स्ट्रेस को दें मात
ज़िंदगी जितनी आसान होती जा रही है, उतनी स्ट्रेसफुल भी। स्ट्रेस अच्छा है यदि सितार के तारों से निकले, लेकिन यदि स्ट्रेस शरीर के तारों को परेशान करने लगे तो जीवन पीछे छूटने लगता है। आजकल के लाईफस्टाइल में स्ट्रेस किस हद तक इंसान पर हावि होता जा रहा है, उसे जानने के लिए तीन अवस्थाओं की पड़ताल बेहद आवश्यक है, बचपन, किशोर और युवा अवस्था, क्योंकि इन तीनों अवस्थाओं को पार करते हुए ही स्ट्रेस जीवन, परिवार और समाज में दाखिल होता है।
"तनाव वह है, जो इंसान सोचता है कि मुझे होना चाहिए था और रिलेक्सेशन या विश्रांति वह है जो आप स्वयं हैं"
"ज़िंदगी में दुख, परेशानियां और कमियां होनीं चाहिए, क्योंकि इनके होने से इंसान लड़ कर आगे बढ़ना सीखता है, लेकिन ज़िंदगी में तनाव का होना बिल्कुल भी अच्छा नहीं और जब ये तनाव लगातार बना रहने लगे तो इसे मात देना सबसे ज्यादा ज़रूरी हो जाता है।"
स्ट्रेस की शुरूआत (5 से 10 की उम्र):
5 से 10 वर्ष की उम्र जेट स्पीड से भाग रही है। आज की दुनिया में तनाव के बीज इसी उम्र से पड़ने लगते हैं। एक जीता-जागता उदाहरण देखिये, पूणे में रहने वाली दो बच्चों की मां 37 वर्षीय राधिका चटर्जी स्वीकार करती हैं, कि बच्चों को स्ट्रेस कोई और नहीं बल्कि पेरेंट्स ही देते हैं। वे कहती हैं, उनका छोटा बेटा उनके बड़े बेटे से ज्यादा तेज़ है, लेकिन कुछ समय से इतना शांत हो गया है कि समझ नहीं आता क्या किया जाये। पढ़ाई का बोझ दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। कॉम्पटिशन का ज़माना है, ऐसे में बचपन तनाव की भेंट चढ़ रहा है। 45 वर्षीय स्कूल टीचर शालिनी सिंह कहती हैं, कि पेरेंट्स की बच्चों से उम्मीदें बढ़ रही हैं और टीचर्स की जिम्मेदारियों में हर दिन कुछ न कुछ नया इजाफा हो रहा है, तो ऐसे में तनाव बढ़ना स्वाभाविक है। बच्चों की आत्महत्याएं भी दिल दहला देती हैं, जब कहीं सुनने या पढ़ने को मिल जाता है कि 14 साल के बच्चे ने छत से कूद कर जान दे दी या फिर 16 साल की लड़की ने फांसी लगा ली।
बच्चों में तनाव के लक्षण:
बढ़ती ज़िद, ठीक से खाना नहीं, बुरे सपने, बिस्तर गीला करना, हर बात में ना कहना, बहुत रोना और बड़ों को मारना पेट दर्द या किसी बीमारी का बहाना बनाना आदि।
गुड़गांव की शिशु रोग विशेषज्ञ शगुना महाजन कहती हैं, कि इस उम्र में पेरेंट्स पर दोहरी जिम्मेदारी होती है। इसलिए ज़रूरी है कि वे बच्चों को सट्रांग फैमिली यूनिट दें। उनके खान-पान पर पूरा ध्यान दें। एक्सरसाइज़ और लंबी वॉक पर जाने को प्रेरित करें और वॉक के दौरान उनसे ढेर सारी बातें करें।
कॉम्पटिशन की मार (10 से 15 की उम्र):
10 से 15 वर्ष की उम्र अब अपनी जड़ें ज़माने और कम्पीट करने की उम्र बन गई है। हालात ऐसे हैं कि मध्यम वर्ग और एलीट क्लास में एक बच्चे के लिए 11 की उम्र से यह फैसला होने लगता है, कि उसे जीवन में क्या और किस तरह बनना है। आठवीं और दसवीं बोर्ड के एग्जाम भी इसी उम्र के दौरान होते हैं। कहा जा सकता है कि इस उम्र में ही तय हो जाता है कि कौन-सा बच्चा कितना तनाव झेल सकता है। 3 इडीयट्स जैसी फिल्में इंसान का मन बदलने की तो कोशिश करती हैं, लेकिन हमारी समाजिक संरचना उस पूरी कोशिश पर पानी फेर देती है। होता वही है जो माता-पिता चाहते हैं। चंडिगढ़ में रहने वाला 13 साल का सौरभ कहता है, कि मेरे मम्मी-पापा ने मेरे लिए सबकुछ पहले से सोच रखा है और अब मुझे वैसा ही करना है, जैसा कि वो चाहते हैं। दूसरी ओर उसकी मां पूनम गुप्ता कहती हैं, कि 'बच्चा अभी से मेहनत नहीं करेगा तो बेस कैसे मजबूत होगा। उसे बहुत आगे जाना है और हमारी उससे उम्मीदें जुड़ी हैं। तनाव है तो क्या हुआ, उसके सारे दोस्त तो इसी माहौल में इसी तरह पढ़ाई करते हैं। हमें कोई इस तरह समझाने वाला नहीं था, तो अब लगता है कि काश हमारे मां-पिता भी हम पर इसी तरह डंडा लेकर खड़े रहते तो शायद अपने पति की तरह मैं भी आज किसी बैंक में मैनेजर होती।'
सचमुच बहुत मुश्किल है, लेकिन यही उम्र सबसे ज़रूरी भी है, क्योंकि तनाव कम होगा या बढ़ेगा यह इसी दौरान तय होता है।
तनाव के लक्षण:
बात-बात पर बहस करना, गुस्से में उल्टे-सीधे जवाब देना, डर दिखाना, सेहत खराब रहना, बहुत ज्यादा टीवी देखना, अकेलेपन को पसंद करना आदि।
फ्यूचर की टेंशन (15 से 20 की उम्र):
आज के समय की बात करें तो जीवन को दिशा देने की अवस्था 20 साल की उम्र से नीचे आ गई है। बच्चों ने जो सीखा, किशोर ने जो गुना उसे इस उम्र में रिज़ल्ट के रूप में देखने का समय है। तनाव भरे दर्जनों कॉम्पटिशन, एग्ज़ाम्स, टेस्ट और एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ इस उम्र का कड़वा सच हैं। इस उम्र तक आते आते तनाव इस स्तर तक बढ़ जाता है, कि तनाव है भी या नहीं इसकी पहचान मुश्किल हो जाती है। लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने की दौड़ में शरीर ही नहीं पूरा अस्तित्व ही दांव पर लग जाता है, या फिर देखा जाये तो इस उम्र के बच्चों को अपने तनावों के साथ ही जीने की आदत हो जाती है। वो अपनी ही किसी दुनिया में सोचता हुआ मिलेगा। इस सच को उगलते बैंगलोर के इंजीनियरिंग छात्र सिद्धार्थ कहते हैं, कि मैं अक्सर खुद को घिरा हुआ पाता हूं, हालांकि मेरे बहुत से दोस्तों के लिए यह मस्ती मारने का टाइम है, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अच्छे ग्रेड्स नहीं मिलेंगे तो जॉब प्लेसमेंट नहीं होगा। मेरी सोशल लाइफ वर्चुअल है, लेकिन अब मुझे उसमें ही जीने की आदत हो गई है।
तनाव के लक्षण:
गुमसुम और चुप रहना, अपने कमरे में पड़े रहना. हर बात में चिड़चिड़ाना, आलसी हो जाना, छुप कर नशा करना, रातों रात जगना, दोस्तों को ही सबकुछ मानना और परिवार के लोगों की बातों को पूरी तरह से नकार देना।
बच्चों की तीनों अवस्थाओं पर नज़र डालकर यह बात अच्छे से समझ आती है, कि उम्र कितनी नाज़ुक चीज़ है, इसलिए पेरेंट्स की जिम्मेदारी बनती है, कि बच्चों की उम्र को संभाल कर खर्चें। बच्चा यदि 5 से 20 साल के दौर से गुज़र रहा है तो ऐसे में पेरेंट्स की भूमिका सबसे अहम हो जाती है। वे बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार करें। उनकी हर बात को सुनें और उन्हें समझने की कोशिश करें। अपने सपने अपनी ज़रूरतें उन पर न थोपें। हर छोटी बड़ी उपलब्धि के लिए उनका उत्साहवर्धन करें। बच्चों को चाहिए कि वे रेगुलर व्यायाम करें, खान-पान सुधारें और स्ट्रेस में सुंदर/सॉफ्ट संगीत सुनें।