“सफलता के लिए ज़रूरी है खुद को जानना”
(यह लेख आशुतोष द्वारा लिखा गया है। आशुतोष दो दशकों से ज्यादा समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहे और हिन्दी के तमाम बड़े न्यूज़ चैनल में बड़े पदों पर कार्यरत रहे हैं। अब आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ प्रवक्ता हैं। यह लेख मूलत: अग्रेजी में लिखा गया है।)
सफलता क्या है? हर किसी की सफलता की परिभाषा दूसरों से भिन्न है। इसलिए हर किसी की सफलता की व्याख्या अलग होती है। कुछ के लिए यह मन की एक अवस्था है, कुछ के लिए भौतिक सुख, तो कुछ के लिए एक निश्चित पद को पाना और कुछ के लिए समाज में कुछ बड़ा कर नाम और शोहरत पाना। मेरे विचार से सफलता कभी पूर्ण नहीं होती है बल्कि यह सापेक्ष होती है। यह सिर्फ एक अल्पविराम है, पूर्णविराम नहीं। यह अंत न होकर जीवन की यात्रा का सिर्फ एक मोड़ है। इससे कभी संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। असल में सफलता हमेशा बेहतर करने और आगे बढ़ने का संदेश देती है। मुझे अपने जीवन में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला है जो अपनी सफलता से संतुष्ट हो, चाहे वह शीर्ष राजनीतिज्ञ या नामचीन व्यक्ति हो या एक सफल खिलाड़ी हो। मैंने हमेशा इन सभी को दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए ही पाया है और दूसरों की सफलता को देखते हुए एक व्यक्ति अपनी सफलता का आनंद ही नहीं ले पाता।
मैं आपको अपना ही उदाहरण देकर बताता हूँ। मैंने अपना करियर 1500 रुपये प्रतिमाह पाने वाले एक ट्रेनी रिपोर्टर के रूप में शुरू किया था। जबकि मेरे स्कूल और कॉलेज के कई मित्र डॉक्टर बन गए, कुछ नौकरशाह बन गए, कई पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी का हिस्सा बन गए तो कुछ अन्य सेवाओं में उच्च पदों पर तैनाती पा गए। ऐसे में मैंने अपने लिये पत्रकारिता को चुना। प्रारंभिक दिनों में मैं अपने काम को करते हुए बहुत गर्व की अनुभूति करता था लेकिन कई बार ऐसा समय भी आता था जब मैं दूसरों से ईर्ष्या करता और हुए खुद को पत्रकारिता के पेशे से जुड़ने के लिए कोसने लगता। पर मैं तब भी लेखन से बहुत प्रेम करता था और अब भी करता हूँ। उन दिनों बेझिझक और निडर होकर सबसे महान और शक्तिशाली व्यक्तियों की आलोचना करने की स्वतंत्रता मेरे लिए सबसे बड़ी बात थी।
हालांकि कई अवसरों पर मैं भी औरों की तरह विशेषाधिकार लेने के लिए तसरता था और अपने कुछ मित्रों की तरह अतिरिक्त लाभ लेने की कामना भी रखता था पर बाद मे मैं अपने इस विचार के लिए शर्मिंदा भी महसूस करता था। इन्हीं विचारों ने मुझे शिक्षा दी और सिखाया कि दुनिया में कोई भी अपने काम से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है और एक सपने को पालना और उसे पूरा करने के प्रयास करने से बेहतर कुछ भी नहीं है। करीब दो दशक बाद जब मैंने विश्व कप जीतने के बाद सचिन तेंदुलकर को यह कहते हुए सुना कि ‘हर किसी के जीवन में एक सपना होना चाहिये और उसे उसका पीछा करते रहना चाहिए’ तो मुझे ऐसा लगा कि मैं अपने पुराने समय में वापस चला गया हूँ।
निःसंदेह सचिन दुनिया के सबसे महान क्रिकेटर हैं और अगर कोई उनसे पूछे कि क्या वे अपनी सफलता से संतुष्ट हैं तो शायद उनसे भी आपको नकारात्मक जवाब ही सुनने को मिलेगा। उन्हें क्रिकेट की दुनिया का भगवान माना जाता है लेकिन उन्हें भी पता था कि वे संपूर्ण नहीं हैं और उनमें भी कई कमियां हैं। भले ही वे सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज थे पर टेस्ट मैचों की दूसरी पारी में, विशेषकर एक बड़े स्कोर का पीछा करते हुए उनका रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं रहा। उनपर दबाव में बिखरकर अपना विकेट प्रतिद्वंदी टीम को तोहफे में देने का आरोप भी कई बार लगा। बहुत अधिक दबाव वाली स्थितियों में खेलने के मामले में वीवीएस लक्ष्मण को उनके बेहतर खिलाड़ी माना जाता है। इसके अलावा सचिन एक कप्तान के रूप में उतने सफल नहीं रह सके जितनी उनसे उम्मीद थी। उन्हें बहुत कम उम्र में राष्ट्रीय टीम की कमान सौंप दी गई लेकिन वे कभी सौरव गांगुली की तरह प्रेरणादायी कप्तान नहीं रहे। एक कप्तान के रूप में उनका कार्यकाल बेहद निराशाजनक रहा। उनके करियर में एक ऐसा समय भी आया जब उन्हें कप्तानी और अपनी बल्लेबाजी पर ध्यान केंद्रित करने में से किसी एक को चुनना था। उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनी और बल्लेबाजी को कप्तानी के मुकाबले प्राथमिकता दी लेकिन एक कप्तान के रूप में असफल रहने की टीस हमेशा उसे सालती रहती है।
वह एक असाधारण प्रतिभा के धनी व्यक्ति हैं और उन्हें बहुत छोटी उम्र में इस बात का अहसास हो गया था कि सफल होने के लिये व्यक्ति को जीवन की कई अच्छी चीजों का बलिदान करना पड़ता है और उन्हें अपने जीवन का उद्देश्य मिल गया। वह महानतमों से भी महानतम बनने के प्रयासों में लग गया। लेकिन यह सफर इतना आसान नहीं था। सचिन सिर्फ सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज होने की वजह से ही महानतम की श्रेणी में शामिल नहीं हुए हैं बल्कि वे अपनी ताकत और कमजोरियों को सावधानीपूर्वक किए गए विश्लेषण की वजह से इस श्रेणी में जगह बनाने में कामयाब हुए हैं। जिस क्षण उन्हें यह महसूस हुआ कि वे टीम का नेतृत्व करने में नाकामयाब हो रहे हैं और कप्तानी उनके सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज बनने के प्रयास में बाधा डाल रही है, उन्होंने कप्तानी छोड़कर बल्लेबाजी को चुना और दूसरों की कप्तानी में खेलने के लिये तुरंत तैयार हो गए और यहीं से एक खिलाड़ी के रूप में उनका जीवन बदल गया। उनके बचपन के दोस्त विनोद कांबली भी सचिन की तरह ही विशेष प्रतिभा के धनी थे लेकिन उन्होंने अपने करियर को लेकर कोई योजना तैयार नहीं की। उन्होंने कभी आत्मविश्लेषण नहीं किया और न ही अपनी प्रतिभा के साथ न्याय किया। प्रतिभा के धनी होने के बावजूद वे अपने दोस्त सचिन की तरह जीवन की उन ऊँचाईयों को नहीं पा सके जो उन्होंने अपने कप्तानी के बाद के जीवन में प्राप्त की और जिनके वे हकदार थे।
जिन लोगों ने 80 के दशक में गुंडप्पा विश्वनाथ को बल्लेबाजी करते देखा था वे उनकी कलात्मकता की कसमें खाते नहीं थकते थे लेकिन उनके मित्र और रिश्तेदार सुनील गावस्कर उनसे कहीं अधिक सफल रहे। इसका एक साफ कारण था। गावस्कर का जीवन में एक स्पष्ट उद्देश्य था और वह अधिक संयोजित थे। मैं मानता हूँ कि विश्वनाथ को और अधिक एहतियाती और एक अलग सोच वाला होना चाहिये था।
जब भी मैं युवाओं से मिलता हूँ तो वो मुझसे सफल होने के तरीकों के बारे में पूछते हैं। मैं हमेशा उनसे जीवन में एक उद्देश्य खोजने के लिये कहता हूँ और खुद को पहचानकर उसी के अनुसार अपना करियर चुनने की राय देता हूँ। कभी भी दूसरों को देखकर अपने जीवन के बारे में निर्णय न लो। आप खुद तय करो और अपने प्रति ईमानदार रहते हुए कभी खुद को धोखा देने का प्रयास मत करो। क्रिकेट के खेल में अगर कोई बल्लेबाजी के लिये अनुकूल है तो वह क्यों एक गेंदबाज बनने पर जोर दे? मैंने योजना के अभाव में कई अच्छी प्रतिभाओं को बीच भंवर में भटकते हुए देखा है क्योंकि वे अपनी प्रतिभा को पहचान नहीं सके और उसके साथ न्याय नहीं कर पाए। वे खुद को भूलकर दूसरों के साथ स्पर्धा में लग गए। मेरा भी ऐसा ही एक मित्र था जो शायद पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझसे अधिक प्रतिभाशाली था।
आज वो कहीं नहीं है क्योंकि उसके जीवन में कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं था। वह, हम कुछ दोस्तों में से पहला था जिसे अवसर मिला था लेकिन वह, इसे भुनाने में नाकामयाब रहा। वह अपनी गलतियों को स्वीकार करने को तैयार नहीं था और साथ ही वह कभी यह स्वीकार करने को भी तैयार नहीं था कि कुछ ऐसी चीजें हैं जो, दूसरे उससे बेहतर कर सकते हैं। उसने हमेशा दूसरों की नकल करने की कोशिश की। लेकिन एक समय ऐसा आया जब वह अपनी खुद की पहचान ही भूल गया और मौलिकता को खोकर दूसरों की नकल के लायक भी नहीं रहा और पत्रकारिता की दुनिया से उसका नाम ही खत्म हो गया। इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि वह अब भी अपनी विफलताओं के लिये खुद को दोषी नहीं मानता है और उसने अपनी विफलताओं और दूसरों की सफलताओं के लिए कुछ षड्यंत्रों और बहानों को इजाद कर लिया है। इस तरह से वह खुद को धोखा ही दे रहा है। वह स्वयं के प्रति ईमानदार नहीं है। 20वीं सदी के प्रारम्भ की एक मशहूर रूसी बैले नर्तकी अन्ना पावलोवा ने कभी कितना सही कहा था कि,
‘‘जैसे कला की सभी शाखाओं में सफलता बहुत हद तक व्यक्तिगत पहल और सही कोशिश पर निर्भर करती है। इसे सिर्फ कड़ी मेहनत के बल पर हासिल नहीं किया जा सकता।’’
आखिर में क्या मैं दोबारा पूछ सकता हूं-सफलता का मतलब क्या है? क्या यह कठिन परिश्रम है या व्यक्तिगत पहल है? या यह असाधारण प्रतिभा है? करियर के चरम पर एक आकर्षक नौकरी छोड़ने के बाद मैं निश्चिंतता के साथ कह सकता हूँ कि सफलता कुछ और नहीं बल्कि संपूर्णता की एक भावना है। यह एक ऐसी मरीचिका है जिसका हम सब पीछा तो करते हैं लेकिन पाने में नाकामयाब रहते हैं क्योंकि हम खुद से स्पर्धा करने की जगह दूसरों के साथ स्पर्धा में अपना वक्त और ऊर्जा लगाते हैं। सही मायनों में सफल होने के लिये पहले हम खुद को पहचानें और फिर अपनी अंतरात्मा के साथ स्पर्धा करें।