वेदी अपने समय के संस्कृत भाषा के नामी विद्वान थे। पिता की विद्धता का सीधा प्रभाव श्रीनारायण पर पड़ा और इनकी शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में एमए करने के साथ पूर्ण हुई।
कालान्तर में उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन से शैक्षणिक तकनीकी में उच्च शिक्षा भी ग्रहण की। स्वतंत्रता से पूर्व उन्होंने सन् 1926 से 1930 तक जिनेवा में भारतीय शैक्षिक समिति के प्रमुख के रूप में भाग लिया।
आज हिन्दी के शीर्ष साहित्यकार, प्रचारक, सर्जक तथा पत्रकार श्रीनारायण चतुर्वेदी का जन्मदिन है। वह आजीवन हिन्दी के लिये समर्पित होने के साथ ही 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादक भी रहे। उन्होंने राष्ट्र को हिन्दीमय बनाने के लिए जनता में भाषा की जीवन्त चेतना को जागृत किया। अपनी अमूल्य हिन्दी सेवा से उन्होंने मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन लक्ष्य को कामयाब ऊंचाई दी।
हिंदी के अनन्य सेवी श्रीनारायण चतुर्वेदी का 18 अगस्त, 1990 को जब निधन हुआ तो अगले दिन के अखबार 'स्वतंत्र भारत' में उन्हें इन शब्दों के साथ श्रद्धांजलि दी गई- 'पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी आज सुबह उर्दू की शर शय्या पर से उतर गए। सुबह 8.25 पर। पिछले साल जब उर्दू राजभाषा बनाई गई तभी वह उर्दू की शर शय्या पर चढ़ गए थे। लखटकिया पुरस्कार लतियाने पर भी इस शरशय्या से वह नहीं उतर पाए। उतरे तब जब आज प्राण पखेरू उड़ गए। जनता भारत भारती पुरस्कार भी उन्हें भरोसा न दिला सका और वह सोए ही रहे। और आज सो ही गए।
दरअसल वह मर तो तभी गए थे, जब पिछले साल हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर उर्दू को राजभाषा का दर्जा देने का उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐलान कर दिया था। तब भी वह अस्वस्थ थे। पर विरोध उन्हों ने किया और पुरज़ोर विरोध। हिंदी संस्थान का लखटकिया पुरस्कार जो उन्हें काफी हीलहुज़्ज़त के बाद दिया गया था और पर्याप्त देर से मिला था। उन्हों ने बिना देर किए उसे लात मार दी थी। पुरस्कार को लात मारी और 96 बरस की उम्र की परवाह नहीं की। विरोध जुलूस निकाल दिया।
वह पैदल ठीक से चल नहीं सकते थे। इतना कि लखनऊ में हिंदी संस्थान से जीपीओ तक भी (एक किलोमीटर से भी कम) पैदल नहीं चल सकते थे। पर यथा-संभव वह पैदल भी चले और बाकी कार में। इस चक्कर में उन के कुछ अनुगामियों की बड़ी बुरी दशा मैंने देखी। जब वह पैदल चलने लगते और जब वह कार में बैठते तो सभी कार में उन के अगल-बगल बैठने की ललक में धकियाने-मुकियाने पर उतर जाते थे और ऐसा एकाधिक बार हुआ। पंडित जी अस्वस्थ थे और बुरी तरह यह उन के अनुगामी भी जानते थे। पर बार-बार धकियाने मुकियाने से बाज़ नहीं आए।
कई बार उस गंभीर जुलूस में भी इस कारण हास्य की रचना होती रही। और तब यह समझना कठिन था कि धकियाने-मुकियाने वाले सचमुच चतुर्वेदी जी से इतना प्यार करते हैं और मिठाई पर मक्खी की तरह खिंचे जा रहे हैं या कि वह उन के साथ फ़ोटो खिंचवाने की ललक में उन तक खिंच जा रहे हैं। समझना बड़ा कठिन था, इस लिए भी कि यह चतुर्वेदी जी के साथ भैया जी-भैया जी कह कर जब तक चिपटने वाले अतिरिक्त उत्साही नौजवान नहीं बुर्जुगवार लोग ही थे।'
श्रीनारायण चतुर्वेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद में सन् 1895 में हुआ था। उनके पिता द्वारिका प्रसाद शर्मा चतुर्वेदी अपने समय के संस्कृत भाषा के नामी विद्वान थे। पिता की विद्धता का सीधा प्रभाव श्रीनारायण पर पड़ा और इनकी शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में एमए करने के साथ पूर्ण हुई। कालान्तर में उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन से शैक्षणिक तकनीकी में उच्च शिक्षा भी ग्रहण की। स्वतंत्रता से पूर्व उन्होंने सन् 1926 से 1930 तक जिनेवा में भारतीय शैक्षिक समिति के प्रमुख के रूप में भाग लिया।
ये कई वर्षो तक उत्तर प्रदेश सरकार के शैक्षिक विभाग के भी प्रमुख रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत इन्होंने आल इंन्डिया रेडियो के उप महानिदेशक (भाषा) के रूप में तैनात रहकर हिंदी भाषा विज्ञान के विकास के संबंध में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। परमानंद पांडेय लिखते हैं- 'श्रीनारायण चतुर्वेदी का व्यक्तित्व उनके कृतित्व पर हमेशा भारी रहा। वह हमेशा हिंदी के प्रचारक ही बने रहे। साहित्य सेवा से ज़्यादा उन्हों ने हिंदी सेवा की और कई बार हदें लांघ कर, हदें तोड़ कर वह जय हिंदी करते रहे।
पंडित विद्यानिवास मिश्र कहते हैं कि ‘हम उन के हैं’ यह भाव हमें हिंदी के भाव से भरता है। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी खुद भी कहते थे ‘हम पल्लव हैं। किंतु न हम हीन हैं, न दीन और दयनीय। बिना हमारे वंदनवार असंभव है...।’ तो यह सिर्फ़ वह अपने लिए ही नहीं, हिंदी की अस्मिता के लिए भी कहते थे। पुरुषोत्तम दास टंडन के वह इलाहाबाद में सिर्फ़ पड़ोसी ही नहीं थे। उन के सहयात्री भी थे। जीवन भर वह हिंदी का परचम ही फहराते रहे। हिंदी पर वह इतना ज़्यादा मुखर थे कि वह कट्टर हिंदू भी कहे जाते थे और बाद में तो वह बकायदा जनसंघी बता दिए गए। पर उन्हों ने कभी इस के प्रतिवाद की सोची भी नहीं।
अलग बात है वह नंद किशोर अवस्थी को कुरान शरीफ के अनुवाद में मदद भी करते रहे। क्यों कि वह चाहते थे कि ‘हिंदी के गुलदस्ते में हर प्रकार के हरेक आकार के और हरेक गंध के फूल होने चाहिए।’ तो यह उन का अंतर्विरोध नहीं था कि एक तरफ तो कुरान शरीफ के हिंदी अनुवाद में मदद करें, दूसरी ओर उर्दू के राजभाषा बनाए जाने का विरोध करें। दरअसल इस के पीछे एक सोच थी, एक अंतर्दृष्टि थी। वह कहते भी थे कि मैं उर्दू का विरोधी नहीं हूं, क्यों कि उर्दू भी हिंदी की ही एक शैली है, तो उस का विरोध कैसे कर सकता हूं? पर चूंकि उर्दू को राजभाषा बनाना राजनीतिज्ञों की अल्पसंख्यकों का वोट बटोरने का औजार माना गया है, इस लिए विरोध हुआ और भैया जी ने इस की कमान संभाल ली।
तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी बड़ी शालीनता से श्रीनारायण चतुर्वेदी से उर्दू राजभाषा विरोध का ज्ञापन लेने के लिए इंतज़ार करते रहे। चतुर्वेदी जी पहुंचे तो उन्हों ने उन की इज़्ज़त आफज़ाई की। खड़े हो कर उन से ज्ञापन लिया। उन की बात भी बड़ी विनम्रता से सुनी। पर मानी नहीं। तो यह राजनीतिज्ञों के ही वश की बात थी कि आप बात सुन लें, सही भी बताएं, पर मानें नहीं और मजबूरी बता जाएं। श्रीनारायण चतुर्वेदी की जन्मभूमि इटावा है और तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भी न सिर्फ़ इटावा के, हेलीकॉप्टर ले ले वह बार-बार इटावा जाते ही रहे। बीमार पक्षाघात से पीड़ित पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का देखने क्या, पूछने की भी कभी सुधि नहीं ली उन्होंने। तो क्या सिर्फ़ इस लिए कि वह उर्दू के राजभाषा बनाए जाने का विरोध करते रहे थे और मुलायम उन का हालचाल लेते तो अल्पसंख्यक उन से कुपित हो जाते?'
श्रीनारायण चतुर्वेदी के बहुमुखी व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए पं. विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं कि 'पूज्य भैया साहब (श्रीनारायण चतुर्वेदी जी) में इतने व्यक्तित्व समाये हुये थे कि पारदर्शी सहजता के बावजूद उन्हें समझना आसान नहीं था। एक ओर वे बडे़ विनोदी और चौमुखी स्वाभाविक मस्ती के मूर्तिमान रूप, दूसरी ओर सूक्ष्म से सूक्ष्म व्योरों में जाने वाले चुस्त शासक तथा मर्यादाओं के कठोर अनुशासन को स्वीकार करने वाले, अपने अधीनस्त कर्मचारियों के लिये आतंक, एक ओर काव्य-रसिक, गोष्ठी प्रिय और दूसरी ओर पैनी इतिहास-दृष्टि से घटनाओं की बारीक जाँच करने वाला विश्लेषक।
एक ओर अपने आचार विचार में कठोर, दूसरी ओर अपने बड़े कमरे केा खुली स्वतंत्रता का कमरा (सिविल लिबरटी हॉल) कहते थे, जहां पर खुली छूट थी किसी की भी धज्जी उड़ाई जाय। यह सब मुक्त भाव से हो और भीतर ही भीतर गूँज बनकर रह जाय। किसी आपसी कटुता को जन्म न दे। इस प्रकार अगणित विरोधाभास उनके व्यक्तित्व में थे। पर यह सब उनमें ऐसे रच बस गये थे कि हिंन्दी की कई पीढियों के न बाबा बने, न ताऊ बने, बस भैया साहब बने रहे।'
चतुर्वेदी जी ने अपनी आत्मकथा का लेखन वर्ष 1967 में प्रारंभ किया परन्तु अत्यधिक विस्तार से लिखने के कारण पूरी न कर सके। उनके ज्येष्ठ पुत्र श्रीशैलनाथ चतुर्वेदी ने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा - चतुर्वेदी जी ने 1967 में अपनी आत्मकथा लिखनी आरंभ की। दुर्भाग्यवश दो मोटी कापियाँ भरने के बाद उन्होंने उसका लेखन बंद कर दिया। शायद उसके आकार से यह लगने लगा कि जिस ढंग से वह लिखी जा रही है, उससे उसका कलेवर बहुत बढ़ जाएगां दो कापियों (प्रायः टंकित 150 पृष्ठों) में वे अभी स्कूल भे भरती हो पाए हैं। इस गति से तो आत्मकथा दो हजार पृष्ठों से अधिक की हो जायेगी।
बात यह थी कि चतुर्वेदी जी के लिये आत्मकथा का अर्थ स्वयं केा परिधि में रखकर उस युग के नगर, मोहल्ले, व्यक्ति, घटनाओं का आंखेां देखा हाल प्रस्तुत करना था। इस विवरण में टिप्पणियां जोड़कर उन्होंने उस समय का सर्वांगपूर्ण चित्र उपस्थित कर दिया है। जनेऊ या बारात का वर्णन करते हुये उस समय के सारे रीति रिवाज भी सम्मिलित कर लिये गये हैं। इस द्वष्टि से उनकी आत्मकथा तद्युगीन समाज का व्यापक दस्तावेज है जिसका उपयोग भविष्य में समाजशास्त्री, इतिहासकार आदि भी कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश चतुर्वेदी जी ने आत्मकथा पूरी नहीं की और हिंन्दी वाङग्मय एक अनमोल कृति से वंचित रह गया।
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