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सड़कों पर रिक्शा चलाने वाले हरिकिशन कैसे बन गये एक कामयाब उद्यमी

हरिकिशन ने अपने जीवन में गरीबी के थपेड़े खाए, लेकिन विपरीत परिस्थितियों और बड़ी-बड़ी चुनौतियों के सामने कभी हार नहीं मानी और बन गये एक सफल उद्यमी।

सड़कों पर रिक्शा चलाने वाले हरिकिशन कैसे बन गये एक कामयाब उद्यमी

Tuesday June 13, 2017 , 9 min Read

उद्यमी और कारोबारी हरिकिशन पिप्पल की कामयाबी की कहानी भी आसाधारण है। उनका संघर्ष और उनकी कामयाबी गजब की मिसाल पेश करती है। हरिकिशन ने अपने जीवन में गरीबी के थपेड़े खाये हैं। वे छुआछूत, जातिवादी भेदभाव और शोषण का भी शिकार रहे, लेकिन विपरीत परिस्थितियों व बड़ी-बड़ी चुनौतियों के सामने उन्होंने कभी हार नहीं मानी और कामयाबी की कोशिश में लगातार लगे रहे...

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हरिकिशन पिप्पल को अपने कठोर परिश्रम और हार न मानने के ज़ज्बे की वजह से वो कामयाबी मिली, जिसके वे सही मायने में हकदार थे। उन्होंने संघर्ष और कड़ी मेहनत के बूते कामयाबी की राह पकड़ी और पीछे मुड़कर नहीं देखा। सही कहते हैं, इरादे यदि मबूत हों, हौसले बुलंद हों और ईमानदारी के साथ काम किया जाये तो कामयाबी देरी से ही सही, लेकिन मिलती ज़रूर है।

हरिकिशन पिप्पल ने जिस कंपनी में हेल्पर का काम किया, आगे चलकर उसी कंपनी के साथ उन्होंने कारोबार करना शुरू किया। जीवन में हालात कुछ इस तरह से खराब हुए थे, कि उन्हें रिक्शा चलाने के लिए भी मजबूर होना पड़ा था। कुछ साथियों ने उन्हें धोखा भी दिया, कारोबार में उन्हें घाटा भी झेलना पड़ा, संकट कुछ इतना बढ़ गया था कि उनके मन में ख़ुदकुशी करने के भी ख्याल आने लगे थे, लेकिन किसी तरह हरिकिशन के खुद को संभाला और आगे बढ़े।

बचपन से ही खाए हैं गरीबी के थपेड़े

हरिकिशन पिप्पल के पिता उत्तरप्रदेश के आगरा में जूते बनाने की एक छोटी-सी फैक्टरी चलाते थे। आमदनी ज्यादा थी नहीं। मुश्किल से घर-परिवार का गुज़र-बसर होती थी। पढ़ाई-लिखाई के खर्च के लिए हरिकिशन बचपन में ही मेहनत-मजदूरी करने लगे थे। गर्मी के दिनों में हरिकिशन ने आगरा एयरपोर्ट पर खस की चादरों पर पानी डालने का काम भी किया और इस काम के लिए उन्हें हर महीने 60 रुपये मिलते थे। जब वे दसवीं में थे तब उनके पिताजी बीमार पड़ गये जिससे फैक्टरी का काम बंद हो गया। तबीयत कुछ इस तरह से बिगड़ी कि पिता काम करने की स्थिति में नहीं रहे, इसीलिए घर-परिवार चलाने की जिम्मेदारी हरिकिशन के कंधों पर आ गयी। घरवालों को बताए बिना वे शाम को साइकिल-रिक्शा चलाने लगे जो उनके मामा के बेटे की थी। कोई उन्हें पहचान न ले इस मकसद से वे अपने चेहरे पर कपड़ा लपेटकर साइकिल-रिक्शा चलाया करते थे।

पिता की फैक्ट्री दोबारा शुरु करने के फैसले ने डाली मजबूत नींव

गरीबी के थपेड़े हरिकिशन को तोड़ नहीं पाये, बल्कि इससे उनका हौसला और बढ़ गया। उन्होंने निश्चय किया कि एक दिन वे अपने पिता की फैक्टरी दोबारा शुरू करेंगे। हरिकिशन ने आगरा के जैनसन पिस्टन में मजदूरी का काम भी किया, यहाँ उनकी तनख्वाह प्रतिमाह 80 रुपये थी। इसी बीच हरिकिशन की शादी भी हो गयी। साल 1975 में हरिकिशन पिप्पल ने अपनी पत्नी गीता की सलाह पर पंजाब नेशनल बैंक में लोन का आवेदन दिया जिससे पुश्तैनी व्यवसाय फिर से शुरू किया जा सके। बैंक ने 15 हज़ार का लोन पास कर दिया। कुछ घरेलू समस्याओं के चलते आया हुआ पैसा जाता हुए दिखा, तो पत्नी ने हरिकिशन से लोन की रकम बैंक को वापस करने को कहा, लेकिन वे इरादों के पक्के थे। बड़ी मुश्किल से जो रास्ता दिखा था उसे वे छोड़ नहीं सकते थे। उन्होंने वह पुश्तैनी घर ही छोड़ दिया और आगरा के गांधी नगर में एक कमरा किराये से लेकर अपने कारखाने की नींव रखी।

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पहले कॉन्ट्रैक्ट ने ही दिखा दिया अपना दम-ख़म

किसी तरह भागदौड़ कर उन्हें सरकारी कंपनी स्टेट ट्रेडिंग कार्पोरेशन से 10 हज़ार जोड़ी जूते बनाने का ऑर्डर मिल गया। ये जूते विदेश में निर्यात किए जाने थे। दिन-रात मेहनत कर उन्होंने यह ऑर्डर समय पर पूरा कर लिया। तीन महीनों में ही बैंक ने उनकी क्रेडिट लिमिट बढ़ाकर तीन लाख रुपये तक कर दी। जल्द ही उन्हें अच्छा मुनाफा होने लगा और हेरिक्सन नाम से उनके जूतों का ब्रांड मशहूर हो गया। उनके जूतों के दाम भले ही दूसरी ब्रांड के जूतों से कुछ अधिक थे लेकिन क्वालिटी भी सबसे बेहतर थी।

बाटा से जुड़ने के बाद कामयाबी की राह पर रफ़्तार हुई तेज़

हरिकिशन ने बाटा के लिए भी नॉर्थ स्टार जूते बनाने का काम किया। इसके लिए कंपनी डिज़ाइन और कच्चा माल देती थी और हरिकिशन की कंपनी पीपल्स एक्स्पोर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड ऑर्डर पूरा करके उन्हें सौंपती थी। नब्बे के दशक में बाटा ने अमेरिका के मशहूर ब्रांड हश पपीज़ का जूता भारतीय बाज़ार में लाने का फैसला किया। इसके लिए हश पपीज़ की टीम अमेरिका से आई थी और उम्दा जूते बनाने वाले की खोज में आगरा पहुंची। हरिकिशन पहले से ही बाटा के साथ काम कर चुके थे इसीलिए उन्हें भी सैंपल लेकर बुलाया गया। पहली बार में उन्हें हरिकिशन का बनाया जूता पसंद नहीं आया, लेकिन उन्होंने अगले तीन घंटे में टीम के प्रमुख जॉन बेस्ट के पैर के साइज़ का जूता तैयार करके उन्हें दिखाया। काम बेहतर था और उन्हें कॉन्ट्रैक्ट मिल गया।

हरिकिशन ने कामयाबी की राह पकड़ ली थी लेकिन मुश्किलों का दौर खत्म नहीं हुआ, नयी-नयी चुनौतियां सामने आती ही गयीं। अस्सी दशक के अंतिम सालों में पूर्वी यूरोप में बड़े राजनीतिक परिवर्तन हुए। कम्युनिस्ट देशों में सोवियत रूस टूट गया और पूर्वी तथा पश्चिमी जर्मनी एक हो गए। इसका काफी असर जूतों के कारोबार पर पड़ा क्योंकि इसका अधिकतर व्यापार निर्यात से ही होता था। हरिकिशन को भी कारोबार में घाटा होने लगा। हरिकिशन जल्द ही समझ गए कि जूतों के कारोबार के सहारे वे तरक्की की राह पर नहीं बढ़ सकते हैं और उन्हें ये एहसास हो गया कि दूसरे कारोबार से ही उनकी ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ेगी।

कठिनाइयों के नए दौर में हरिकिशन ने रेस्टोरेंट खोलने का निर्णय लिया, नाम रखा अग्रवाल रेस्टोरेंट। एक दलित का अग्रवाल समाज के नाम से रेस्तरां चलाना अजीब था लेकिन इसका जवाब भी हरिकिशन अपने ही अंदाज़ में देते हैं। उनका कहना होता है कि यदि दूसरे व्यापारी जूते बनाने जैसे उनके पुश्तैनी कारोबार में हाथ डाल सकते हैं तो वे अग्रवाल उपनाम का इस्तेमाल अपने बिज़नेस में क्यों नहीं कर सकते। रेस्टोरेंट अच्छा चल पड़ा और इसी काम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने वहीं ‘मैरिज हाल’ यानी शादीखाना शुरू कर दिया। शादीखाना लोकप्रिय तो हुआ, लेकिन धीरे-धीरे उनका शादीखाना ट्रेंड-सेंटर बन गया और आस-पास और भी मैरिज हॉल खुल गए। इससे हरिकिशन की आय में कमी आने लगी। मैरिज-हॉल का बिज़नेस अधिक न चलता देख दो डॉक्टर हरिकिशन के पास आए और उन्हें प्रस्ताव दिया कि वे मैरिज हॉल की ज़मीन उन्हें अस्पताल खोलने के लिए दे दें। हरिकिशन उन्हें टालते रहे लेकिन वे लोग नहीं माने। आखिर हरिकिशन को उनकी बात माननी पड़ी लेकिन इस शर्त पर कि अस्पताल के लिए वे डॉक्टर एक लाख रुपये किराया देंगे तथा बाकी सारा निवेश हरिकिशन ही करेंगे। मुनाफे में दोनों (हरिकिशन और डॉक्टर) का हिस्सा 50-50 प्रतिशत रहेगा।

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अस्पताल में भारी घाटा, आत्महत्या तक का ख्याल आया था मन में

2001 में हैरिटेज पीपुल्स हॉस्पिटल की स्थापना हुई। इसके लिए हरिकिशन ने बैंक से 4-5 करोड़ रुपये का कर्ज़ लिया लेकिन कॉन्ट्रैक्ट के अनुसार हरिकिशन का हॉस्पिटल के काम में कोई दखल नहीं होता था। इस क्षेत्र में कोई जानकारी न होने के कारण वे काफी नुकसान में रहे, उनका परिवार कर्ज़ में डूब गया। इतना बड़ा घाटा वे सहन करने की स्थिति में नहीं थे। यहाँ तक कि उनके मन में आत्महत्या तक का ख्याल आने लगा। उनके बेटों ने उन्हें हौसला दिया और यह तय हुआ कि अब ये हॉस्पिटल पिप्पल परिवार खुद चलाएगा। दोनों डाक्टरों को हटा दिया गया। बाद में हरिकिशन को अहसास हुआ कि डॉक्टर उन्हें धोखा दे रहे थे।

‘जातिवाद’ ने भी डाले कामयाबी की राह में रोड़े

अस्पताल का प्रबंधन पिप्पल परिवार के हाथों में आ गया, लेकिन चुनौतियां नए सिरे से सामने आकर खड़ी हो गयीं। जातिवाद की सोच ने उनकी राह में रुकावटें खड़ी करनी शुरू कर दीं। कई डॉक्टर अस्पताल आने से कतराने लगे। उन्हें मनाने के लिए पिप्पल परिवार को नई और ख़ास नीति अपनानी पड़ी। पिप्पल परिवार ने डॉक्टरों को ऑपरेशन के लिए एडवांस देना शुरू किया। ये तरकीब कामयाब रही और धीरे-धीरे डॉक्टर और मरीजों को अस्पताल पर भरोसा बढ़ने लगा। जल्द ही अस्पताल लोकप्रिय हो गया। साल 2005 में पिप्पल के अस्पताल ने दिल्ली के एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टीट्यूट से एक करार किया जिसके तहत वहाँ से दिल के मरीजों को एस्कॉर्ट्स भेजा जाएगा।

मीडिया में आयी ख़बरों से पता चलता है कि दलित होने के कारण उनके अस्पताल के प्रतिस्पर्धियों ने उन्हें रास्ते से हटाने के प्रयास भी किए। उनका अस्पताल आगरा में रेलवे के पैनल के तीन अस्पतालों में से एक है, अन्य दोनों अस्पताल ऊँची जाति वालों के हैं। 2010 में कुछ मरीजों ने इलाज को लेकर उनके अस्पताल की रेलवे पैनल में शिकायत कर दी थी जिसके चलते रेलवे ने उऩ्हें पैनल से हटा दिया। पिप्पल ने खुद इसकी जांच-पड़ताल की और पाया कि अन्य अस्पतालों में से एक ने रिश्वत देकर यह झूठी शिकायत दर्ज करवाई थी। हरिकिशन ने अपने कारोबारी जीवन में जूतों का बिज़नेस करने और अस्पताल चलाने के अलावा होंडा की डीलरशिप ली और एक पब्लिकेशन हाउस भी शुरू किया।

हरिकिशन ने नायाब कामयाबी के बाद अपना कारोबार अपने बेटों को सौंप दिया है और खुद समाजसेवा में जुट गए हैं। वे राजनीति के दंगल में भी कूदे। हरिकिशन कहते हैं, कि अपने और अपने परिवार के लिए वे बहुत कुछ कर चुके हैं और अब उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वे समाज के उत्थान के लिए काम करें। उनका मानना है कि नामुमकिन कुछ भी नहीं है, इंसान को अपने अंदर के जूनून और जज़्बे को मरने नहीं देना चाहिए। दूसरों की कामयाबी से जलने की बजाय उनसे प्रेरणा लेने की प्रवृति किसी को भी सफलता के रास्ते पर आगे ले जा सकती है।

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