ठन गई, मौत से ठन गई, चिर निद्रा में लीन हुए अटल जी
अटल बिहारी वाजपेयी पर विशेष...
कितने लंबे वक्त से उनकी मौत से ठनी हुई थी। देश की सियासत में नेहरू के जमाने से सक्रिय अटल बिहारी वाजपेयी ने बुधवार की शाम एम्स दिल्ली में आखिरी सांस ली। वह जितने प्रखर पत्रकार और कुशल राजनेता रहे, उतने ही ख्यात कवि भी।
वह प्रखर एक वक्ता और पत्रकार होने के साथ ही कवि के रूप में भी प्रख्यात रहे। एक कविता तो उन्होंने पाकिस्तान को ललकारते हुए लिखी, जो काफी लोकप्रिय हुई। इस कविता में उन्होंने पाकिस्तान की हरकतों और उसे समर्थन देने वाले देशों पर प्रहार किया।
कवि हृदय राजनेता एवं हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बुधवार की शाम पांच बजकर पांच मिनट पर अंतिम सांस ली। अटल जी की जितनी प्रतिष्ठा सियासत में रही, उतनी ही साहित्य में भी। वह कहते थे कि 'साहित्य और राजनीति के कोई अलग-अलग खाने नहीं हैं। जो राजनीति में रुचि लेता है, वह साहित्य के लिए समय नहीं निकाल पाता और साहित्यकार राजनीति के लिए समय नहीं दे पाता किंतु कुछ ऐसे लोग हैं, जो दोनों के लिए समय देते हैं। वे अभिनंदनीय हैं। जब कोई साहित्यकार राजनीति करेगा तो वह अधिक परिष्कृत होगी। यदि राजनेता की पृष्ठभूमि साहित्यिक है तो वह मानवीय संवेदनाओं को नकार नहीं सकता। कहीं कोई कवि यदि डिक्टेटर बन जाए तो वह निर्दोषों के खून से अपने हाथ नहीं रंगेगा।
आज राजनीति के लोग साहित्य, संगीत, कला आदि से दूर रहते हैं। इसी से उनमें मानवीय संवेदना का स्रोत सूख-सा गया है। अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए कम्युनिस्ट अधिनायकवादियों ने ललित कलाओं का उपयोग किया। राजनीति और साहित्य को यदि संतुलित रखा जाए तो अच्छा होगा। एक साहित्यकार का हृदय दया, क्षमा, करुणा और प्रेम आदि से आपूरित रहता है। इसलिए वह खून को होली नहीं खेल सकता।' वह प्रखर एक वक्ता और पत्रकार होने के साथ ही कवि के रूप में भी प्रख्यात रहे। एक कविता तो उन्होंने पाकिस्तान को ललकारते हुए लिखी, जो काफी लोकप्रिय हुई। इस कविता में उन्होंने पाकिस्तान की हरकतों और उसे समर्थन देने वाले देशों पर प्रहार किया -
एक नहीं, दो नहीं, करो बीसों समझौते,
पर स्वतंत्रता भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।
अगणित बलिदानो से अर्जित यह स्वतंत्रता,
अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता
त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतंत्रता,
दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतन्त्रता।
इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो,
चिंगारी का खेल बुरा होता है।
औरों के घर आग लगाने का जो सपना,
वो अपने ही घर में सदा खरा होता है।
अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो,
अपने पैरों आप कुल्हाड़ी नहीं चलाओ।
ओ नादान पड़ोसी अपनी आंखे खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।
पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है?
तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई।
अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं,
माँ को खंडित करते तुमको लाज ना आई ?
अमेरिकी शस्त्रों से अपनी आजादी को
दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो।
दस-बीस अरब डालर लेकर आने वाली
बरबादी से तुम बच लोगे यह मत समझो।
धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से
कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो।
हमलों से, अत्याचारों से, संहारों से
भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो।
जब तक गंगा में धार, सिंधु में ज्वार,
अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष,
स्वातंत्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे
अगणित जीवन यौवन अशेष।
अमेरिका क्या, संसार भले ही हो विरुद्ध,
कश्मीर पर भारत का सर नहीं झुकेगा
एक नहीं, दो नहीं, करो बीसों समझौते,
पर स्वतंत्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा।
अटल जी जब मंचों से भाषण देते थे, श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते। इसका एक खास कारण था। सियासत जैसे शुष्क विषय पर उनका भाषण इतना कवित्व पूर्ण होता था कि ठहाके और तालियां जैसे आपस में प्रतिस्पर्द्धा कर रही हों। कड़ाके की सर्दी हो या बूंदाबांदी, आसमान से जेठ की आग बरस रही हो और किसी तरह का प्राकृतिक व्यवधान, हज़ारों हज़ार की भीड़ सम्मोहन की तरह उन तक खिंची चली आती थी। एक बार तो तत्कालीन सरकार ने उन्हें रैली में जाने से रोकने के लिए दूरदर्शन पर उस जमाने की सुपर हिट फ़िल्म 'बॉबी' के प्रसारण का सहारा लिया लेकिन उसका भी लोगों पर कोई असर नहीं दिखा।
पूर्व लोकसभा अध्यक्ष अनंतशयनम अयंगार ने एक बार कहा था कि लोकसभा में अंग्रेज़ी में हीरेन मुखर्जी और हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी से अच्छा कोई वक्ता नहीं है। अटल जी सदन में जो भी मुद्दे उठाते थे, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू उसे बड़े गौर से सुना करते थे। अपनी पुस्तक 'अटलबिहारी वाजपेयी- ए मैन फ़ॉर ऑल सीज़न' में किंगशुक नाग लिखते हैं- 'एक बार नेहरू जी ने भारत यात्रा पर आए ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वाजपेयी जी को मिलवाते हुए कहा था - इनसे मिलिए। ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं। हमेशा मेरी आलोचना करते हैं, लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूँ।' राजनीतिक विरोधी भी उनका सम्मान करते थे। वह अक्सर अपने दिल की बात कविताओं के माध्यम से व्यक्त करते थे -
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं,
टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
लगी कुछ ऐसी नज़र, बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
पीठ में छुरी सा चाँद, राहु गया रेख फाँद,
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बंध जाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
अटल जी सन् 1977 में जब विदेश मंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभालने साउथ ब्लॉक स्थित दफ्तर पहुंचे, दीवार पर से जवाहर लाल नेहरू का चित्र ग़ायब था। उन्होंने तुरंत अपने सचिव को तलब कर लिया। पूछा कि नेहरू जी का चित्र कहां है, जो यहां लगा रहता था। अधिकारी सकपका गए। उन्होंने आदेश दिया कि तुरंत वह चित्र यहां लगाया जाए। अपने विदेश मंत्रित्व काल में उन्होंने नेहरू की विदेश नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। भाषण देने में उन्हे पहले से कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती थी लेकिन संसद-सत्र के दौरान वह पुस्तकालय से पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं मंगवाकर देर रात तक सदन के लिए पहले से तैयारी करते थे। न तो संसद में, न लाल किले की प्राचीर से वह कभी भी अपने सम्बोधन में कोई चूक करना चाहते थे। विदेश मंत्री के रूप में जब वह 1978 में पाकिस्तान गए तो उन्होंने भाषण शुद्ध उर्दू में दिया।
शुरू में वह शाकाहारी थे। बाद के दिनो में वह मांसाहारी हो गए थे। उन्हें चाइनीज़ खाने का विशेष शौक रहता था। अटल जी कहते थे कि 'वर्तमान में ऐसे साहित्य की जरूरत है, जो सच्चे कर्तव्य-बोध को जगाए। साहित्यकार को सर्वप्रथम अपने प्रति सच्चा होना चाहिए, बाद में उसे समाज के प्रति अपने दायित्व का सही अर्थों में निर्वाह करना चाहिए। वह अपने तई प्रमाणिक हो। उसकी दृष्टि रचनात्मक होनी चाहिए। वह समसामयिकता को साथ लेकर चले, पर आने वाले कल की चिंता जरूर करे। अतीत में जो उदात्त है, श्रेष्ठ है, उससे वह प्रेरणा ले। वह भविष्य को उज्ज्वलतर बनाने की चिंता करे। भविष्य-निर्माण के लिए साहित्यकार को सभी प्रकार के संभव प्रयास करने चाहिए।' अटल जी के सबसे पसंदीदा कवियों में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंशराय बच्चन, शिवमंगल सिंह सुमन और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ प्रमुख थे। उनका एक चर्चित गीत है -
गीत नया गाता हूँ।
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर,
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात, कोयल की कूक रात,
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं,
गीत नया गाता हूँ।
टूटे हुए सपनों की सुने कौन सिसकी,
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी,
हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा,
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ,
गीत नया गाता हूँ।
अटल जी का पूरा जीवन सादगीपूर्ण राजनीति और साहित्य के प्रति समर्पित रहा। वह कहते थे कि साहित्यिक अनुराग उनको उत्तराधिकार में मिला है। राजनीति की आपाधापी की खिन्नता ने भी उन्हे बार-बार साहित्य की ओर मोड़ा लेकिन वह अपने साहित्यकार के साथ न्याय नहीं कर सके। वह नवंबर 1988 में जब गंभीर रूप से बीमार हो गए, इलाज के लिए न्यूयॉर्क ले जाए गए। वहां से उन्होंने 'धर्मयुग' से संपादक को पत्र लिखा- 'शायद आपको पता हो कि मैं यहां इलाज के लिए आया हूं....डॉक्टर ने जब उस दिन कहा कि ऑपरेशन करना पड़ेगा तो मैं उस रात अच्छी तरह सो नहीं सका। एक आशंका मन को मथती रही। अपने भाव शब्दबद्ध कर डाले। काव्य की कसौटी पर मेरा प्रयास भले ही खरा न उतरे लेकिन यह मेरी जिंदगी का दस्तावेज है।' उनकी वह कविता उसी दौरान प्रमुखता के साथ 'धर्मयुग' के दिसंबर अंक में 'जिंदगी का दस्तावेज' शीर्षक से प्रकाशित हुई -
ठन गई, मौत से ठन गई।
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
उसके बाद से वह लंबे समय तक देश की शीर्ष राजनीति में हस्तक्षेप करते रहे। उन्हें अपार लोकप्रियता मिली लेकिन जो उनकी मौत से ठन गई थी, मौत उनसे आज तक हारती रही। जब शरीर पूरी तरह निश्शक्त हो चला तो बुधवार की शाम वह चिर निद्रा में लीन हो चले।
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