भारतेंदु की मुकरी में 'क्यों सखि सज्जन, नहिं अँगरेज!'
भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी साहित्य के एक ऐसे दैदिप्यमान नक्षत्र हैं, जिनका नाम एक पूरे युग का प्रतिनिधित्व करता है। हिंदी साहित्य में उसे 'भारतेंदु युग' कहा जाता है। आज (9 सितंबर) भारतेंदु हरिश्चद्र का जयंती दिवस है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र पंद्रह वर्ष की उम्र आते-आते तक साहित्य में रम गए और अठारह वर्ष में ही 'कवि वचन-सुधा' नाम की पत्रिका निकालने लगे।
जब कोई साहित्यकार किसी युग का प्रतिनिधि होता है, तो अवश्य ही उसका रचना संसार इतना विराट होता है कि अनायास ये पंक्तियां फूट पड़ती है- 'होनहार विरवान के होत चीकने पात।' भारतेंदु की अद्भुत प्रतिभा तो, बचपन में ही माता-पिता का देहावसान हो जाने पर, घर पर ही स्वाध्याय से हिंदी, मराठी, बंगला, उर्दू, अंग्रेज़ी भाषाओं में निपुण हो लेने के रूप में सामने आ गई थी। उनको साहित्य भी, काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में पिता से विरासत में मिला तो उन्होंने पांच वर्ष की उम्र में यह दोहा लिखकर परिजनों को चमत्कृत-सा कर दिया:
लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुध्द सुजान।
वाणा सुर की सेन को हनन लगे भगवान।।
पंद्रह वर्ष की उम्र आते-आते वह साहित्य में रम गए और अठारह वर्ष में ही 'कवि वचन-सुधा' नाम की पत्रिका निकालने लगे। वह सिर्फ कवि ही नहीं, नाटक, निबन्ध, उपन्यास, इतिहास, व्याख्यान लेखन में भी सिद्धहस्त थे। उन्हें गरीब नवाज के रूप में भी याद किया जाता है। साहित्यिक मित्रों ही नहीं, दीन-दुखी, जो भी उनके पास पहुंच जाए, खाली हाथ नहीं लौटता था। यही वजह थी कि एक समय ऐसा आया, जब वह स्वयं कर्ज में डूब गए और पैंतीस वर्ष की अल्पायु में ही चल बसे, लेकिन इतनी कम उम्र में ही वह इतना लिख-पढ़ गए कि उनके विराट सृजन पर किसी को भी हैरत हो सकती है। उनकी 'ग्रंथों में दान-लीला', 'प्रेम तरंग', 'प्रेम प्रलाप', 'कृष्ण चरित्र', 'सतसई श्रृंगार', 'होली मधु मुकुल', 'भारत वीरत्व', 'विजय-बैजयंती', 'सुमनांजलि', 'बंदर-सभा', 'बकरी का विलाप', 'अंधेर नगरी चौपट राजा' आदि कृतियां मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं।
भारतेंदु ने अपनी रचनाओं में एक ओर जहां सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई, वहीं अंग्रेजी शासन की मुखालफत में भी पुरजोर ढंग से मुखर रहे:
भीतर भीतर सब रस चूसै, हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै।
जाहिर बातन मैं अति तेज, क्यों सखि सज्जन, नहिं अँगरेज।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की अनेक पंक्तियां तो कहावतों, मुहावरों की तरह लोक जीवन में प्रचलित हो गईं। सृजन में ताजे भाव, भाषा, शैली के नाते वह हिंदी नवजागरण के पुरोधा बने। हिंदी भाषा की उन्नति उनका मूलमंत्र था - 'निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।' लोक-प्रचलित पहेलियों का एक काव्य-रूप है मुकरी। भारतेंदु जी की मुकरी लोक जीवन में खूब प्रचलित हुईं। मुकरी एक बहुविकल्पी शब्द है, जिसका लक्ष्य मनोरंजन के साथ-साथ बुद्धिचातुरी की परीक्षा भी होता है। यद्यपि इस रचना-विधा की उपस्थिति अमीर खुसरो से मानी जाती है। खुसरो ने ही इस लोक काव्य-रूप को साहित्यिक बाना दिया। इसी को ‘कह-मुकरी’ भी कहते हैं-
'सगरि रैन वह मो संग जागा, भोर भई तब बिछुरन लागा।
वाके बिछरत फाटे हिया, क्यों सखि साजन ना सखि दिया।'
जब 'हरिश्चन्द्र चंद्रिका' में प्रकाशित होने के साथ ही 1884 में भारतेंदु हरिश्चंद्र की 'नये जमाने की मुकरी' पाठकों तक पहुंची तो चारो ओर वाह-वाह हो उठा। उनकी मुकरियों को नए जमाने का इसलिए कहा गया कि उन्होंने अपने शब्दों में अपने औपनिवेशिक अंग्रेज शासित वक्त का, भारत की दुर्दशा का चित्र खींचा। अपनी इस विधा की रचनाओं में उन्होंने बेरोजगारी, रेल, चुंगी, पुलिस, कानून, शोषण, अखबार, जहाज, शराब, खिताब, छापाखाना जैसे गोरे शासन के इन विषयों पर तीखे व्यंग्य के साथ संधान किया।
रेल पर उनकी मुकरी की पंक्तियां-
सीटी देकर पास बुलावै, रुपया ले तो निकट बिठावै।
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल, क्यों सखि सज्जन नहिं सखि रेल।
भारतेन्दु अपनी मुकरियों में अंग्रेजों की नस्लीय सोच की कुरूपता को साफ-साफ रेखांकित करते थे। उनकी मुकरी पढ़ते हुए आज भी उसकी वक्त की ताजगी जैसे साकार हो उठती है। अंग्रेज अपनी नस्ल को हिंदवासियों से श्रेष्ठ दिखाने का क्रूर स्वांग करते थे। अपनी भाषा के प्रति उनका घनघोर दुराग्रह होता था। वह अंग्रेजी के ग्रंथों को हिंदी से श्रेष्ठ बताते थे। वे शासक के रूप में दिखाते थे कि उनकी भाषा शासकों की भाषा है और हिंदुस्तानियों की भाषा गुलामों की। भारतेंदु ने उनकी ऐंठन पर कुछ इस तरह प्रहार किए:
सब गुरुजन को बुरो बतावै, अपनी खिचड़ी अलग पकावै।
भीतर तत्व न झूठी तेजी, क्यों सखि साजन, नहिं अँगरेजी।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की मुकरियों में उस दौर के कुछ और चित्र, जो आज भी पढ़ते समय अंग्रेजी राज की दुर्दशादायी वास्तविकताओं को जीवंत कर देते हैं:
रूप दिखावत सरबस लूटै, फंदे मैं जो पड़ै न छूटै।
कपट कटारी जिय मैं हुलिस, क्यों सखि साजन, नहिं सखि पुलिस।
नई नई नित तान सुनावै, अपने जाल मैं जगत फँसावै।
नित नित हमैं करै बल-सून, क्यों सखि साजन, नहिं कानून।
तीन बुलाए तेरह आवैं, निज निज बिपता रोइ सुनावैं।
आँखौ फूटे भरा न पेट, क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट।
मुँह जब लागै तब नहिं छूटै, जाति-मान-धन सब कुछ लूटै।
पागल करि मोहिं करे खराब, क्यों सखि सज्जन नहिं सराब।
एक गरभ मैं सौ सौ पूत, जनमावै ऐसा मजबूत।
करै खटाखट काम सयाना, सखि सज्जन नहिं छापाखाना।
यह भी पढ़ें: साहित्य की चोरी पर लगाम लगाएगा 'रेग्यूलेशन 2017'